श्रीनगर: पर्वतीय क्षेत्रों में गांठ की टीबी के रोगी बढ़ रहे हैं, जो कि शोध का विषय है. वैज्ञानिकों की मानें तो पर्वतीय क्षेत्रों के निवासियों की रोग प्रतिरोधक क्षमता अधिक होने के चलते जब टीबी के रोगाणु पर्वतीय लोगों में आते हैं, तो उनके शरीर के ह्वाइट सेल इन रोगाणुओं को नष्ट करते हुए एक गांठ में परिवर्तित हो जाते हैं, जिसे हम गांठ की टीबी कहते हैं. कई मामलों में इनमें पीड़ा हो सकती है, कई में नहीं. वैज्ञानिकों की मानें तो गांठ की टीबी अधिक हानिकारक नहीं होती. लेकिन इसके उपचार के लिए भी 6 माह तक दवाइयां खानी अनिवार्य होती हैं. दवाइयों के कोर्स के बाद इस गांठ को चीरे के जरिये हटाया जा सकता है. लेकिन इस संबंध में भी डॉक्टर का परामर्श अनिवार्य होता है.
आज वर्ल्ड टीबी डे है. इस मौके पर ईटीवी भारत ने राजकीय मेडिकल कॉलेज के टीवी चेस्ट विभाग में तैनात सीनियर रेजिडेंट डॉक्टर विक्की बक्शी से मुलाकात की. इस दौरान डॉक्टर बक्शी ने बताया कि वे लंबे समय से पर्वतीय क्षेत्र में कार्य कर रहे हैं. उन्होंने पाया कि पर्वतीय क्षेत्र में फेफड़ों के टीबी के रोगी कम हैं, लेकिन उन्होंने देखा कि यहां गांठ की टीबी के रोगी अधिक हैं. इसके पीछे की वजह उन्होंने यहां के लोगों की इम्यूनिटी को बताया.
उन्होंने कहा कि टीबी के शुरुआत में ही यहां के लोगों की इम्यूनिटी टीबी के बैक्टीरिया को रोकते हुए इसे गांठ में परिवर्तित कर देती है. गांठ में ही इस बैक्टीरिया को रोककर शरीर के अन्य हिस्सों में जाने से रोक देती है. उन्होंने बताया कि ये शोध का विषय है. इसमें आगे बहुत कुछ निष्कर्ष शोध के जरिये निकल सकता है.
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डॉक्टर बक्शी बताते हैं कि पर्वतीय क्षेत्रों में टीबी को लेकर जागरुकता की कमी है. लोगों में कैंसर, एड्स जैसी बीमारियों से ज्यादा डर टीबी को लेकर है. टीबी का इलाज संभव है. टीबी 6 माह की दवा के कोर्स के जरिये ठीक हो जाती है. उन्होंने कहा कि टीबी के शुरुआती लक्षण में खांसी, बुखार, रात को पसीना आना, खांसी के साथ खून आना होता है. ऐसी परिस्थितियों में डॉक्टर के परामर्श की आवश्यकता होती है. इसलिए नजदीकी स्वास्थ्य केंद्र पर जाकर डॉक्टर को दिखाना चाहिए. संकोच नहीं करना चाहिए.