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Uttarkashi Magh Mela: बाड़ाहाट कु थौलू में दिखी अनूठी संस्कृति, हाथी के स्वांग पर कंडार देवता हुए सवार

उत्तरकाशी के माघ मेले (बाड़ाहाट कु थौलू) में अनूठी संस्कृति देखने को मिली. यहां बाड़ाहाट यानी उत्तरकाशी के आराध्य कंडार देवता हाथी के स्वांग पर सवार हुए और नगर भ्रमण किया. वहीं, मेले में रासो तांदी का नृत्य भी देखने को मिला. यह मेला ऐतिहासिक और पौराणिक है, जो भारत और तिब्बत व्यापार का गवाह है.

Elephant farce Uttarkashi
बाड़ाहाट कु थौलू
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Published : Jan 16, 2023, 5:18 PM IST

Updated : Jan 16, 2023, 5:49 PM IST

हाथी के स्वांग पर सवार हुए कंडार देवता.

उत्तरकाशीः सीमांत जनपद उत्तरकाशी का पौराणिक माघ मेला यानी बाड़ाहाट कु थौलू काफी प्रसिद्ध है. आज मेले का तीसरे दिन है और तीसरे दिन काशी नगरी में अनूठी संस्कृति की झलक देखने को मिली. यहां हाथी के स्वांग पर सवार बाड़ाहाट के आराध्य कंडार देवता की शोभायात्रा और चमाला की चौंरी पर बाड़ागड्डी की देव डोलियों का मिलन एवं नृत्य आकर्षण का केंद्र रहा. जिसे देखने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ी रही.

दरअसल, उत्तरकाशी में माघ मेला चल रहा है. सोमवार सुबह कंडार देवता की शोभायात्रा चमाला की चौंरी से शुरू हुई. यहां से शोभायात्रा मेला मैदान होते हुए यात्रा मणिकर्णिका घाट पहुंची. यहां विशेष पूजा-अर्चना के बाद भटवाड़ी रोड होते हुए यात्रा दोबारे चमाला की चौंरी में संपन्न हुई. सैकड़ों श्रद्धालुओं के साथ निकली यात्रा का नगर में फूल मालाओं से स्वागत किया गया.

इसके बाद चमाला की चौंरी पर बाड़ागड्डी क्षेत्र के आराध्य हरि महाराज के ढोल, हुण देवता, खंडद्वारी देवी की डोली और शंकर भगवान के निशान का नृत्य एवं मिलन आकर्षण का केंद्र रहा. श्रद्धालुओं ने देवी-देवताओं से खुशहाली की कामना की. वहीं, मेले में सांस्कृतिक विरासत और लोक संस्कृति की झलक देखने को मिली. जिसे देख लोग अभिभूत हो गए.

बता दें कि उत्तरकाशी को छोटी काशी भी कहा जाता है. यहां पर पौराणिक माघ मेला लगता है. जिसे बाड़ाहाट कु थौलू कहा जाता है. जो हर माघ महीने में आयोजित होता है. बाड़ाहाट कु थौलू का अपना धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व माना जाता है. मान्यता है कि यह थौलू यानी मेला महाभारत काल से जुड़ा हुआ है. इतना ही नहीं यह मेला भारत और तिब्बत के व्यापार का साक्षी भी रहा है. यही वजह है कि इसे ऐतिहासिक मेला भी करार दिया जाता है.
ये भी पढ़ेंः ढोल दमाऊ की थाप पर धरती पर अवतरित होते हैं देवता, विधा को संजाने की दरकार

उत्तरकाशी का पुराना नाम बाड़ाहाट था. बाड़ाहाट का अर्थ होता है, बड़ा हाट या बाजार है. आजादी से पहले तिब्बत के व्यापारी नमक, ऊन, सोना-चांदी, जड़ी-बूटियां, गाय और घोड़े बेचने के लिए बाड़ाहाट आते थे. यहां से तिब्बत के व्यापारी धान, गेहूं आदि सामान लेकर जाते थे. मेले में उत्तरकाशी के अलावा टिहरी के ग्रामीण अपने देवी-देवताओं को लेकर आते थे. जो यहां पर देवताओं का गंगा स्नान कराते थे.

जानकार बताते हैं कि उस वक्त नेलांग घाटी में स्थित गरतांग या गर्तांग गली से व्यापार होता था. यह वही जगह है जहां पर खतरनाक चट्टानों पर सीढ़ियां बनाई गई है. जो क्षतिग्रस्त हो गई थी. जिसे साल 2021 में अगस्त महीने में लोक निर्माण विभाग ने करीब 65 लाख की लागत इसका पुनर्निर्माण कराया. यह यह रास्ता भारत और तिब्बत व्यापार का जीता जागता गवाह है. इतना ही साल 1962 में जब भारत और चीन का युद्ध हुआ था, उस समय भी सेना ने भी इसी खतरनाक रास्ते का इस्तेमाल अंतरराष्ट्रीय सीमा तक पहुंचने के लिए किया था.

