बेरीनागः देवभूमि उत्तराखंड को लोक संस्कृति और तीज त्योहारों के लिए जाना जाता है. उत्तराखंड में फूलदेई, घुघुतिया संक्रांति जैसे कई महत्वपूर्ण पर्व मनाए जाते हैं. इनमें से ही एक पारंपरिक संस्कृति और पर्व भिटौली भी है. भिटौली का पर्व चैत के महीने में मनाया जाता है. इस पर्व का हर विवाहिता बेसब्री से इंतजार करती है. इस पर्व में महिलाएं अपने मायके से आने वाली भिटौली यानी (पकवान, मिठाई, कपड़े, आभूषण) की सौगात का इंतजार पूरे साल करती हैं.
कुमाऊं में चैत के महीने विवाहित बहनों व बेटियों को भिटौली देने की परंरपरा रही है. वर्तमान में भी यह परंपरा तो जारी है, लेकिन आधुनिकता इस पर भारी पड़ रही है. बदलते दौर के भिटौली जैसे पर्वों में बदलाव देखने को मिल रहा है. हालांकि, अभी भी पुराने लोगों में भिटौली को लेकर काफी उत्साह देखने को मिलता है. ऐसा ही नजारा बेरीनाग के गढ़तिर में देखने को मिला है. जहां उम्र के अंतिम पड़ाव में पहुंची दुर्गा देवी 84वां भिटौली पाकर काफी खुश दिखाई दी. दुर्गा देवी को 100 साल की उम्र में भिटौली मिली है. उनके भीतर अभी भी 84 साल पहले की तरह ही उत्साह है.
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उम्र के साथ याददाश्त हुई कम, मायके वालों का पहचाना नही, भिटौली है याद
दुर्गा देवी का मायका गंगोलीहाट विकासखंड के नौसी रामंदिर क्षेत्र में है. दुर्गा देवी की दो बहनें और दो भाई थे, लेकिन वर्तमान में अब दुर्गा देवी ही जीवित हैं. इसके बावजूद उनके मायके वाले दुर्गा देवी को भिटौला देना नहीं भूलते हैं. दुर्गा देवी को भिटौला देने के लिए भाई का नाती संजय सिंह बोरा लेकर आया. उम्र ज्यादा होने कारण संजय को नहीं पहचान सकी, लेकिन भिटौली में क्या-क्या लाया और कौन सी साड़ी लेकर आया, यह बात सुनकर भिटौली लेकर पहुंचा नाती भी भावुक हो गया. उम्र के इस पड़ाव में दुर्गा देवी में आज भी भिटौली को लेकर इतना उत्साह देखने मिला. दुर्गा देवी की याददाशत कम होने के कारण वो मायके के बारे में कुछ नहीं बता पाती है, लेकिन सिर्फ भिटौले के बारें में जानती रही.
साड़ी कां छू मेरी?
दुर्गा देवी का भाई का नाती जब भिटौली लेकर पहुंचा तो सबसे पहले दुर्गा देवी ने भिटौली की साड़ी के बारे में पूछा और दिखाने को कहा. इतना ही नहीं उन्होंने संजय सिंह बोरा से कहा कि 'भिटौलिक साड़ी कां छू मेरी? (यानी मेरी साड़ी कहां हैं) ये सुनकर संजय भी भावुक हो गए. भिटौली में लाई पूरी और प्रसाद को भी दुर्गा देवी काफी चाव से खाती रही. उनके जहन में भिटौली की याद ताजा हो गई.
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दुर्गा देवी पर टूटा था दुखों का पहाड़
दुर्गा देवी उम्र के इस पड़ाव तक पहुंचने में कई दुखों को सहन करना पड़ा. दुर्गा देवी के पति के निधन के बाद तीन बेटों और एक बेटी का निधन फिर बीते साल जवान नाती का निधन होने के बाद भी दुर्गा देवी ने कभी हिम्मत नहीं हारी. बहू जानकी देवी है, जो दुर्गा देवी की सेवा करती हैं. कुछ समय पहले दुर्गा देवी का पैर टूट गया, लेकिन बहू जानकी देवी उनकी सेवा में निरंतर लगी रहती हैं.
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भिटौली के पीछे है मार्मिक कथा
भिटौली को लेकर एक कथा भी प्रचलित है. कहा जाता है कि एक बहन चैत के माह में अपने भाई के भिटौली लाने का बेसब्री से इंतजार कर रही थी. बहन अपने भाई का इंतजार करते करते सो गई. जब भाई भिटौली लेकर पहुंचा तो उसने देखा कि उसकी बहन गहरी नींद में सो रही है. भाई ने सोचा कि उसकी बहन खेत और घर में काम करके थक गई होगी, इसलिए सोई है. वो भिटौली वहीं पर रखकर बहन को सोता छोड़ घर को चला गया.
जब कुछ देर बाद बहन जागी तो उसने पास में भिटौली देखी तो उसे बड़ा दुख हुआ कि भाई भिटौली लेकर आया था और बिना खाना खाए ही चला गया. यह सोच सोचकर बहन इतनी दुखी हुई कि 'भै भुको में सिती' यानी भाई भूखा रहा और मैं सोती रही, कहते हुए उसने प्राण त्याग दिए. कहते हैं कि वही बहन अगले जन्म में घुघुती नाम की पक्षी बनी. हर वर्ष चैत माह में 'भै भुको मैं सिती' 'भै भुको मैं सिती' बोलती रहती है. उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में घुघुती पक्षी को विवाहिताओं के लिए मायके की याद दिलाने वाला पक्षी भी कहा जाता है.
क्या है भिटौली?
भिटौली का सामान्य अर्थ है भेंट या मुलाकात. उत्तराखंड की कठिन भौगोलिक परिस्थितियों, पुराने समय में संसाधनों की कमी, व्यस्त जीवन शैली के कारण महिला को लंबे समय तक मायके जाने का मौका नहीं मिलता था. ऐसे में चैत्र में मनाई जाने वाली भिटौली के जरिए भाई अपनी विवाहित बहन के ससुराल जाकर उससे भेंट करता था. उपहार स्वरूप पकवान लेकर उसके ससुराल पहुंचता था. भाई-बहन के इस अटूट प्रेम और मिलन को ही भिटौली कहा जाता है. सदियों पुरानी यह परंपरा आज भी निभाई जाती है. इसे चैत्र के पहले दिन फूलदेई से पूरे महीने तक मनाया जाता है.