रुद्रप्रयाग: केदार घाटी के आंचल में फैले सुरम्य मखमली बुग्यालों में भेड़ पालकों की ओर से छह माह प्रवास कर अपनी पौराणिक परम्परा को जीवंत रखने में अहम योगदान दिया जा रहा है. केदार घाटी, कालीमठ घाटी, मद्महेश्वर घाटी व तुंगनाथ घाटी के ऊचांई इलाकों में छह माह प्रवास करने वाले भेड़ पालक चैत्र मास में गांवों से मखमली बुग्यालों के लिए रवाना होते हैं तथा आश्विन माह के अंत तक वापस गांव लौटते हैं.
मखमली बुग्यालों में प्रवास करने वाले भेड़ पालकों का छः माह का प्रवास किसी साधना से कम नहीं है. आज के युग में भी बिना संचार व बिजली सुविधा के बुग्यालों में प्रवास करना सच्ची तपस्या है. कई किमी दूर रहने पर एक दूसरे की चूल्हे की ज्योति ही प्रकृति की गोद में रात गुजारने का सहारा देती है. मखमली बुग्यालों में प्रवास करने वाले भेड़ पालक जब दूसरे भेड़ पालक के पड़ाव पर पहुंचते हैं तो दोनों के चेहरों पर आत्मीयता झलक उठती है तथा सिद्धवा, विद्धवा के गीतों में रात्रि कब गुजर जाती है इसका आभास भी दोनों भेड़ पालकों को नहीं होता है.
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सुबह भेड़ पालकों के विदाई का क्षण भी बड़ा मार्मिक होता है. विदा होने वाला भेड़ पालक मीलों दूर से मुड़कर अपने मित्र के साथ गुजरी रात्रि की यादों को मन ही मन स्मरण कर भावुक हो जाता है, जबकि अपने पड़ाव से विदा देने वाला भेड़ पालक भी अपने मित्र की राह को मीलों दूर तक दिशा धियाणियों की तरह निहारता रहता है. छह माह मखमली बुग्यालों में प्रवास करने वाले भेड़ पालक दाती व लाई त्योहार को प्रमुखता से मनाते हैं. दाती त्योहार रक्षाबन्धन के नजदीक कुल पुरोहित द्वारा निर्धारित तिथि पर मनाया जाता है, जबकि लाई मेला भाद्रपद मास की पांच गते को मनाये जाने की परम्परा है, मगर कुछ इलाकों में अब सुविधा अनुसार आश्विन माह में भी लाई मेले को मनाया जाने लगा है.
अराध्य देवों की होती है विशेष पूजा
दाती त्योहार के दिन भेड़ पालकों द्वारा देवी-देवताओं को अर्पित होने वाले सभी पकवान बनाये जाते हैं. साथ ही एड़ी आछरियों के लिए चौलाई के खील व मीठें पकौड़े बनाने की भी परंपरा है. सभी पकवान तैयार होने के बाद सभी भेड़ों को एक स्थान पर एकत्रित किया जाता है और सबसे पहले भेड़ पालकों के अराध्य देव सिद्धवा, विद्धवा तथा खेती के क्षेत्रपाल की पूजा की जाती है. उसके बाद वन देवियों, एड़ी आछरियों की पूजा संपन्न होने के बाद भेड़ों के झुंड के चारों तरफ चारों दिशाओं की पूजा होती है और अन्त में उस भेड़ों के झुंड में जो सबसे बड़ा व बलशाली भेड़ होगा उसे सेनापति की उपाधि देकर उसकी पूजा करने का विधान है.
बुग्यालों के निचले हिस्सों में मनाया जाता है लाई मेला
दाती मेले के बाद बुग्यालों में प्रवास करने वाले भेड़ पालक की ब्रह्मचार्य की अवधि समाप्त हो जाती है. यह नियम जंगलों में रहने वाले भेड़ पालक पर लागू नहीं होता है. लाई मेला मखमली बुग्यालों के बजाय निचले हिस्सों में मनाया जाता है. क्योंकि, लाई मेले में भेड़ पालकों के परिजन, रिश्तेदार और ग्रामीण भी शामिल होते हैं. लाई मेला धीरे-धीरे भव्य रूप लेने लगा है. लाई मेले में भेड़ों की ऊन की छंटाई व भेड़ पालकों के आपसी लेन-देन को चुकाने की परम्परा है. लाई मेले के बाद भेड़ पालक फिर बुग्यालों की ओर चले जाते हैं. भेड़ पालकों के अराध्य देव साथ चलने वाली देवकंडी व सिद्धवा विद्धवा का डमरू है, जिससे भेड़ पालक हमेशा साथ रखकर पूजा करते हैं. इनके अलावा भेड़ पालक जिस बुग्याल में प्रवास करते हैं, उस स्थान का क्षेत्रपाल भी भेड़ पालकों का अराध्य देव माना जाता है. भेड़ पालकों के बुग्यालों से गांव लौटने पर क्षेत्रपाल के कपाट बन्द करने की परम्परा है.
माता पार्वती ने भेड़ पालकों को दिया है श्राप
लोक मान्यताओं के अनुसार एक बार पार्वती वेश बदलकर कर भेड़ पालकों की दिनचर्या जानने के लिए पहुंची तो भेड़ पालकों ने माता पार्वती को बुरी निगाह से देखा तो पार्वती ने भेड़ पालकों को श्राप दिया कि आज से तुम्हारा चूल्हा उलटा होगा. उस दिन से भेड़ पालकों का खाना पकाने का चूल्हा दरवाजे में लगाया जाता है तथा चूल्हे का मुख्य भाग बाहर की ओर होता है.
विगत 30 वर्षों से भेड़ पालन का व्यवसाय कर रहे बीरेंद्र सिंह धिरवाण ने बताया कि भेड़ पालकों के घर पर खाना परोसना वर्जित है. इसलिए भेड़ पालकों को खाना खुले बुग्यालों में ग्रहण करना पड़ता है. ग्रामीण कलम सिंह ने बताया कि भेड़ पालकों की मुख्य समस्या पानी, बिजली व संचार की है. शिक्षाविद देवानन्द गैरोला बताते हैं कि भेड़ पालन व्यवसाय दशकों पूर्व परम्परा है.