हैदराबाद:कश्मीर दशकों तक चुनावों से दूर और मतदान तालिका में सबसे निचले पायदान पर रहा जहां बेहद कम आंकड़े दर्ज किए गए. कश्मीर में चुनावी प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न हुई क्योंकि घाटी में राजनीतिक उथल-पुथल की लहरें चल रही थीं. आलम ऐसा था कि, मतदान के दिन लोग डर से अपने-अपने घरों में ही रहते थे. कश्मीर में उस समय वोट डालने और उंगली पर स्याही लगवाने का मतलब किसी के जीवन से खेलना हो सकता था. हालांकि, अब हालात बदल गए हैं. मौजूदा लोकसभा चुनावों में मतदान के आंकड़ों में भारी बढ़ोतरी देखी गई है, जिससे पूरा पासा ही पलट गया है. ताजा उदाहरण में देखें तो बारामूला लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में संसदीय चुनाव के पांचवें चरण में 20 मई को मतदान हुआ. जिसमें लगभग 60 प्रतिशत मतदान दर्ज किया गया, जो 1967 के संसदीय चुनाव के बाद सबसे अधिक है.
पहले और अब का कश्मीर
कोई भी चुनाव विश्लेषक इन आंकड़ों को असाधारण ही कहेगा. 2019 के लोकसभा चुनावों में, निर्वाचन क्षेत्र में केवल 34.89 प्रतिशत मतदान दर्ज किया गया. इस बार जो दिलचस्प है वह यह है कि, इस निर्वाचन क्षेत्र के जिन क्षेत्रों को कभी उग्रवाद ग्रसित इलाका माना जाता था, वे अपने लोकतांत्रिक अधिकार का प्रयोग करने के लिए कैसे सामने आए हैं. उदाहरण के लिए, कभी अस्थिर रहे पट्टन, हंदवाड़ा और यहां तक कि त्रेहगाम (जेकेएलएफ के संस्थापक मकबूल भट का जन्मस्थान) विधानसभा क्षेत्रों में इस बार 60 प्रतिशत से अधिक मतदान हुआ.
राष्ट्र के लिए खुशी का क्षण
एक राष्ट्र के रूप में भारत के लिए यह वास्तव में एक ख़ुशी का क्षण है. ब्रिटिश शासन के खात्मे के बाद से, खासकर 1987 के बाद से देश में सरकारें बनाने की लोकतांत्रिक प्रक्रिया कश्मीर में लगभग गायब थी. जहां पूरा देश चुनावी उत्सव मनाता था, वहीं कश्मीर वीरान नजर आता था. इतना ही नहीं घाटी की सड़कों पर खून-खराबा होता था. मतदान बड़े पैमाने पर दिखावटी होते थे. चुनावी अभियान को लेकर गंभीर स्थिति बनी रहती थी, जिसके कारण उम्मीदवारों को अपने मतदाता मुश्किल से ही दिखते थे.
पहले घाटी में होता था चुनावों का बहिष्कार
शासकों और जिन पर शासन किया जा रहा था उनके बीच बहुत बड़ा अलगाव था. अलगाववादी संगठनों द्वारा चुनाव बहिष्कार के आह्वान के बाद यह अंतर और भी अधिक बढ़ गया. लोग दूर रहे क्योंकि यह व्यापक रूप से स्वीकार किया गया था कि वोट डालने से अलगाववादी भड़क जाएंगे और किसी की जान को खतरा हो सकता है. अलगाववादी खेमा खुद चुनाव से उभरा था और पद के लिए दौड़ रहे एक राजनेता के लिए वोट की कीमत जानता था.सैयद सलाहुद्दीन (हिज्बुल मुजाहिदीन के प्रमुख) और सैयद अली शाह गिलानी (पूर्व हुर्रियत प्रमुख) जैसे लोग 1987 के चुनाव में मैदान में थे, जब जेल में बंद अलगाववादी नेता मोहम्मद यासीन मलिक ने उनके लिए पोलिंग एजेंट के रूप में अभियान चलाया था. उन्होंने मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट (एमयूएफ) के चुनाव चिह्न कलम और गमले पर चुनाव लड़ा. एक दशक के बाद उसी प्रतीक को मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने अपनाया, जिसका नेतृत्व अब उनकी बेटी और पूर्ववर्ती जम्मू-कश्मीर राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती कर रही हैं.
पहले कोई प्रचार-प्रसार नहीं होता था
चुनाव हारने के बाद पूरा एमयूएफ नेतृत्व नियंत्रण से बाहर हो गया और फारूक अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नेशनल कॉन्फ्रेंस पर चुनाव में धांधली का आरोप लगाया. विभिन्न राजनीतिक समूहों ने नेशनल कॉन्फ्रेंस के शासन को समाप्त करने के प्रयास में उनके खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए मिलकर काम किया था. अलगाववाद का समर्थन करने के लिए समान ताकतों ने मिलकर अलगाववादी दलों की स्थापना की. उन्होंने सबसे पहला काम यह किया कि चुनावों को एक नाजायज प्रक्रिया और इसमें भाग लेने वालों को गैर-अस्तित्व घोषित कर दिया. चूंकि डर का बोलबाला था, संसद या राज्य विधानसभा में लोगों का प्रतिनिधित्व काफी दयनीय थी, क्योंकि जो विजेता घोषित किए गए थे, उन्हें बहुत कम संख्या में मतदाताओं का समर्थन प्राप्त था. पूरे क्षेत्र के अधिकांश लोग चुनाव से दूर रहे. 1987 के बाद हुए राज्य चुनावों में अधिकतर भारी सुरक्षा तैनाती, कम मतदान प्रतिशत और जमीनी स्तर पर कोई प्रचार-प्रसार नहीं हुआ.