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फूल देई, छम्मा देई, दैणी द्वार, भर भकार...बच्चों संग बड़ों ने भी मनाई "फूलदेई"

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Published : Mar 14, 2022, 2:19 PM IST

Updated : Mar 14, 2022, 7:55 PM IST

उत्तराखंड के अधिकांश क्षेत्रों में चैत्र संक्रांति से फूलदेई का त्योहार मनाने की परंपरा है. कुमाऊं और गढ़वाल के ज्यादातर इलाकों में आठ दिनों तक यह त्योहार मनाया जाता है. श्रीनगर में भी फूलदेई पर्व धूमधाम से मनाया जा रहा है. बच्चों ने सुबह से ही हाथों में फूलों की टोकरी लेकर लोगों के घर-घर जाकर फूलों से देहली पूजन किया. उन्होंने फूलदेई छम्मा देई का मंगल गान गाकर हर घर में सुख और समृद्धि का आशीर्वाद भी दिया.

फुलदेई
फुलदेई

श्रीनगर: शहर में चैत्र महीने के साथ ही फूलदेई का उत्सव शुरू हो गया है. फूलदेई के अवसर पर बच्चों ने सुबह से ही हाथों में फूलों की टोकरी लेकर लोगों के घर-घर जाकर फूलों से देहली पूजन किया. उन्होंने फूलदेई छम्मा देई का मंगल गान गाकर हर घर में सुख और समृद्धि का आशीर्वाद भी दिया. चैत्र मास का पहला दिन फूल संक्रांत के रूप में भी जाना जाता है. बता दें कि, फूलदेई के लिए पर्व की पूर्व संध्या से ही बच्चे तैयारियों में जुट जाते हैं और रंग-बिरंगे फूल चुनकर एकत्र करते हैं. श्रीनगर में भी फूलदेई पर्व धूमधाम से मनाया जा रहा है.
फूलदेई छम्मा देई का मंगल गान, फूलदई, छम्मा देई, दैणी द्वार, भरी भकार, ये देली स बारंबार नमस्कार,

पूजैं द्वार बारंबार, फूले द्वार.. इसका अर्थ है कि आपकी देहरी (दहलीज) फूलों से भरी और सबकी रक्षा करने वाली (क्षमाशील) हो, घर व समय सफल रहे, भंडार भरे रहें, इस देहरी को बार-बार नमस्कार, द्वार खूब फूले-फले. गीत की पंक्तियों को गाते हुए बच्चे-बड़े सभी लोग झूमते नाचते रहे. इस दौरान सभी ने एक साथ फूलदेई का त्योहार भी मनाया.

फुलदेई

उत्तराखंड के अधिकांश क्षेत्रों में चैत्र संक्रांति से फूलदेई का त्योहार मनाने की परंपरा है. कुमाऊं और गढ़वाल के ज्यादातर इलाकों में आठ दिनों तक यह त्योहार मनाया जाता है. वहीं, टिहरी के कुछ इलाकों में एक माह तक भी यह पर्व मनाने की परंपरा है. फूलदेई से एक दिन पहले शाम को बच्चे रिंगाल की टोकरी लेकर फ्यूंली, बुरांस, बासिंग, आडू, पुलम, खुबानी के फूलों को इकट्ठा करते हैं. अगले दिन सुबह नहाकर वह घर-घर जाकर लोगों की सुख-समृद्धि के पारंपरिक गीत गाते हुए देहरियों में फूल बिखेरते हैं. इस अवसर पर कुमाऊं के कुछ स्थानों में देहरियों में ऐपण (पारंपरिक चित्र कला जो जमीन और दीवार पर बनाई जाती है) बनाने की परंपरा भी है. अंतिम दिन पूजन किया जाता है.

पढ़ें: देवभूमि के घरों में गूंजे 'फूलदेई छम्मा देई' के स्वर, लोक पर्व पर फूलों से महकी चौखटें

‘घोघा माता फुल्यां फूल, दे-दे माई दाल चौंल’ और ‘फूलदेई, छम्मा देई, दैणी द्वार, भरी भकार’ गीत गाते हैं और लोग इसके बदले में बच्चों को दाल, चावल, आटा, गुड़, घी और दक्षिणा (रुपए) दान करते हैं. पूरे माह में यह सब जमा किया जाता है. इसके बाद घोघा (सृष्टि की देवी) की पूजा की जाती है. चावल, गुड़, तेल से मीठा भात बनाकर प्रसाद के रूप में सबको बांटा जाता है. कुछ क्षेत्रों में बच्चे घोघा की डोली बनाकर देव डोलियों की तरह घुमाते हैं. अंतिम दिन उसका पूजन किया जाता है. पहाड़ में वसंत के आगमन पर फूलदेई मनाने की परंपरा है. यह त्योहार गढ़वाल और कुमाऊं के अधिकांश क्षेत्रों में बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है.

