रुद्रप्रयागः पूरा देश आजादी का जश्न मना रहा है, लेकिन जिन लोगों की बदौलत देश आजाद हुआ, उनके आश्रित दो वक्त की रोटी भी सही से नहीं खा पा रहे हैं. जी हां, रुद्रप्रयाग जिले के कोदिमा गांव के आश्रित परिवार लोगों के यहां दिहाड़ी और घास काटकर अपना गुजारा कर रहे हैं. सरकार से लेकर शासन-प्रशासन के पास आश्रित हाथ जोड़कर रोजगार की गुहार लगा चुके हैं, लेकिन उनकी कोई भी सुध लेने की जहमत नहीं कर रहा है.
देश ने आजादी के 75वें वर्ष में प्रवेश कर लिया है. पूरा देश आजादी का जश्न में डूबा है. सरकारी स्तर पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन हो रहा है. देशभक्ति गीत गाए जा रहे हैं और नेतागण स्वतंत्रता सेनानियों की जाबांजी के किस्से सुना रहे हैं, लेकिन जिन लोगों ने अपनी जान की परवाह किए बगैर देश को आजाद कराया, उनके परिजनों को भुला दिया गया है.
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आज भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के परिजन दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं. दो वक्त की रोटी की जुगत में दिहाड़ी-मजदूरी का कार्य किया जा रहा है. रुद्रप्रयाग जिले के रानीगढ़ पट्टी का अंतिम गांव कोदिमा के दो भाईयों ने देश आजादी में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया. कोदिमा गांव में 151 परिवार निवास करते हैं, जिनमें स्वर्गीय थेव सिंह का परिवार ऐसा है, जिसके दोनों बेटों ने स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई लड़कर अंग्रेजों के छक्के छुड़ाए थे. इसके अलावा गांव में किसी भी परिवार से कोई स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नहीं है.
स्वर्गीय थेव सिंह के बड़े बेटे चंद्र सिंह और छोटे बेटे इंद्र सिंह में दो साल का ही अंतर था. जहां चंद्र सिंह नेगी वर्ष 1930 में रॉयल गढ़वाल रायफल में भर्ती हुए, वहीं इंद्र सिंह भी अपने बड़े भाई के नक्शे कदम पर चले और 1931 में वे भी गढ़वाल रायफल में भर्ती हो गए. चंद्र सिंह ने 1930 से 1942 तक गढ़वाल रायफल में सेवाएं दीं. इसके बाद वे सुभाष चंद्र बोस की सेना आजाद हिंद फौज में शामिल हुए.
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चार साल तक वे आजाद हिंद फौज में रहे, जिसके बाद वे 1948 में डीएससी में भर्ती हुए. वहीं, उनके छोटे भाई इंद्र सिंह ने 1931 से 1942 तक गढ़वाल रायफल में सेवाएं दी. इसके बाद इंद्र सिंह भी आजाद हिंद फौज में शामिल हुए और देश आजादी के बाद अपने घर को लौट आए. इस बीच वर्ष 1957 में तबीयत बिगड़ने के कारण चंद्र सिंह की मौत हो गई और पूरे क्षेत्र में मातम छा गया.
इसके बाद जब 15 अगस्त 1972 को देश के भीतर 25वां स्वतंत्रता दिवस मनाया गया तो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की ओर से आजादी में योगदान देने वाले स्वतंत्रता सेनानियों को ताम्रपत्र और शॉल भेंट कर सम्मानित किया गया, लेकिन स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चंद्र सिंह को कोई भी सम्मान नहीं मिला.
उनकी पत्नी राधा देवी को दुख इस बात का रहा कि उनके पति चंद्र सिंह की साल 1957 में मौत होने के बाद सरकार उन्हें भूल गई, जबकि, चंद्र सिंह के छोटे भाई इंद्र सिंह को ताम्रपत्र के साथ ही अन्य सभी सुविधाएं प्रदान की गई. चंद्र सिंह की पत्नी राधा देवी ने सरकार से अपने पति के सम्मान की लड़ाई लड़ी और उनके सभी दस्तावेजों को लेकर सरकार से अपने हक की लड़ाई लड़ती रही.
