उत्तरकाशीः उत्तराखंड को कुदरत ने प्राकृतिक सुंदरता के साथ बहुमूल्य वन संपदा से नवाजा है. जिनमें हिमालयराज के ताज को सुशोभित करने वाला ब्रह्मकमल भी शामिल है. ब्रह्मकमल का विशेष धार्मिक भी महत्व है. ग्रामीण हिमालय से ब्रह्मकमल के फूल को तोड़कर घर लाते हैं और देवी-देवताओं को चढ़ाते हैं, लेकिन फूल तोड़ने के लिए आराध्य देव सोमेश्वर की आज्ञा भी लेनी पड़ती है. माना जाता है कि इस देवपुष्प को घर में रखने से सुख-समृद्धि आती है. इतना ही नहीं ये औषधीय गुणों से भरपूर होता है. ऐसे में इसे रिश्तेदारों को प्रसाद स्वरूप भेंट देने की परंपरा भी है.
उत्तरकाशी जिले की गंगोत्री घाटी, हर्षिल घाटी, बडियार और गीठ पट्टी समेत मोरी के ऊंचाई वाले बुग्यालों में इन दिनों ब्रह्मकमल के फूल खिले हुए हैं. यहां ग्रामीण हारदुदु मेले के बाद ब्रह्मकमल के फूल को तोड़कर घर ला रहे हैं. उत्तरकाशी जिले में ब्रह्मकमल को सोमेश्वर देवता का पुष्प माना जाता है. क्योंकि, उपला टकनौर और मोरी के ऊंचाई वाले इलाकों में भगवान सोमेश्वर पूजे जाते हैं. ऐसे में इसे तोड़ने के लिए ग्रामीण अपने आराध्य देव सोमेश्वर की आज्ञा लेते हैं.
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इतना ही नहीं इसे तोड़ने के लिए ग्रामीण नंगे पांव हिमालय जाते हैं. जहां लाकर देवी-देवताओं को चढ़ाया जाता है, फिर उसे प्रसाद के रूप में बांटा जाता है, लेकिन जब तक पुष्प को मंदिर में चढ़ाया नहीं जाता, तब तक इसका इस्तेमाल नहीं किया जाता है. पहाड़ों में होने वाले थौलू मेलों में घर आए मेहमान और मायके आई बेटियों को ब्रह्मकमल का फूल भगवान सोमेश्वर की भेंट के स्वरूप में दिया जाता है.
गंगोत्री धाम के तीर्थ पुरोहित सुधांशु सेमवाल कहते हैं कि हर्षिल घाटी और गंगा मां के शीतकालीन प्रवास मुखबा गांव में अगस्त महीने में हारदुदु मेला होता है. सबसे पहले उस मेले में साल का पहला ब्रह्मकमल आराध्य देव सोमेश्वर (जिसे स्थानीय भाषा मे ह्मयार कहा जाता है) को चढ़ता है. उसके बाद सोमेश्वर देवता ग्रामीणों को ब्रह्मकमल तोड़ने की अनुमति प्रदान करते हैं. कहा जाता है कि ब्रह्मकमल भगवान ब्रह्मा और हिमालय की बेटी मानी जाने वाली नंदा देवी का प्रिय पुष्प भी है.
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वहीं, यमुनोत्री धाम के तीर्थ पुरोहित आशुतोष उनियाल बताते हैं कि मां यमुना के शीतकालीन प्रवास से जब भी आराध्य देव सोमेश्वर और राज राजेश्वरी की देवडोली सरुताल की यात्रा पर जाते हैं तो ऊंचे बुग्याल में देव-डोलियों की पूजा ब्रह्मकमल के फूल से की जाती है. साथ ही जिले के ऊंचाई वाले क्षेत्र में अगस्त और सितंबर महीने में आयोजित होने वाले सेलकु मेले में भी सोमेश्वर को ब्रह्मकमल चढ़ाया जाता है.
बता दें कि ब्रह्मकमल की पूरे भारत मे 61 प्रजातियां पाई जाती हैं. जिसमें से 58 प्रजातियां हिमालय में पायी जाती हैं. ब्रह्मकमल का वानस्पतिक नाम सोसेरिया ओबोवेलाटा (Saussurea obvallata) है. ये एस्टेरेसी कुल का पौधा है. ब्रह्मकमल हिमालय में 11 हजार से 17 हजार फुट की ऊंचाई पर पाया जाता है. हेमकुंड समेत कई हिमालयी इलाकों में यह स्वाभाविक रूप से दिखाई देता है. केदारनाथ और बदरीनाथ के मंदिरों में ब्रह्मकमल चढ़ाने की परंपरा है.
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वास्तुदोष और बुरी नजरों से बचाता है ब्रह्मकमलः आज भी भोटिया जाति के लोग और ऊंचाई वाले इलाकों के ग्रामीण ब्रह्मकमल को घरों की चौखट के ऊपर और देवालय में रखते हैं. माना जाता है कि इसे घर के चौखट पर लगाने से वास्तुदोष दूर होता है और अन्य बुरी नजरों से भी बचाता है.
औषधीय गुणों से भरपूर ब्रह्मकमलः जानकार बताते हैं कि ब्रह्मकमल का प्रयोग कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी के इलाज के लिए भी किया जाता है. साथ ही इसके सूखने के बाद अगर इसके रस को पिया जाए तो इससे बदन दर्द समेत खांसी-जुखाम जैसी बीमारियां ठीक होती हैं.