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कौवों के लिए बनाए जाते हैं खास पकवान, जानिए घुघुतिया के पीछे की पौराणिक कथा

14 जनवरी को मकर संक्राति पर पहाड़ में घुघुतिया त्योहार की धूम है. घरों पर पकवान तैयार किए जा चुके हैं. मकर संक्रांति पर ये पकवान कौवों को खिलाए जाएंगे. इसके पीछे ईष्ट देवी-देवताओं से जुड़ी मान्यता है. जानिए इसकी पौराणिक कथा.

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Published : Jan 14, 2021, 4:03 AM IST

Updated : Jan 14, 2021, 1:21 PM IST

हल्द्वानीः उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोक पर्वों में से एक है घुघुतिया पर्व. घुघुतिया त्योहार कुमाऊं क्षेत्र में काफी प्रसिद्ध है. सरयू नदी के एक छोर से दूसरे छोर के लोग हालांकि इस पर्व को अलग-अलग दिन मनाते हैं. लेकिन मकर संक्रांति पर इस पर्व की खासी मान्यता है. इसके लिए लोग मकर संक्रांति की पूर्व संध्या पर घुघुतिया के पकवान बनाते हैं. उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में इस लोक सांस्कृतिक परंपरा को बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है.

हल्द्वानी के भंवरी इलाके समेत पहाड़ों घुघुतिया त्यौहार धूमधाम से मनाया जा रहा है. महिलाएं और बच्चे सुबह से ही घर पर घुघुतिया के पकवानों को तैयार करने में जुट जाते हैं. घुघुतिया को तलवार, ढाल, हुड़का सहित अन्य सामग्रियों की आकृति दिए जाने की परंपरा है. इन सामग्रियों में गुड़ का पानी, देसी घी, आटा, तिल और सौफ सहित कई अन्य चीजों को मिलाकर आटा गूंथा जाता है. फिर उस आटे से घुघुतिया पकवान बनाए जाते हैं. शाम को इन पकवारों को कढ़ाई पर तला जाता है और फिर भगवान को भोग लगाया जाता है. फिर मकर संक्रांति के दिन सुबह इन पकवानों को कौवों को पेश किया जाता है. पहाड़ में आज भी कौवे ईष्ट देवताओं के प्रतीक हैं. इसलिए ऐसा माना जाता है कि कौवों के रुप में ईष्ट देवताओं को भोज दिया जा रहा है.

घुघुतिया के पीछे की पौराणिक कथा.

पढ़ेंः उत्तराखंड पहुंची 'कोविशील्ड' वैक्सीन, 94 हजार फ्रंटलाइन वर्कर्स को लगेगा टीका

पौराणिक रूप में घुघुतिया त्यौहार की कथा अपने आप में बेहद खास है. इस त्योहार को मनाने के पीछे बागेश्वर के सरयू नदी के किनारे कुली बेगार प्रथा का अंत भी माना जाता है. ऐसा माना जाता है कि लोगों को अंग्रेजों द्वारा चलाई गई कुली बेगार प्रथा से निजात मिली थी. इस त्योहार के पीछे चंद वंश के राजा कल्याण चंद की भी कहानी को भी जोड़ा जाता है.

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घुघुतिया के लिए पकवान बनाते लोग.

क्या है पौराणिक कथा

कहा जाता है कि एक बार चंद वंश के राजा कल्याण चंद पत्नी के साथ बाघनाथ मंदिर में गए और संतान के लिए प्रार्थना की. बाघनाथ की कृपा से उनका एक बेटा हुआ. जिसका नाम निर्भयचंद पड़ा. निर्भय को उसकी मां प्यार से 'घुघुति' के नाम से बुलाया करती थी. घुघुति के गले में एक मोती की माला थी, जिसमें घुंघुरू लगे हुए थे. इस माला को पहनकर घुघुति बहुत खुश रहता था.

जिद करने पर उसको डराने के लिए निर्भय की मां अक्सर कहती कि 'काले कौवा काले घुघुति माला खा ले' यह सुनकर कई बार कौवा आ जाता. जिसको देखकर घुघुति जिद छोड़ देता. जब मां के बुलाने पर कौवे आ जाते तो वह उनको कोई चीज खाने को दे देती. धीरे-धीरे घुघुति की कौवों के साथ दोस्ती हो गई.

एक दिन राजा के मंत्री ने बदनीयत से घुघुति को जंगल की ओर लेकर जा रहा था. एक कौवे ने उसे देख लिया और जोर-जोर से कांव-कांव करने लगा. उसकी आवाज सुनकर घुघुति जोर-जोर से रोने लगा और अपनी माला को उतारकर दिखाने लगा. इतने में सभी कौवे इकट्ठे हो गए और मंत्री और उसके साथियों पर मंडराने लगे. एक कौवा घुघुति के हाथ से माला झपटकर ले गया. सभी कौवों ने एकसाथ मंत्री और उसके साथियों पर अपनी चोंच और पंजों से हमला बोल दिया. मंत्री और उसके साथी घबराकर वहां से भाग खड़े हुए.

