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जनकवि गिरीश तिवारी की पुण्यतिथि: गिर्दा की भरपाई करना मुश्किल ही नहीं नामुकिन है - नैनीताल न्यूज

हिमालय के शिखरों, गिरिवरों, नदियों, घाटियों, नौले-पंधेरों और लोकजीवन की झांकियों से कभी प्रेरणा और कभी पीड़ा लेकर गिर्दा ने ऐसा बहुत कुछ रचा जो उन्हें एक ऊंचे पायदान पर खड़ा कर देता है.

जनकवि गिरीश तिवारी
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Published : Aug 22, 2019, 11:18 PM IST

नैनीताल: जनकवि गिरीश तिवारी (गिर्दा) की गुरुवार को 9 पुण्यतिथि मनाई गई. गिर्दा के पुण्यतिथि पर नैनीताल की मालरोड में रंगकर्मी और साहित्य जगत से जुड़े कई लोगों ने उनकी कविताएं गाई और उन्हें श्रद्धांजली दी.

गिर्दा 1994 में उत्तराखंड राज्य आंदोलन के लिए पहाड़ी जनमानस को अपने जनगीतों और कविताओं के जरिए बड़े प्रभावशाली ढंग से आंदोलित करने का काम किया था. लखनऊ की सड़कों पर रिक्शा चलाने के बाद गिर्दा ने राज्य आंदोलन की ऐसी राह पकड़ी कि वह उत्तराखंड में आंदोलनों के पर्याय बन गये. उन्होंने जनगीतों से लोगों को अपने हक-हकूकों के लिये न सिर्फ लड़ने की प्रेरणा दी बल्कि परिवर्तन की आस जगाई.

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गिर्दा आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी रचनाएं आज भी हमारे दिलों मे जिंदा हैं. उन्होंने 1977 में चले वन बचाओ आंदोलन, 1984 के नशा नहीं रोजगार दो और 1994 के उत्तराखंड आंदोलन में गिर्दा की रजनाओं ने जान फूंकी थी. इतना ही नहीं उसके बाद भी गिर्दा ने हर में आंदोलन में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया, लेकिन 22 अगस्त 2010 को अचानक गिर्दा की आवाज हमेशा के लिये खामोश हो गई.

ये गिर्दा के जनवादी होने का ही प्रमाण था कि समाज की कुरीतियां कभी उनके ऊपर हावी नहीं हो पायीं. उनकी रचनाओं ने हमेशा राजनीति के ठेकेदारों पर गहरा वार किया. राज्य आंदोलन के दौरान लोगों को एक साथ बांधने का काम भी गिर्दा ने ही किया था.

पढ़ें- कुंभ 2021: मुजफ्फरनगर-हरिद्वार हाईवे की डेडलाइन हुई एक साल, कचरा निस्तारण पर सरकार का फोकस

उत्तराखंड में गिर्दा की अहमियत महज एक कवि तक नहीं है. वह सही मायने में एक दूरदर्शी आंदोलनकारी थे. गिर्दा की भरपाई करना मुश्किल ही नहीं नामुकिन है.

नैनीताल: जनकवि गिरीश तिवारी (गिर्दा) की गुरुवार को 9 पुण्यतिथि मनाई गई. गिर्दा के पुण्यतिथि पर नैनीताल की मालरोड में रंगकर्मी और साहित्य जगत से जुड़े कई लोगों ने उनकी कविताएं गाई और उन्हें श्रद्धांजली दी.

गिर्दा 1994 में उत्तराखंड राज्य आंदोलन के लिए पहाड़ी जनमानस को अपने जनगीतों और कविताओं के जरिए बड़े प्रभावशाली ढंग से आंदोलित करने का काम किया था. लखनऊ की सड़कों पर रिक्शा चलाने के बाद गिर्दा ने राज्य आंदोलन की ऐसी राह पकड़ी कि वह उत्तराखंड में आंदोलनों के पर्याय बन गये. उन्होंने जनगीतों से लोगों को अपने हक-हकूकों के लिये न सिर्फ लड़ने की प्रेरणा दी बल्कि परिवर्तन की आस जगाई.

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गिर्दा आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी रचनाएं आज भी हमारे दिलों मे जिंदा हैं. उन्होंने 1977 में चले वन बचाओ आंदोलन, 1984 के नशा नहीं रोजगार दो और 1994 के उत्तराखंड आंदोलन में गिर्दा की रजनाओं ने जान फूंकी थी. इतना ही नहीं उसके बाद भी गिर्दा ने हर में आंदोलन में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया, लेकिन 22 अगस्त 2010 को अचानक गिर्दा की आवाज हमेशा के लिये खामोश हो गई.

