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उच्च हिमालयी क्षेत्रों में सूखा मीट खाने की परंपरा, चाव से खाते हैं इस समुदाय के लोग

दारमा, व्यास और चौदास घाटी समेत मुनस्यारी के लोग सर्दी के मौसम में 6 महीने तक खाने में सूखा मीट का प्रयोग करते हैं. स्थानीय लोगों के मुताबिक सूखा मीट खराब नहीं होता और इसका इस्तेमाल लम्बे समय तक किया जा सकता है.

Pithoragarh dry meat news
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Published : Oct 10, 2021, 4:31 PM IST

पिथौरागढ़: उच्च हिमालयी क्षेत्रों में रहने वाले जनजातीय समुदाय के लोग अपनी विशेष संस्कृति, वेशभूषा और खास रहन-सहन के लिए तो जाने ही जाते हैं. वहीं, इनके खान-पान के तौर-तरीके भी एकदम जुदा है. जिले के दारमा, व्यास और चौदास घाटी समेत मुनस्यारी के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में रहने वाले भोटिया, शौका और अनवाल समुदाय के लोग भोजन के लिए खास तौर पर तैयार किये जाने वाले सूखे मीट का इस्तेमाल करते हैं.

यहां भेड़ और बकरियों का मीट सुखाकर रख दिया जाता है, जिसका इस्तेमाल लोग सर्दियों के मौसम में करते हैं. सूखे मीट की कीमत ताजा मीट के मुकाबले 3 गुना अधिक होती है. बावजूद इसके सर्दियों के मौसम में सूखे मीट का प्रयोग बहुतायत में किया जाता है.

उच्च हिमालयी क्षेत्रों में सूखा मीट खाने की परंपरा

सूखा मीट 3 गुना महंगा: असल में उच्च हिमालयी इलाकों में सूखा मीट रखने की परम्परा है. सूखा मीट ताजा मीट के मुकाबले काफी मंहगा होता है. 1 किलो सूखे मीट की कीमत 15 सौ रुपया है. इन इलाकों के लोग भेड़ और बकरियों के मीट को 6 महीनों तक सुखाकर रखते हैं, फिर उसे खाते हैं. सुखाया गया मीट खराब नहीं होता और इसका इस्तेमाल लम्बे समय तक किया जा सकता है.

सूखा मीट रखने की परंपरा: उच्च हिमालयी इलाकों में कई गांव ऐसे हैं जहां लोग मीट को सुखाकर साल भर उसका प्रयोग करते हैं. दारमा घाटी के उर्थिंग में सूखा मीट बेचने वाले मानसिंह बताते हैं कि उच्च हिमालयी क्षेत्रों में लोग ठंड से बचने के लिए मांसाहार का प्रयोग करते हैं. खास तौर पर सूखा मीट रखने की परंपरा यहां पुराने समय से चली आ रही है.

पढ़ें- हल्द्वानी में फेमस हैं 'गुप्ता जी के छोले-भटूरे', क्या आपने खाए ?

मीट सुखाने की प्रक्रिया: ताजे मीट को छोटे टुकड़ों में काट लिया जाता है. फिर उसको एक चादर में फैलाकर धूप में रख दिया जाता है. अगर मौसम ठीक रहा तो मीट के टुकड़े हफ्ते भर में सूख जाते हैं. लेकिन अगर बारिश या बर्फबारी हो गई तो मीट सूखने में समय लगता है.

सूखा मीट बनाने की प्रक्रिया: सबसे पहले एक बर्तन में पानी को खौलाते हैं फिर उसमें सूखे मीट को अच्छी तरह धोकर डाल देते हैं. दो घंटे में सूखा मीट पुराने स्वरूप में आ जाता है और सॉफ्ट हो जाता है. इसके बाद मीट को पकाया जाता है.