श्रीनगर: शहर में चैत्र महीने के साथ ही फूलदेई का उत्सव शुरू हो गया है. फूलदेई के अवसर पर बच्चों ने सुबह से ही हाथों में फूलों की टोकरी लेकर लोगों के घर-घर जाकर फूलों से देहली पूजन किया. उन्होंने फूलदेई छम्मा देई का मंगल गान गाकर हर घर में सुख और समृद्धि का आशीर्वाद भी दिया. चैत्र मास का पहला दिन फूल संक्रांत के रूप में भी जाना जाता है. बता दें कि, फूलदेई के लिए पर्व की पूर्व संध्या से ही बच्चे तैयारियों में जुट जाते हैं और रंग-बिरंगे फूल चुनकर एकत्र करते हैं. श्रीनगर में भी फूलदेई पर्व धूमधाम से मनाया जा रहा है.
फूलदेई छम्मा देई का मंगल गान, फूलदई, छम्मा देई, दैणी द्वार, भरी भकार, ये देली स बारंबार नमस्कार,

पूजैं द्वार बारंबार, फूले द्वार.. इसका अर्थ है कि आपकी देहरी (दहलीज) फूलों से भरी और सबकी रक्षा करने वाली (क्षमाशील) हो, घर व समय सफल रहे, भंडार भरे रहें, इस देहरी को बार-बार नमस्कार, द्वार खूब फूले-फले. गीत की पंक्तियों को गाते हुए बच्चे-बड़े सभी लोग झूमते नाचते रहे. इस दौरान सभी ने एक साथ फूलदेई का त्योहार भी मनाया.

फुलदेई

उत्तराखंड के अधिकांश क्षेत्रों में चैत्र संक्रांति से फूलदेई का त्योहार मनाने की परंपरा है. कुमाऊं और गढ़वाल के ज्यादातर इलाकों में आठ दिनों तक यह त्योहार मनाया जाता है. वहीं, टिहरी के कुछ इलाकों में एक माह तक भी यह पर्व मनाने की परंपरा है. फूलदेई से एक दिन पहले शाम को बच्चे रिंगाल की टोकरी लेकर फ्यूंली, बुरांस, बासिंग, आडू, पुलम, खुबानी के फूलों को इकट्ठा करते हैं. अगले दिन सुबह नहाकर वह घर-घर जाकर लोगों की सुख-समृद्धि के पारंपरिक गीत गाते हुए देहरियों में फूल बिखेरते हैं. इस अवसर पर कुमाऊं के कुछ स्थानों में देहरियों में ऐपण (पारंपरिक चित्र कला जो जमीन और दीवार पर बनाई जाती है) बनाने की परंपरा भी है. अंतिम दिन पूजन किया जाता है.

पढ़ें: देवभूमि के घरों में गूंजे 'फूलदेई छम्मा देई' के स्वर, लोक पर्व पर फूलों से महकी चौखटें

‘घोघा माता फुल्यां फूल, दे-दे माई दाल चौंल’ और ‘फूलदेई, छम्मा देई, दैणी द्वार, भरी भकार’ गीत गाते हैं और लोग इसके बदले में बच्चों को दाल, चावल, आटा, गुड़, घी और दक्षिणा (रुपए) दान करते हैं. पूरे माह में यह सब जमा किया जाता है. इसके बाद घोघा (सृष्टि की देवी) की पूजा की जाती है. चावल, गुड़, तेल से मीठा भात बनाकर प्रसाद के रूप में सबको बांटा जाता है. कुछ क्षेत्रों में बच्चे घोघा की डोली बनाकर देव डोलियों की तरह घुमाते हैं. अंतिम दिन उसका पूजन किया जाता है. पहाड़ में वसंत के आगमन पर फूलदेई मनाने की परंपरा है. यह त्योहार गढ़वाल और कुमाऊं के अधिकांश क्षेत्रों में बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है.

Last Updated : Mar 14, 2022, 7:55 PM IST
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