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द्वारिका डूबने के बाद देवभूमि के इस स्थान पर अवतरित हुए थे भगवान श्रीकृष्ण

टिहरी जिले में सेममुखेम नागराजा मंदिर स्थित है. माना जाता है कि द्वारिका में डूबने के बाद भगवान श्रीकृष्‍ण नागराजा के रूप में यहीं प्रकट हुए थे. जबकि, यहां पर शिलाएं गाय के खुर के रूप में भी मौजूद है.

sem mukhem temple
सेममुखेम
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Published : Aug 11, 2020, 6:04 AM IST

Updated : Aug 30, 2021, 3:29 PM IST

टिहरी: उत्तराखंड में ऐसे कई ऐतिहासिक मठ-मंदिर हैं, जिनसे कई लोग अनभिज्ञ हैं. जिनका उल्लेख पुराणों में मिलता है. ऐसा ही एक मंदिर टिहरी जिले में स्थित है, जिसे सेममुखेम नाम से जाना जाता है. जो भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित है. इस मंदिर की महत्ता ही है, जहां साल भर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है.

कहते है अगर मनुष्य की कुंडली में काल सर्पयोग हो तो वह अकाल मृत्यु को प्राप्त होता है, लेकिन पुराणों में इस काल सर्प दोष से मुक्ति की युक्ति भी है. देवभूमि उत्तराखंड के टिहरी जिले के सेममुखेम नागराजा मंदिर में आने से कुंडली में इस योग का समाधान हो जाता है. यहां भगवान श्रीकृष्ण साक्षात नागराज के रूप में विराजमान हैं.

सेममुखेम में अवतरित हुए थे भगवान श्रीकृष्ण.

मान्यता है कि द्वापर युग में कालिंदी नदी में जब बाल स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण गेंद लेने उतरे तो उन्होंने इस कालिया नाग को इस नदी से सेममुखेम जाने को कहा. तब कालिया नाग ने भगवान श्रीकृष्ण से सेममुखेम आकर दर्शन देने की इच्छा जाहिर की. कहते हैं इस वचन को पूरा करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण द्वारिका छोड़कर उत्तराखंड के रमोला गढ़ी में आकर स्थापित हो गए. जो आज सेममुखेम नागराजा मंदिर के नाम से जाना जाता है.

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सेममुखेम नागराजा मंदिर को उत्तराखंड का 5वां धाम भी कहा जाता है. मंदिर के पुजारी का कहना है कि यहां पर भगवान श्रीकृष्ण नागराजा के रूप में साक्षात विराजमान हैं. मान्यता है कि द्वारिका में डूबने के बाद भगवान श्रीकृष्‍ण ने उत्तराखंड में नागराजा के रूप में प्रकट हुए थे. उन्हें नागराजा रूप को सेममुखेम में पूजा जाता है. इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण भी डांडानागराजा (पौड़ी) चले गए, लेकिन वहां उन्हें रास नहीं आया. इसके बाद वे पवित्र धाम सेममुखेम पहुंचे.

मान्यता है कि द्वापर युग के समय गंगू रमोला गढ़पति था. जो काफी वृद्ध हो चुका था. उनकी कोई संतान नहीं थी, लेकिन उनकी पत्‍‌नी की भगवान के प्रति काफी आस्था थी. वह रोज पुत्र रत्‍‌न प्राप्ति की मन्नतें भगवान से मांगती थी, लेकिन गंगू रमोला के आगे उनकी कुछ नहीं चलती थी. इसी दौरान भगवान श्रीकृष्ण रूप बदलकर गंगू रमोला के यहां गए. उन्होंने गंगू रमोला से जमीन मांगी पर गंगू ने एक इंच भूमि देने से इंकार कर दिया. इतनी लीला देखकर भगवान श्री कृष्ण वहां से चले गए और गंगू रमोला की पत्नी के सपने में आए और कहा यदि गंगू रमोला थोड़ी जमीन दे देता तो तुम्हें पुत्र की प्राप्ति होगी, लेकिन गंगू रमोला ने ऐसा नहीं किया.

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गंगू रमोला की पत्नी ने यह सब अपने पति को बताई. यह बात सुन गंगू ने जमीन देने की बात स्वीकार तो कि लेकिन बेमन से उसने मंदिर बनाने का काम शुरू किया. उस जमीन में एक के बाद एक मंदिर बनाता गया, लेकिन वो रात होते ही टूट जाते थे. यह देख उसकी पत्नी और गंगू बहुत दुखी होने लगे. एक रात गंगू की पत्नी बहुत दुखी हुई, उसी समय श्रीकृष्ण गंगू की पत्नी के सपने में आए और कहा कि गंगू रमोला मन से मंदिर नहीं बना रहा है. इसलिए तुम्हें पुत्र प्राप्ति नहीं हो सकती.

वहीं, गंगू रमोला की पत्नी ने सुबह होते ही बात यह गंगू को बताया. इसके बाद गंगू रमोला ने मन से मंदिर बनाया. जिसके बाद भगवान श्रीकृष्ण सेम के नाम से प्रकट हुए और उन्हें पुत्र होने का आशीर्वाद दिया. जिसके बाद गंगू रमोला ने सिदवा और विद्धवा दो पुत्रों को जन्म दिया. बाद में एक भाई रमोल गढ़ का गढ़पति बना और दूसरा कुमाऊं चला गया. इस दौर की शिलाएं आज भी यहां पर गाय के खुर के रूप में मौजूद है.

