नई दिल्ली:सुप्रीम कोर्ट ने लगभग तीन दशक पुराने हत्या के मामले में पिता-पुत्र को बरी कर दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि गुजरात हाईकोर्ट ने स्थापित सिद्धांत को अनदेखा किया है. आगे कहा कि अपीलीय अदालत केवल इस आधार पर बरी करने के आदेश को पलट नहीं सकती कि एक और दृष्टिकोण संभव है.
न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने कहा कि अपीलीय अदालत बरी करने के आदेश में तभी हस्तक्षेप कर सकती है, जब वह सबूतों की फिर से सराहना करने के बाद संतुष्ट हो कि एकमात्र संभावित निष्कर्ष यह है कि आरोपी का अपराध तर्कसम्मत संदेह से परे स्थापित किया गया है.
पीठ की ओर से फैसला लिखने वाले न्यायमूर्ति ओका ने कहा, 'अपीलीय अदालत केवल इस आधार पर बरी करने के आदेश को पलट नहीं सकती कि एक और दृष्टिकोण संभव है. दूसरे शब्दों में बरी करने का निर्णय विकृत पाया जाना चाहिए. जब तक अपीलीय अदालत इस तरह के निष्कर्ष को दर्ज नहीं करती, बरी करने के आदेश में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है.'
पीठ ने 10 अप्रैल को दिए फैसले में कहा कि उच्च न्यायालय ने इस सुस्थापित सिद्धांत की अनदेखी की है कि बरी करने का आदेश आरोपी की बेगुनाही की धारणा को और मजबूत करता है. उच्च न्यायालय के फैसले में दूसरी त्रुटि की ओर इशारा करते हुए, न्यायमूर्ति ओका ने कहा, 'उच्च न्यायालय एक निष्कर्ष दर्ज करने की हद तक चला गया है कि अपीलकर्ता अपने समर्थन में सबूत पेश करने में विफल रहा है. बचाव पक्ष के गवाह की जांच करने में विफल रहा है और झूठ साबित करने में विफल रहा है. अभियोजन पक्ष की कहानी सबूत के बोझ की यह अवधारणा पूरी तरह से गलत है.'