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विलुप्ति की कगार पर उत्तराखंड के पौराणिक वाद्य यंत्र, बजगियों की विधा को संजोने की दरकार - पौराणिक संगीत वाद्ययंत्र

उत्तराखंड में खास मौकों पर ढोल दमाऊ की थाप सुनाई देती है. इसके बिना देवभूमि में मांगलिक कार्य अधूरे से लगते हैं. ढोल वाद्य यंत्र से देवी-देवताओं का आह्वान किया जाता है, लेकिन अब ढोल दमाऊ के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है. इतना ही नहीं शायद यही पीढ़ी बची है, जो ढोल सागर की विधा को जानती है. आने वाले समय में यह विधा लुप्त हो सकती है. ऐसे में इसे संजोए रखने की दरकार है.

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Published : Nov 14, 2022, 10:37 AM IST

Updated : Nov 14, 2022, 3:24 PM IST

श्रीनगरः उत्तराखंड राज्य देश विदेश में अपनी प्राकृतिक खूबसूरती, रहन सहन, पहनावे, बोली के लिए जाना जाता है. उत्तराखंड की पहाड़ी टोपी को खुद देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहन चुके हैं. लेकिन अफसोस की बात है कि उत्तराखंड के हर तीज त्योहार, शादी बारात में बजाया जाने वाला वाद्य यंत्र भूली बिसरी याद बनता जा रहा है. क्योंकि इनकी जगह अब इलेक्ट्रॉनिक इंस्ट्रूमेंट लेने लगे हैं. जबकि उत्तराखंड के वाद्य यंत्र कलाकारों की आमदनी ना होने के कारण उनका मोह भंग होने लगा है.

पहाड़ों में बजाये जाने वाले ढोल को कौन नहीं जानता. इस बाध्य यंत्र में 52 ताल होते हैं. इसी के साथ बजाए जाने वाले बीन बाजा मशकबीन जिसे बैगपाइपर के नाम भी जाता जाता है को लोग भूलने लगे हैं. इसके अलावा उत्तराखंड की संस्कृति में बसा चिमटा, रणसिंगा, हुड़का, दमो, तूर, खड़ताल, मंजीर, कांस थाली, लोटी, डिंगार को हर तीज त्योहार में बजाया जाता है. लेकिन अब इन वाद्य यंत्रों को बजाने वाले कलाकार इनसे परहेज करने लगे हैं. इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह आमदनी ना होना है.

विलुप्ति की कगार पर उत्तराखंड के पौराणिक वाद्य यंत्र.
ये भी पढ़ेंः ढोल दमाऊ की थाप पर धरती पर अवतरित होते हैं देवता, विधा को संजाने की दरकार

बागेश्वर जिले के 60 साल के मोहन दास बताते हैं कि 12 साल की उम्र में उन्होंने ढोल और अन्य वाद्य यंत्र बजाना शुरू किया था. उन्होंने अपने बच्चों को भी ये कला सिखाई. लेकिन आमदनी ना होने के चलते अब नई पीढ़ी इलेक्ट्रॉनिक वाद्ययंत्रों की तरफ झुक रही है. इसी तरह सोहन लाल बताते हैं कि ग्रामीण स्तर पर सरकार का कोई ध्यान नहीं है. जिसके चलते कलाकार अब इस विधा को छोड़ने के लिए मजबूर हैं.

गढ़वाल विश्वविद्यालय के लोक कला एवं संस्कृति निष्पादन केंद्र के प्रोफेसर डॉ. डीआर पुरोहित इस विषय पर सालों से कार्य कर रहे हैं. वे विश्वविद्यालय के साथ मिलकर युवाओं को इन वाद्य यंत्रों की जानकारी, इनको बजाने के तरीकों के बारे में पढ़ा रहे हैं. उनका मानना है कि इस विधा को आर्थिक रूप से उपयोगी बनाने की जरूरत है. इसे जाति से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए.

घंटीः पहाड़ की धार्मिक यात्राओं और धार्मिक स्थलों पर बजाया जाने वाला वाद्य यंत्र है, जो पुराने समय से गढ़वाल कुमाऊं में बजाया जाता है.

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घंटी- धार्मिक यात्राओं और धार्मिक स्थलों पर बजाया जाने वाला वाद्य यंत्र.

मोछंगः गांवों में रहने वाले चरवाहे इस वाद्य यंत्र का प्रयोग करते आए हैं. आज कल लोक रंग मंच में इसका प्रयोग किया जाने लगा है.