कौवों की मदद से राजा को घुघुति का पता लगा. घर लौटने पर उसकी मां ने बहुत सारे पकवान बनाए और घुघुति से कहा कि ये पकवान अपने दोस्त कौवों को बुलाकर खिला दे. यह बात धीरे-धीरे सारे इलाके में फैल गई और इसने बच्चों के त्योहार का रूप ले लिया. तब से हर साल इस दिन धूमधाम से इस त्योहार को मनाये जाने की परंपरा है.

हल्द्वानीः उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोक पर्वों में से एक है घुघुतिया पर्व. घुघुतिया त्योहार कुमाऊं क्षेत्र में काफी प्रसिद्ध है. सरयू नदी के एक छोर से दूसरे छोर के लोग हालांकि इस पर्व को अलग-अलग दिन मनाते हैं. लेकिन मकर संक्रांति पर इस पर्व की खासी मान्यता है. इसके लिए लोग मकर संक्रांति की पूर्व संध्या पर घुघुतिया के पकवान बनाते हैं. उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में इस लोक सांस्कृतिक परंपरा को बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है.

हल्द्वानी के भंवरी इलाके समेत पहाड़ों घुघुतिया त्यौहार धूमधाम से मनाया जा रहा है. महिलाएं और बच्चे सुबह से ही घर पर घुघुतिया के पकवानों को तैयार करने में जुट जाते हैं. घुघुतिया को तलवार, ढाल, हुड़का सहित अन्य सामग्रियों की आकृति दिए जाने की परंपरा है. इन सामग्रियों में गुड़ का पानी, देसी घी, आटा, तिल और सौफ सहित कई अन्य चीजों को मिलाकर आटा गूंथा जाता है. फिर उस आटे से घुघुतिया पकवान बनाए जाते हैं. शाम को इन पकवारों को कढ़ाई पर तला जाता है और फिर भगवान को भोग लगाया जाता है. फिर मकर संक्रांति के दिन सुबह इन पकवानों को कौवों को पेश किया जाता है. पहाड़ में आज भी कौवे ईष्ट देवताओं के प्रतीक हैं. इसलिए ऐसा माना जाता है कि कौवों के रुप में ईष्ट देवताओं को भोज दिया जा रहा है.

घुघुतिया के पीछे की पौराणिक कथा.

पढ़ेंः उत्तराखंड पहुंची 'कोविशील्ड' वैक्सीन, 94 हजार फ्रंटलाइन वर्कर्स को लगेगा टीका

पौराणिक रूप में घुघुतिया त्यौहार की कथा अपने आप में बेहद खास है. इस त्योहार को मनाने के पीछे बागेश्वर के सरयू नदी के किनारे कुली बेगार प्रथा का अंत भी माना जाता है. ऐसा माना जाता है कि लोगों को अंग्रेजों द्वारा चलाई गई कुली बेगार प्रथा से निजात मिली थी. इस त्योहार के पीछे चंद वंश के राजा कल्याण चंद की भी कहानी को भी जोड़ा जाता है.

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घुघुतिया के लिए पकवान बनाते लोग.

क्या है पौराणिक कथा

कहा जाता है कि एक बार चंद वंश के राजा कल्याण चंद पत्नी के साथ बाघनाथ मंदिर में गए और संतान के लिए प्रार्थना की. बाघनाथ की कृपा से उनका एक बेटा हुआ. जिसका नाम निर्भयचंद पड़ा. निर्भय को उसकी मां प्यार से 'घुघुति' के नाम से बुलाया करती थी. घुघुति के गले में एक मोती की माला थी, जिसमें घुंघुरू लगे हुए थे. इस माला को पहनकर घुघुति बहुत खुश रहता था.

जिद करने पर उसको डराने के लिए निर्भय की मां अक्सर कहती कि 'काले कौवा काले घुघुति माला खा ले' यह सुनकर कई बार कौवा आ जाता. जिसको देखकर घुघुति जिद छोड़ देता. जब मां के बुलाने पर कौवे आ जाते तो वह उनको कोई चीज खाने को दे देती. धीरे-धीरे घुघुति की कौवों के साथ दोस्ती हो गई.

एक दिन राजा के मंत्री ने बदनीयत से घुघुति को जंगल की ओर लेकर जा रहा था. एक कौवे ने उसे देख लिया और जोर-जोर से कांव-कांव करने लगा. उसकी आवाज सुनकर घुघुति जोर-जोर से रोने लगा और अपनी माला को उतारकर दिखाने लगा. इतने में सभी कौवे इकट्ठे हो गए और मंत्री और उसके साथियों पर मंडराने लगे. एक कौवा घुघुति के हाथ से माला झपटकर ले गया. सभी कौवों ने एकसाथ मंत्री और उसके साथियों पर अपनी चोंच और पंजों से हमला बोल दिया. मंत्री और उसके साथी घबराकर वहां से भाग खड़े हुए.

कौवों की मदद से राजा को घुघुति का पता लगा. घर लौटने पर उसकी मां ने बहुत सारे पकवान बनाए और घुघुति से कहा कि ये पकवान अपने दोस्त कौवों को बुलाकर खिला दे. यह बात धीरे-धीरे सारे इलाके में फैल गई और इसने बच्चों के त्योहार का रूप ले लिया. तब से हर साल इस दिन धूमधाम से इस त्योहार को मनाये जाने की परंपरा है.

Last Updated : Jan 14, 2021, 1:21 PM IST
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