वहीं, जानकारी बताते हैं कि साल 1962 तक तिब्बत के व्यापारी माघ मेले में आते थे, लेकिन जब सीमाएं बंद हुई तो तिब्बती व्यापारियों का यहां आना भी बंद हो गया. भले ही यह व्यापार आज बंद है, लेकिन पौराणिक और ऐतिहासिक मेले के आयोजन की परंपरा आज भी जारी है. यह मेला कई लोगों को रोजगार से भी जोड़ता है. साथ ही ग्रामीणों को भी खरीदारी का मौका मिल जाता है.

हाथी के स्वांग पर सवार हुए कंडार देवता.

उत्तरकाशीः सीमांत जनपद उत्तरकाशी का पौराणिक माघ मेला यानी बाड़ाहाट कु थौलू काफी प्रसिद्ध है. आज मेले का तीसरे दिन है और तीसरे दिन काशी नगरी में अनूठी संस्कृति की झलक देखने को मिली. यहां हाथी के स्वांग पर सवार बाड़ाहाट के आराध्य कंडार देवता की शोभायात्रा और चमाला की चौंरी पर बाड़ागड्डी की देव डोलियों का मिलन एवं नृत्य आकर्षण का केंद्र रहा. जिसे देखने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ी रही.

दरअसल, उत्तरकाशी में माघ मेला चल रहा है. सोमवार सुबह कंडार देवता की शोभायात्रा चमाला की चौंरी से शुरू हुई. यहां से शोभायात्रा मेला मैदान होते हुए यात्रा मणिकर्णिका घाट पहुंची. यहां विशेष पूजा-अर्चना के बाद भटवाड़ी रोड होते हुए यात्रा दोबारे चमाला की चौंरी में संपन्न हुई. सैकड़ों श्रद्धालुओं के साथ निकली यात्रा का नगर में फूल मालाओं से स्वागत किया गया.

इसके बाद चमाला की चौंरी पर बाड़ागड्डी क्षेत्र के आराध्य हरि महाराज के ढोल, हुण देवता, खंडद्वारी देवी की डोली और शंकर भगवान के निशान का नृत्य एवं मिलन आकर्षण का केंद्र रहा. श्रद्धालुओं ने देवी-देवताओं से खुशहाली की कामना की. वहीं, मेले में सांस्कृतिक विरासत और लोक संस्कृति की झलक देखने को मिली. जिसे देख लोग अभिभूत हो गए.

बता दें कि उत्तरकाशी को छोटी काशी भी कहा जाता है. यहां पर पौराणिक माघ मेला लगता है. जिसे बाड़ाहाट कु थौलू कहा जाता है. जो हर माघ महीने में आयोजित होता है. बाड़ाहाट कु थौलू का अपना धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व माना जाता है. मान्यता है कि यह थौलू यानी मेला महाभारत काल से जुड़ा हुआ है. इतना ही नहीं यह मेला भारत और तिब्बत के व्यापार का साक्षी भी रहा है. यही वजह है कि इसे ऐतिहासिक मेला भी करार दिया जाता है.
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उत्तरकाशी का पुराना नाम बाड़ाहाट था. बाड़ाहाट का अर्थ होता है, बड़ा हाट या बाजार है. आजादी से पहले तिब्बत के व्यापारी नमक, ऊन, सोना-चांदी, जड़ी-बूटियां, गाय और घोड़े बेचने के लिए बाड़ाहाट आते थे. यहां से तिब्बत के व्यापारी धान, गेहूं आदि सामान लेकर जाते थे. मेले में उत्तरकाशी के अलावा टिहरी के ग्रामीण अपने देवी-देवताओं को लेकर आते थे. जो यहां पर देवताओं का गंगा स्नान कराते थे.

जानकार बताते हैं कि उस वक्त नेलांग घाटी में स्थित गरतांग या गर्तांग गली से व्यापार होता था. यह वही जगह है जहां पर खतरनाक चट्टानों पर सीढ़ियां बनाई गई है. जो क्षतिग्रस्त हो गई थी. जिसे साल 2021 में अगस्त महीने में लोक निर्माण विभाग ने करीब 65 लाख की लागत इसका पुनर्निर्माण कराया. यह यह रास्ता भारत और तिब्बत व्यापार का जीता जागता गवाह है. इतना ही साल 1962 में जब भारत और चीन का युद्ध हुआ था, उस समय भी सेना ने भी इसी खतरनाक रास्ते का इस्तेमाल अंतरराष्ट्रीय सीमा तक पहुंचने के लिए किया था.

वहीं, जानकारी बताते हैं कि साल 1962 तक तिब्बत के व्यापारी माघ मेले में आते थे, लेकिन जब सीमाएं बंद हुई तो तिब्बती व्यापारियों का यहां आना भी बंद हो गया. भले ही यह व्यापार आज बंद है, लेकिन पौराणिक और ऐतिहासिक मेले के आयोजन की परंपरा आज भी जारी है. यह मेला कई लोगों को रोजगार से भी जोड़ता है. साथ ही ग्रामीणों को भी खरीदारी का मौका मिल जाता है.

Last Updated : Jan 16, 2023, 5:49 PM IST
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