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अपने हक की लड़ाई लड़ते हुए सरकार की ओर से साल 1980 में राधा देवी की पेंशन लगाई गई, लेकिन यह पेंशन भी महज चार सालों तक ही मिली. इसके बाद कुछ सालों में राधा देवी का भी निधन हो गया. चंद्र सिंह के पुत्र कुंवर सिंह भी अपने पिता के सम्मान की लड़ाई के लिए लड़ते रहे और आखिर 62 वर्ष की उम्र में भी उन्होंने दम तोड़ दिया.
इसके बाद चंद्र सिंह के पौत्र पुष्कर सिंह को जब अपने दादा के आजादी से पूर्व से लेकर स्वतंत्रता सेनानी के दस्तावेज मिले तो उन्होंने भी अपने हक की लड़ाई लड़ने की ठान ली. साल 2002 से पुष्कर अपने दादा के दस्तावेजों के साथ सरकार, शासन व प्रशासन की चौखट में जाकर सम्मान और रोजगार की लड़ाई लड़ रहे हैं, लेकिन आज तक उनकी किसी ने भी कोई सुध नहीं ली है.
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जिला प्रशासन की ओर से गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस पर कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है, लेकिन चंद्र सिंह व इंद्र सिंह के आश्रितों कोई न्यौता नहीं भेजा जाता है. स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के परिजनों का सम्मान करना भी शायद प्रशासन भूल गया है. पुष्कर सिंह ने बताया कि उनके दादाजी चंद्र सिंह और इंद्र सिंह ने आजादी की लड़ाई लड़कर देश को आजाद कराने में अपना अहम योगदान दिया.
सरकार की ओर से स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के आश्रितों के लिए कई घोषणाएं की गई, लेकिन हकीकत उनकी स्थिति देखकर लगाई जा सकती है. साल 2002 से अपने दादा चंद्र सिंह के सम्मान की लड़ाई लड़ रहा हैं. सरकार की ओर से स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के आश्रितों को कोई रोजगार नहीं दिया जा रहा है. यहां तक की गणतंत्र व स्वतंत्रता दिवस के मौके पर भी याद नहीं किया जा रहा है.
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प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, गढ़वाल सांसद, विधायक, जिलाधिकारी से लेकर निचले स्तर तक के अधिकारी के आगे झुक गए हैं, लेकिन फिर भी उम्मीद की कोई किरण नहीं जगी है. वो और उनके छोटे भाई मातबर सिंह पढ़े-लिखे हैं और रोजगार के लिए भटक रहे हैं. किसी तरह दिहाड़ी-मजदूरी करने के बाद दो वक्त की रोटी का गुजारा हो रहा है. घर के भवन की हालत भी नाजुक बनी हुई है. पता नहीं कब आवासीय भवन भी आपदा की भेंट चढ़ जाए, कहा नहीं जा सकता.
ग्रामीण छतर सिंह ने बताया कि कोदिमा गांव के दो भाईयों ने देश आजादी में अपना सहयोग दिया, बावजूद इसके उनके आश्रितों की ओर किसी का ध्यान नहीं है. गणतंत्र और स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर स्वतंत्रता सेनानियों के आश्रितों के लिए बड़ी-बड़ी बातें और दावे किए जाते हैं, लेकिन हकीकत यह है कि उनके आश्रितों को कोई पूछने वाला भी नहीं है.
उनका कहना है कि सरकार की ओर से उनके आश्रितों को रोजगार दिए जाने के साथ ही गांव का भी विकास किया जाना चाहिए था. आलम तो ये है कि गांव में शिक्षा, स्वास्थ्य की कोई भी सुविधा नहीं है. सरकार के दावों और वादों से ग्रामीण भी परेशान हो चुके हैं.