पुराने जमाने में लोग जंगलों में शिकार पर जाते थे, तो शिकार को सुखा कर सर्दियों के मौसम के लिए रिजर्व रखा करते थे, जबकि अब भेड़-बकरियों का मीट सुखाकर रखने की परंपरा है, ताकि सर्दियों के मौसम में सूखे मीट का इस्तेमाल किया जा सके. मानसिंह बताते हैं कि मीट को सुखाने से इसका वजन काफी कम हो जाता है, जिस कारण इसकी कीमत ताजे मीट के मुकाबले काफी अधिक होती है.

पिथौरागढ़: उच्च हिमालयी क्षेत्रों में रहने वाले जनजातीय समुदाय के लोग अपनी विशेष संस्कृति, वेशभूषा और खास रहन-सहन के लिए तो जाने ही जाते हैं. वहीं, इनके खान-पान के तौर-तरीके भी एकदम जुदा है. जिले के दारमा, व्यास और चौदास घाटी समेत मुनस्यारी के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में रहने वाले भोटिया, शौका और अनवाल समुदाय के लोग भोजन के लिए खास तौर पर तैयार किये जाने वाले सूखे मीट का इस्तेमाल करते हैं.

यहां भेड़ और बकरियों का मीट सुखाकर रख दिया जाता है, जिसका इस्तेमाल लोग सर्दियों के मौसम में करते हैं. सूखे मीट की कीमत ताजा मीट के मुकाबले 3 गुना अधिक होती है. बावजूद इसके सर्दियों के मौसम में सूखे मीट का प्रयोग बहुतायत में किया जाता है.

उच्च हिमालयी क्षेत्रों में सूखा मीट खाने की परंपरा

सूखा मीट 3 गुना महंगा: असल में उच्च हिमालयी इलाकों में सूखा मीट रखने की परम्परा है. सूखा मीट ताजा मीट के मुकाबले काफी मंहगा होता है. 1 किलो सूखे मीट की कीमत 15 सौ रुपया है. इन इलाकों के लोग भेड़ और बकरियों के मीट को 6 महीनों तक सुखाकर रखते हैं, फिर उसे खाते हैं. सुखाया गया मीट खराब नहीं होता और इसका इस्तेमाल लम्बे समय तक किया जा सकता है.

सूखा मीट रखने की परंपरा: उच्च हिमालयी इलाकों में कई गांव ऐसे हैं जहां लोग मीट को सुखाकर साल भर उसका प्रयोग करते हैं. दारमा घाटी के उर्थिंग में सूखा मीट बेचने वाले मानसिंह बताते हैं कि उच्च हिमालयी क्षेत्रों में लोग ठंड से बचने के लिए मांसाहार का प्रयोग करते हैं. खास तौर पर सूखा मीट रखने की परंपरा यहां पुराने समय से चली आ रही है.

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मीट सुखाने की प्रक्रिया: ताजे मीट को छोटे टुकड़ों में काट लिया जाता है. फिर उसको एक चादर में फैलाकर धूप में रख दिया जाता है. अगर मौसम ठीक रहा तो मीट के टुकड़े हफ्ते भर में सूख जाते हैं. लेकिन अगर बारिश या बर्फबारी हो गई तो मीट सूखने में समय लगता है.

सूखा मीट बनाने की प्रक्रिया: सबसे पहले एक बर्तन में पानी को खौलाते हैं फिर उसमें सूखे मीट को अच्छी तरह धोकर डाल देते हैं. दो घंटे में सूखा मीट पुराने स्वरूप में आ जाता है और सॉफ्ट हो जाता है. इसके बाद मीट को पकाया जाता है.

पुराने जमाने में लोग जंगलों में शिकार पर जाते थे, तो शिकार को सुखा कर सर्दियों के मौसम के लिए रिजर्व रखा करते थे, जबकि अब भेड़-बकरियों का मीट सुखाकर रखने की परंपरा है, ताकि सर्दियों के मौसम में सूखे मीट का इस्तेमाल किया जा सके. मानसिंह बताते हैं कि मीट को सुखाने से इसका वजन काफी कम हो जाता है, जिस कारण इसकी कीमत ताजे मीट के मुकाबले काफी अधिक होती है.

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