नई दिल्ली:सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत आरोपित एक व्यक्ति की दोषसिद्धि को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि अधिनियम की भाषा में 'प्रावधान है कि अपराध अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति पर इस इरादे से किया जाना चाहिए कि यह जाति के आधार पर किया जा रहा है.'
न्यायमूर्ति बी आर गवई, न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धारा 3 (1)(xi) के तहत अपीलकर्ता दशरथ साहू की सजा को रद्द कर दिया.
बेंच ने कहा कि 'एससी/एसटी अधिनियम की धारा 3(1) (xi) की भाषा समान है क्योंकि इसमें यह भी प्रावधान है कि अपराध अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति पर इस इरादे से किया जाना चाहिए कि यह जाति के आधार पर किया जा रहा है.'
पीठ ने 'मसुमशा हसनशा मुसलमान बनाम महाराष्ट्र राज्य' (2000) मामले में शीर्ष अदालत के फैसले का हवाला देते हुए कहा, 'शीर्ष अदालत ने एफआईआर और अभियोजक/शिकायतकर्ता की शपथपूर्ण गवाही की जांच की, जैसा कि उच्च न्यायालय के साथ-साथ ट्रायल कोर्ट के फैसलों में भी दिया गया है.'
पीठ ने कहा कि जैसा कि एफआईआर में पेश किया गया है और पीड़िता की शपथ ली गई गवाही से पता चलता है कि पीड़िता/शिकायतकर्ता आरोपी-अपीलकर्ता के घर में घरेलू काम करने के लिए लगी हुई थी, जिसने पीड़िता/शिकायतकर्ता के रहते हुए उसकी लज्जा भंग करने की कोशिश की थी.