नई दिल्ली : 20 साल की ही तो उम्र थी लेकिन बिना कुछ सोचे समझे उसने प्रण किया और मां भारती को आजाद कराने के इरादे संग खुद को झोंक दिया. इस जांबाज का नाम था कानाईलाल दत्त. फांसी के बाद अंग्रेज वार्डेन तक ने कहा था “मैं पापी हूं जो कानाईलाल को फांसी चढ़ते देखता रहा. अगर उसके जैसे 100 क्रांतिकारी आपके पास हो जाएं तो आपको अपना लक्ष्य कर के भारत को आजाद करने में ज्यादा देर न लगे.”
10 नवंबर 1908 को इस क्रांतिकारी युवा को फांसी दी गई. कानाईलाल के एक साथी मोतीलाल राय ने उनकी शहादत के 15 साल बाद एक पत्रिका में उस दृश्य का वर्णन किया जो कलकत्ता की सड़कों पर देखा. इसमें लिखा था अर्थी अपने गंतव्य पर पहुंची और कानाईलाल के शरीर को चिता पर रखा गया.
“जैसे ही सावधानी से कंबल हटाया गया, हमने क्या देखा – तपस्वी कनाई की मनमोहक सुंदरता का वर्णन करने के लिए भाषा कम पड़ रही है – उसके लंबे बाल उसके चौड़े माथे पर एक साथ गिरे हुए थे, आधी बंद आँखें अभी भी उनींदेपन में थीं जैसे अमृत की परीक्षा से, दृढ़ संकल्प की जीवंत रेखाएँ दृढ़ता से बंद होठों पर स्पष्ट दिखाई दे रही थीं, घुटनों तक पहुँचते हाथ मुट्ठियों में बंद थे. यह अद्भुत था! कनाई के अंगों पर कहीं भी हमें मृत्यु की पीड़ा को दर्शाने वाली कोई बदसूरत झुर्री नहीं मिली….”
अपने दल के सबसे बहादुर और निर्भीक क्रांतिकारी कानाईलाल की इस शवयात्रा में 'जय कानाई' नाम से गगनभेदी जयकारे लग रहे थे. उस समय लोगों के ऊपर उनके इस बलिदान का कितना असर हुआ इसका अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि उनकी अस्थियों को उनके एक समर्थक ने 5 रुपए में खरीदा था.