उत्तरकाशीः गंगा घाटी के गांवों में धान, मंडुआ, आलू आदि फसलें तैयार हैं. अब तैयारी है, इन्हें काटने की. देवभूमि में हर पवित्र कार्य करने से पहले देव अनुमति लेने की परंपरा है और इसी अनुष्ठान का नाम है 'सेलकु या सेलुकू' मेला. इस मेले में ग्रामीण अपने आराध्य सोमेश्वर देवता की पूजा अर्चना कर अच्छी फसल की कामना करने के साथ ही पशुपालकों की जंगलों से सकुशल वापसी का आभार जताते हैं. धार्मिक परंपरा में शुमार इस मेले में गंगा घाटी की समृद्ध संस्कृति की झलक देखने को मिलती है.
गंगा घाटी के टकनौर, उपला टकनौर और नाल्ड कठूड़ पट्टी के गांवों में आजकल सेलकु मेले की धूम (Uttarkashi Selku Mela) है. भादों मास की पूर्णमासी को भटवाड़ी ब्लॉक के गोरसाली गांव से शुरू होने वाली सेलकु मेलों की श्रृंखला क्षेत्र के विभिन्न गांवों से होते हुए गंगा के मायके मुखबा गांव में संपन्न होती है. क्षेत्र के सौरा, सालू, स्याबा, पिलंग, सिल्ला, जखोल, लाटा, भंगेली, सुक्की, झाला, जसपुर, पुराली, धराली आदि गांवों में सेलकु मेले का आयोजन किया जाता है.
दो दिनों तक चलने वाले इस मेले में पहले दिन ग्रामीण जंगलों एवं ऊंचे बुग्यालों से लाए गए ब्रह्मकमल, हिस्सर, गूगुल, मासी, जटा, जयाण आदि फूलों से अपने गांव में समेश्वर देवता मंदिर की थात (चौकी) को सजाते हैं. देवता की विशेष पूजा-अर्चना के साथ मेले का शुभारंभ होता है और पूरी रात ग्रामीण लोकगीतों पर रांसो, तांदी आदि नृत्य करते हैं.
यह मेला बहुत ही पौराणिक है. पारंपरिक परिधानों में सजे ग्रामीणों की ओर से लोकगीत एवं लोकनृत्यों की प्रस्तुति में क्षेत्र की समृद्ध संस्कृति की झलक देखने को मिलती है. मेला पूरी रात चलने से गांव में कोई सोता भी नहीं है और इसी कारण इस मेले का नाम सेलकु (सोएगा कौन) पड़ा है. ग्रामीणों घरों में स्थानीय पकवान बनाकर मेहमानों की आवभगत करते हैं.
ये भी पढ़ेंः मखमली बुग्यालों से गांव लौटे चरवाहे, रैथल में धूमधाम से मनाया गया भेड़ों का मेला
सेलकु मेले में ग्रामीण ही नहीं बल्कि, बाहरी गांवों में ब्याही ध्याणियां (बेटियां) भी अपने मायके पहुंचती हैं और आराध्य देवता का आशीर्वाद लेती हैं. साथ ही भेंट भी चढ़ाती हैं. अगले दिन मंदिर के चौक पर देवता का आसन लगाया जाता है. इसमें सोमेश्वर देवता के पश्वे धारदार डांगरियों (छोटी कुल्हाड़ियों) पर चल कर ग्रामीणों को आशीर्वाद देते हैं, साथ ही ग्रामीणों की समस्याओं का समाधान भी करता है.
सेलकु मेला संपन्न होने के बाद ही खेतों में फसल की कटाई का काम शुरू होता है. पिछले कुछ सालों से सेलकु मेलों के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ा है और शहरों से भी बड़ी संख्या में लोग इन मेलों में शामिल होने पहुंचते हैं. गंगोत्री यात्रा मार्ग से लगे गांवों में होने वाले सेलकु मेला पर्यटन के लिहाज से भी महत्वपूर्ण हो सकते हैं.
समृद्ध संस्कृति की पहचान है सेलकुः गंगोत्री धाम के तीर्थ पुरोहित एवं प्रख्यात लोक गायक रजनीकांत सेमवाल (Folk Singer Rajanikant Semwal) बताते हैं कि सेलकु मेला गंगा घाटी की समृद्ध संस्कृति एवं परंपराओं की पहचान है. इस मेले को लेकर क्षेत्र में कई लोकगीत प्रचलित हैं.
सोमेश्वर देवता की स्तुति में 'कुल्लू छोड़ी कशमीर आयो रे, हां हां बै कफुआ' के साथ ही सेलुकू मेलों के दौरान 'डांडू क्या फुल फुलाला-2, डांडू फूल फुलल जयाण, ताज लेसर खिल्याण. चल भुलों थौलु जौला, गंगा मां भैंटीक औला' आदि गीतों की खूब धूम रहती है. उन्होंने कहा कि इन परंपरागत मेलों को संरक्षित रखना स्थानीय लोगों की जिम्मेदारी है. सरकार की ओर से इन मेलों को पर्यटन से जोड़ने के प्रयास किए जाने चाहिए.
वहीं, शनिवार को मां गंगा के शीतकालीन प्रवास और भारत चीन सीमा (Indo China Border) में बसे मुखबा में हिमालय क्षेत्र के राजा कहे जाने वाले सोमेश्वर (समेश्वर) देवता (Someshwar Devta Uttarkashi) के आसन के साथ सेलकु मेले का समापन हुआ. सोमेश्वर देवता के पश्वा ये आसन नुकली डांगरियों (छोटी कुल्हाडियों) के ऊपर चलकर लगाते हैं.
साथ ही श्रद्धालुओं और ग्रामीणों को आशीर्वाद देते हैं और उनकी समस्या का समाधान करते हैं. इस दो दिवसीय सेलकु मेले (Villagers Celebrated Selku Mela) में जहां पहली रात ग्रामीण रासो तांदी नृत्य के साथ भेलो घुमाते हैं तो अगले दिन दिन में देव डोली को कंधे पर नचाने के साथ रासो तांदी का आयोजन (Raso Tandi Dance) करते हैं.
ये भी पढ़ेंः ढोल दमाऊ की थाप पर धरती पर अवतरित होते हैं देवता, विधा को संजाने की दरकार