टिहरी: उत्तराखंड में ऐसे कई ऐतिहासिक मठ-मंदिर हैं, जिनसे कई लोग अनभिज्ञ हैं. जिनका उल्लेख पुराणों में मिलता है. ऐसा ही एक मंदिर टिहरी जिले में स्थित है, जिसे सेममुखेम नाम से जाना जाता है. जो भगवान श्रीकृष्ण को समर्पित है. इस मंदिर की महत्ता ही है, जहां साल भर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है.

कहते है अगर मनुष्य की कुंडली में काल सर्पयोग हो तो वह अकाल मृत्यु को प्राप्त होता है, लेकिन पुराणों में इस काल सर्प दोष से मुक्ति की युक्ति भी है. देवभूमि उत्तराखंड के टिहरी जिले के सेममुखेम नागराजा मंदिर में आने से कुंडली में इस योग का समाधान हो जाता है. यहां भगवान श्रीकृष्ण साक्षात नागराज के रूप में विराजमान हैं.

सेममुखेम में अवतरित हुए थे भगवान श्रीकृष्ण.

मान्यता है कि द्वापर युग में कालिंदी नदी में जब बाल स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण गेंद लेने उतरे तो उन्होंने इस कालिया नाग को इस नदी से सेममुखेम जाने को कहा. तब कालिया नाग ने भगवान श्रीकृष्ण से सेममुखेम आकर दर्शन देने की इच्छा जाहिर की. कहते हैं इस वचन को पूरा करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण द्वारिका छोड़कर उत्तराखंड के रमोला गढ़ी में आकर स्थापित हो गए. जो आज सेममुखेम नागराजा मंदिर के नाम से जाना जाता है.

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सेममुखेम नागराजा मंदिर को उत्तराखंड का 5वां धाम भी कहा जाता है. मंदिर के पुजारी का कहना है कि यहां पर भगवान श्रीकृष्ण नागराजा के रूप में साक्षात विराजमान हैं. मान्यता है कि द्वारिका में डूबने के बाद भगवान श्रीकृष्‍ण ने उत्तराखंड में नागराजा के रूप में प्रकट हुए थे. उन्हें नागराजा रूप को सेममुखेम में पूजा जाता है. इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण भी डांडानागराजा (पौड़ी) चले गए, लेकिन वहां उन्हें रास नहीं आया. इसके बाद वे पवित्र धाम सेममुखेम पहुंचे.

मान्यता है कि द्वापर युग के समय गंगू रमोला गढ़पति था. जो काफी वृद्ध हो चुका था. उनकी कोई संतान नहीं थी, लेकिन उनकी पत्‍‌नी की भगवान के प्रति काफी आस्था थी. वह रोज पुत्र रत्‍‌न प्राप्ति की मन्नतें भगवान से मांगती थी, लेकिन गंगू रमोला के आगे उनकी कुछ नहीं चलती थी. इसी दौरान भगवान श्रीकृष्ण रूप बदलकर गंगू रमोला के यहां गए. उन्होंने गंगू रमोला से जमीन मांगी पर गंगू ने एक इंच भूमि देने से इंकार कर दिया. इतनी लीला देखकर भगवान श्री कृष्ण वहां से चले गए और गंगू रमोला की पत्नी के सपने में आए और कहा यदि गंगू रमोला थोड़ी जमीन दे देता तो तुम्हें पुत्र की प्राप्ति होगी, लेकिन गंगू रमोला ने ऐसा नहीं किया.

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गंगू रमोला की पत्नी ने यह सब अपने पति को बताई. यह बात सुन गंगू ने जमीन देने की बात स्वीकार तो कि लेकिन बेमन से उसने मंदिर बनाने का काम शुरू किया. उस जमीन में एक के बाद एक मंदिर बनाता गया, लेकिन वो रात होते ही टूट जाते थे. यह देख उसकी पत्नी और गंगू बहुत दुखी होने लगे. एक रात गंगू की पत्नी बहुत दुखी हुई, उसी समय श्रीकृष्ण गंगू की पत्नी के सपने में आए और कहा कि गंगू रमोला मन से मंदिर नहीं बना रहा है. इसलिए तुम्हें पुत्र प्राप्ति नहीं हो सकती.

वहीं, गंगू रमोला की पत्नी ने सुबह होते ही बात यह गंगू को बताया. इसके बाद गंगू रमोला ने मन से मंदिर बनाया. जिसके बाद भगवान श्रीकृष्ण सेम के नाम से प्रकट हुए और उन्हें पुत्र होने का आशीर्वाद दिया. जिसके बाद गंगू रमोला ने सिदवा और विद्धवा दो पुत्रों को जन्म दिया. बाद में एक भाई रमोल गढ़ का गढ़पति बना और दूसरा कुमाऊं चला गया. इस दौर की शिलाएं आज भी यहां पर गाय के खुर के रूप में मौजूद है.

Last Updated : Aug 30, 2021, 3:29 PM IST
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