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मोछंग- गांवों में रहने वाले चरवाहे इस वाद्य यंत्र का प्रयोग करते आए हैं

ढोल दमोः ये उत्तराखंड का मुख्य वाद्य यंत्र है जो कि शादी समारोह, धार्मिक अनुष्ठानों, पारंपरिक पूजा, पांडव, बगड़वाल परंपरा में बजाया जाता है. दमो हमेशा दायं तरफ रखकर बजाया जाता है.

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ढोल दमो- शादी समारोह, धार्मिक अनुष्ठानों, पारंपरिक पूजा में बजाया जाता है.

मशकबीनः ये शादी बारात एवं मनोरंजन में बजाया जाने वाला वाद्य यंत्र है. ये वाद्य स्कॉटलैंड से लिया गया है जो कुमाऊं और गढ़वाल कुमाऊं रेजिमेंट में भी बजाया जाता है. ये यंत्र अंग्रेजों के साथ कुमाऊं गढ़वाल में आया है. इसे बैगपाइपर भी कहते हैं.

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मशकबीन- शादी बारात एवं मनोरंजन में बजाया जाने वाला वाद्य यंत्र है.

भंकोराः धार्मिक अनुष्ठान एवं धर्मिक अनुष्ठान में बजाया जाने वाला एक पहाड़ी वाद्य यंत्र है. यह एक सीधा पाइप की तरह होता है. इसका ऊपर का हिस्सा बड़ा होता है.

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हु़ड़का- धर्मिक अनुष्ठान में बजाया जाने वाला एक पहाड़ी वाद्य यंत्र.

रणसिंघाः इन दिनों ये वाद्य यंत्र शादी बारातों के अलावा किसी कार्यक्रम के आयोजन के शुभारंभ के दौरान भी बजाया जाता है. कालांतर में इसे युद्ध के प्रारंभ और दिन के समापन पर बजाया जाता था.

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रणसिंघा- वाद्य यंत्र शादी बारातों के अलावा किसी कार्यक्रम के आयोजन के शुभारंभ के दौरान भी बजाया जाता है.

हुड़काः ये यंत्र पारंपरिक गीतों, जागरों, गाथाओं में बजाया जाने वाद्य यंत्र है.

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हुड़का- ये यंत्र पारंपरिक गीतों, जागरों, गाथाओं में बजाया जाने वाद्य यंत्र है.

डौंरः डौंर थाली जागरों में इसका प्रयोग किया जाता है.

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डौंर- जागरों में इसका प्रयोग किया जाता है.

नगाड़ाः मंदिरों एवं धार्मिक स्थलों में बजाया जाता है.

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नगाड़ा- मंदिरों एवं धार्मिक स्थलों में बजाया जाता है.

गोंगः देव यात्राओं एवं अनुष्ठानों में बजाया जाता है.

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गोंग- देव यात्राओं एवं अनुष्ठानों में बजाया जाता है.

श्रीनगरः उत्तराखंड राज्य देश विदेश में अपनी प्राकृतिक खूबसूरती, रहन सहन, पहनावे, बोली के लिए जाना जाता है. उत्तराखंड की पहाड़ी टोपी को खुद देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहन चुके हैं. लेकिन अफसोस की बात है कि उत्तराखंड के हर तीज त्योहार, शादी बारात में बजाया जाने वाला वाद्य यंत्र भूली बिसरी याद बनता जा रहा है. क्योंकि इनकी जगह अब इलेक्ट्रॉनिक इंस्ट्रूमेंट लेने लगे हैं. जबकि उत्तराखंड के वाद्य यंत्र कलाकारों की आमदनी ना होने के कारण उनका मोह भंग होने लगा है.

पहाड़ों में बजाये जाने वाले ढोल को कौन नहीं जानता. इस बाध्य यंत्र में 52 ताल होते हैं. इसी के साथ बजाए जाने वाले बीन बाजा मशकबीन जिसे बैगपाइपर के नाम भी जाता जाता है को लोग भूलने लगे हैं. इसके अलावा उत्तराखंड की संस्कृति में बसा चिमटा, रणसिंगा, हुड़का, दमो, तूर, खड़ताल, मंजीर, कांस थाली, लोटी, डिंगार को हर तीज त्योहार में बजाया जाता है. लेकिन अब इन वाद्य यंत्रों को बजाने वाले कलाकार इनसे परहेज करने लगे हैं. इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह आमदनी ना होना है.

