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बंगाल का वो 'शेर' जिसने हंसते-हंसते चूमा फांसी का फंदा, अर्थी भी समर्थकों ने खरीदी थी - Story of Lion of Bengal

By IANS

Published : Aug 30, 2024, 6:01 PM IST

पश्चिम बंगाल का वह शेर जिसकी कहानी पढ़कर आज भी रोमांच जाग जाता है. किस तरह से उन्होंने आजादी के जंग में अपनी आहूति दी थी, इसके किस्से आज भी प्रेरित करते हैं. क्या है यह कहानी, क्या है उनका नाम, जानने के लिए पढ़ें पूरी खबर.

Kanailal Dutta
कानाईलाल दत्त (IANS)

नई दिल्ली : 20 साल की ही तो उम्र थी लेकिन बिना कुछ सोचे समझे उसने प्रण किया और मां भारती को आजाद कराने के इरादे संग खुद को झोंक दिया. इस जांबाज का नाम था कानाईलाल दत्त. फांसी के बाद अंग्रेज वार्डेन तक ने कहा था “मैं पापी हूं जो कानाईलाल को फांसी चढ़ते देखता रहा. अगर उसके जैसे 100 क्रांतिकारी आपके पास हो जाएं तो आपको अपना लक्ष्य कर के भारत को आजाद करने में ज्यादा देर न लगे.”

10 नवंबर 1908 को इस क्रांतिकारी युवा को फांसी दी गई. कानाईलाल के एक साथी मोतीलाल राय ने उनकी शहादत के 15 साल बाद एक पत्रिका में उस दृश्य का वर्णन किया जो कलकत्ता की सड़कों पर देखा. इसमें लिखा था अर्थी अपने गंतव्य पर पहुंची और कानाईलाल के शरीर को चिता पर रखा गया.

“जैसे ही सावधानी से कंबल हटाया गया, हमने क्या देखा – तपस्वी कनाई की मनमोहक सुंदरता का वर्णन करने के लिए भाषा कम पड़ रही है – उसके लंबे बाल उसके चौड़े माथे पर एक साथ गिरे हुए थे, आधी बंद आँखें अभी भी उनींदेपन में थीं जैसे अमृत की परीक्षा से, दृढ़ संकल्प की जीवंत रेखाएँ दृढ़ता से बंद होठों पर स्पष्ट दिखाई दे रही थीं, घुटनों तक पहुँचते हाथ मुट्ठियों में बंद थे. यह अद्भुत था! कनाई के अंगों पर कहीं भी हमें मृत्यु की पीड़ा को दर्शाने वाली कोई बदसूरत झुर्री नहीं मिली….”

अपने दल के सबसे बहादुर और निर्भीक क्रांतिकारी कानाईलाल की इस शवयात्रा में 'जय कानाई' नाम से गगनभेदी जयकारे लग रहे थे. उस समय लोगों के ऊपर उनके इस बलिदान का कितना असर हुआ इसका अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि उनकी अस्थियों को उनके एक समर्थक ने 5 रुपए में खरीदा था.

30 अगस्त 1888 को एक नवजात का जन्म बंगाल के हुगली में हुआ। नाम रखा गया कनाईलाल दत्त. कानाई के पिता चुन्नीलाल दत्त बंबई में ब्रिटिश भारत सरकार सेवा में कार्यरत थे. पांच साल के कानाई अपने पिता के पास बंबई चले गए. यहीं से पढ़ाई लिखाई शुरू की. थोड़े बड़े हुए तो अपने चंद्रनगर स्थित घर आ गए. यहीं के हुगली कॉलेज से स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की। लेकिन राजनीतिक गतिविधियों को भी विराम नहीं दिया. खामियाजा भी भुगता और ब्रिटिश सरकार ने उनकी डिग्री पर चाबुक चलाया यानि डिग्री ही रोक दी.

30 अप्रैल 1908 को कलकत्ता में चीफ प्रेंसीडेसी मजिस्ट्रेट को मारने के इरादे से हमला क्रांतिकारियों ने हमला किया. लेकिन इसमें एक अंग्रेज महिला मिसेज कैनेडी और उनकी बच्ची मारे गए. क्रांतिकारियों ने सीना ठोक कर इसे स्वीकार किया. फिर धरपकड़ शुरू हुई और कानाई भी अपने साथियों संग पकड़े गए. इस केस में मुखबिरी हुई थी और इस युवा क्रांतिकारी ने उस मुखबिर को पुलिस की मौजूदगी में मौत के घाट उतार दिया.

19 वर्ष में खुदीराम बोस ने शहादत दी तो उनसे महज 1 साल 3 महीने बड़े कानाई ने भी खुद को फना कर दिया. खुदीराम बोस से लगभग 1 वर्ष 3 महीने पहले इस दुनिया में आए और बोस के दुनिया को अलविदा कहने के तीन महीने बाद फांसी की सजा को हंसते-हंसते कबूल कर लिया. इस नायक ने 20 वर्ष की उम्र में देश के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान दिया.

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