हल्द्वानी: देश-दुनिया में उत्तराखंड की संस्कृति और कला अपनी एक अलग पहचान रखती है. उत्तराखंड की ऐसी ही एक प्राचीन लोककला है ऐपण. हालांकि, अब ऐपण कला खास मौके पर घर के आंगन, देहरी और दीवारों की शोभा बढ़ाने तक सीमित नहीं रह गया है, बल्कि यह कला पारंपरिक शौक से बाहर एक व्यवसायिक रूप से धारण कर चुकी है. ऐपण कला आज के समय में स्वरोजगार का साधन भी बन गई है. युवा पीढ़ी ने ऐपण कला को नया रूप दिया है, जिसे लोगों काफी पंसद कर रहे हैं.
ऐपण कला को मॉडर्न रूप देकर कैसे आत्मनिर्भर बना जा सकता है इसका एक उदाहरण हल्द्वानी में देखने को मिल जाएगा. हल्द्वानी निवासी अभिलाषा पालीवाल ने ऐपण कला को मॉडर्न रूप देते कई उत्पादक तैयार किए है. जिसे वे अपनी वेबसाइट के माध्यम से देश-दुनिया तक पहुंचा रहे है जिन्हें लोगों काफी पंसद भी कर रहे हैं.
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अभिलाषा पालीवाल ऐपण पेंटिंग, तरोन्न द्वार, लकड़ी और कपड़े के बने कई उत्पाद पर पारंपरिक ऐपण कला बना रही है. अभिलाषा पालीवाल ने बताया कि आत्मनिर्भर भारत से प्रेरणा लेते हुए उन्होंने स्वरोजगार अपनाने का फैसला किया था. इसके लिए उन्होंने उत्तराखंड की प्राचीन ऐपण कला का इस्तेमाल किया. ताकि आत्मनिर्भर बनने के साथ उत्तराखंड की संस्कृति देश-विदेशों तक पहुंचाई जा सके. उनके द्वारा तैयार किए गए उत्पादन की ऑनलाइन डिमांड की जा रही है.
पालीवाल ने बताया कि वे अपने प्रोडक्ट को वेबसाइट पर अपलोड करती है. जिसके लोग पंसद करते है. पालीवाल ऐपण कला से बने अन्य उत्पाद को बेचने के लिए कई अन्य कंपनियों से संपर्क भी कर रही है. ताकि अधिक से अधिक उत्पादन की बिक्री हो सके और उनके आय में वृद्धि हो सकें. उनका मुख्य उद्देश्य उत्तराखंड की विलुप्त होती कलाओं को देश-विदेश में एक अलग पहचान दिलाना है.
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ऐपण कला का इतिहास
रियासतकाल से चल रही आ रही उत्तराखंड की लोक कला को ऐपण कहा जाता है. ऐपण कला कुमाऊं व गढ़वाल की गौरवमय परंपरा रही है. धार्मिक अनुष्ठानों, विशेष त्योहारों, शादी समारोह समेत खास मौकों पर घर-घर में कमेड़ा (सफेद मिट्टी), गेरू (लाल मिट्टी) से आंगन, देहरी व दीवारों को ऐपण कला से सजाया जाता था, लेकिन अब ऐपण पारंपरिक कला तक सीमित नहीं रहा है. यह कला एक व्यवसाय के रूप में फैल रही है.