विलुप्ति की कगार पर उत्तराखंड के पौराणिक वाद्य यंत्र.
ये भी पढ़ेंः ढोल दमाऊ की थाप पर धरती पर अवतरित होते हैं देवता, विधा को संजाने की दरकार

बागेश्वर जिले के 60 साल के मोहन दास बताते हैं कि 12 साल की उम्र में उन्होंने ढोल और अन्य वाद्य यंत्र बजाना शुरू किया था. उन्होंने अपने बच्चों को भी ये कला सिखाई. लेकिन आमदनी ना होने के चलते अब नई पीढ़ी इलेक्ट्रॉनिक वाद्ययंत्रों की तरफ झुक रही है. इसी तरह सोहन लाल बताते हैं कि ग्रामीण स्तर पर सरकार का कोई ध्यान नहीं है. जिसके चलते कलाकार अब इस विधा को छोड़ने के लिए मजबूर हैं.

गढ़वाल विश्वविद्यालय के लोक कला एवं संस्कृति निष्पादन केंद्र के प्रोफेसर डॉ. डीआर पुरोहित इस विषय पर सालों से कार्य कर रहे हैं. वे विश्वविद्यालय के साथ मिलकर युवाओं को इन वाद्य यंत्रों की जानकारी, इनको बजाने के तरीकों के बारे में पढ़ा रहे हैं. उनका मानना है कि इस विधा को आर्थिक रूप से उपयोगी बनाने की जरूरत है. इसे जाति से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए.

घंटीः पहाड़ की धार्मिक यात्राओं और धार्मिक स्थलों पर बजाया जाने वाला वाद्य यंत्र है, जो पुराने समय से गढ़वाल कुमाऊं में बजाया जाता है.

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घंटी- धार्मिक यात्राओं और धार्मिक स्थलों पर बजाया जाने वाला वाद्य यंत्र.

मोछंगः गांवों में रहने वाले चरवाहे इस वाद्य यंत्र का प्रयोग करते आए हैं. आज कल लोक रंग मंच में इसका प्रयोग किया जाने लगा है.

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मोछंग- गांवों में रहने वाले चरवाहे इस वाद्य यंत्र का प्रयोग करते आए हैं

ढोल दमोः ये उत्तराखंड का मुख्य वाद्य यंत्र है जो कि शादी समारोह, धार्मिक अनुष्ठानों, पारंपरिक पूजा, पांडव, बगड़वाल परंपरा में बजाया जाता है. दमो हमेशा दायं तरफ रखकर बजाया जाता है.

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ढोल दमो- शादी समारोह, धार्मिक अनुष्ठानों, पारंपरिक पूजा में बजाया जाता है.

मशकबीनः ये शादी बारात एवं मनोरंजन में बजाया जाने वाला वाद्य यंत्र है. ये वाद्य स्कॉटलैंड से लिया गया है जो कुमाऊं और गढ़वाल कुमाऊं रेजिमेंट में भी बजाया जाता है. ये यंत्र अंग्रेजों के साथ कुमाऊं गढ़वाल में आया है. इसे बैगपाइपर भी कहते हैं.

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मशकबीन- शादी बारात एवं मनोरंजन में बजाया जाने वाला वाद्य यंत्र है.

भंकोराः धार्मिक अनुष्ठान एवं धर्मिक अनुष्ठान में बजाया जाने वाला एक पहाड़ी वाद्य यंत्र है. यह एक सीधा पाइप की तरह होता है. इसका ऊपर का हिस्सा बड़ा होता है.

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हु़ड़का- धर्मिक अनुष्ठान में बजाया जाने वाला एक पहाड़ी वाद्य यंत्र.

रणसिंघाः इन दिनों ये वाद्य यंत्र शादी बारातों के अलावा किसी कार्यक्रम के आयोजन के शुभारंभ के दौरान भी बजाया जाता है. कालांतर में इसे युद्ध के प्रारंभ और दिन के समापन पर बजाया जाता था.

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रणसिंघा- वाद्य यंत्र शादी बारातों के अलावा किसी कार्यक्रम के आयोजन के शुभारंभ के दौरान भी बजाया जाता है.

हुड़काः ये यंत्र पारंपरिक गीतों, जागरों, गाथाओं में बजाया जाने वाद्य यंत्र है.

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हुड़का- ये यंत्र पारंपरिक गीतों, जागरों, गाथाओं में बजाया जाने वाद्य यंत्र है.

डौंरः डौंर थाली जागरों में इसका प्रयोग किया जाता है.

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डौंर- जागरों में इसका प्रयोग किया जाता है.

नगाड़ाः मंदिरों एवं धार्मिक स्थलों में बजाया जाता है.

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नगाड़ा- मंदिरों एवं धार्मिक स्थलों में बजाया जाता है.

गोंगः देव यात्राओं एवं अनुष्ठानों में बजाया जाता है.

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गोंग- देव यात्राओं एवं अनुष्ठानों में बजाया जाता है.
Last Updated : Nov 14, 2022, 3:24 PM IST
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