ये गिर्दा के जनवादी होने का ही प्रमाण था कि समाज की कुरीतियां कभी उनके ऊपर हावी नहीं हो पायीं. उनकी रचनाओं ने हमेशा राजनीति के ठेकेदारों पर गहरा वार किया. राज्य आंदोलन के दौरान लोगों को एक साथ बांधने का काम भी गिर्दा ने ही किया था.

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उत्तराखंड में गिर्दा की अहमियत महज एक कवि तक नहीं है. वह सही मायने में एक दूरदर्शी आंदोलनकारी थे. गिर्दा की भरपाई करना मुश्किल ही नहीं नामुकिन है.

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आज जन कवी गिरीश तिवारी गिर्दा की 9 पुण्य तिथी है जिसके अवशर पर नैनीताल की मालरोड में कई रंगकर्मी और अन्य लोगो ने जलुस निकाल और गिर्दा द्धारा गाई कवीताओ को गा कर उन्को श्रद्धाजली अप्रित करी।
         1994 के उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन के दौरान अपने जनगीतों और कविताओं के माध्यम से पहाडी जनमानस को उत्तराखण्ड राज्य के निर्माण के लिए बडे प्रभावशाली ढंग से आंदोलित करने का काम किया था। लखनऊ की सडकों पर रिक्सा चलाने के बाद गिर्दा ने राज्य आन्दोलन की ऐसी राह पकडी कि वह उत्तराखंण्ड मे आन्दोलनों के पर्याय बन गये, उन्होंने जनगीतों से लोगो को अपने हक-हकूको के लिये ना सिर्फ लडने की प्रेरणा दी बल्कि परिवर्तन की आस जगाई।

Intro

भले ही उत्तराखण्ड राज्य को अब 19 साल बीत चुके है। लेकिन अलग राज्य लिये तमाम लोगो ने अपनी सहादत दी। इनमें एक व्यक्ति ऐसा भी था जिसने 1994 के उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन के दौरान अपने जनगीतों और कविताओं के माध्यम से पहाडी जनमानस को उत्तराखण्ड राज्य के निर्माण के लिए बडे प्रभावशाली ढंग से आंदोलित करने का काम किया। वो थे जनकवि गिरीश तिवाडी गिर्दा। जिनकी भरपाई करना बडा मुसकिल है। जनकवि गिरीश तिवारी गिर्दा की आज नवी पूण्र्य तिथि है


Body:गिर्दा आज भले ही हमारे बीच नही है मगर उनकी रचनाए आज भी हमारे दिलों मे जिन्दा है। लखनऊ की सडकों पर रिक्सा खीचने के बाद गिर्दा ने आन्दोलन की ऐसी राह पकडी कि वह उत्तराखंण्ड मे आन्दोलनों के पर्याय बन गये, उन्होंने जनगीतों से लोगो को अपने हक-हकूको के लिये ना सिर्फ लडने की प्रेरणा दी बल्कि परिवर्तन की आस जगाई। उत्तराखण्ड के 1977 में चले बन बचाओ आन्दोलन, 1984 के नशा नही रोजगार दो ,और 1994 में हुये उत्तराखंण्ड आन्दोलन में गिर्दा की रचनाओं ने जान फुकी थी। इतना ही नही उसके बाद भी हर आन्दोलन में गिर्दा ने हर आन्दोलन मे बढचढकर शिरकत की, लेकिन 22 अगस्त 2010 को अचानक गिर्दा की आवाज हमेशा के लिये खामोश हो गई।

बाईट- गिरीश तिवाडी गिर्दा की कवीता- फाईल
बाईट- 1 पीसी तिवरी जनकवीConclusion:ये गिर्दा के जनवादी होने का ही प्रमाण था कि समाज की कुरीतियां कभी उनके उपर हावी हो पायी। उन्हों ने रचनाओं से हमेशा राजनिति के ठेकेदारों पर गहरा वार किया । राज्य आन्दोलन के दौरान लोगो को एक साथ बाधने का काम भी गिर्दा ने किया । उस दौरान उनका उत्तराखंण्ड बुलेटिन काफी चर्चाओं में रहा। लेकिन इन सब से अलग खास ये था कि स्व0 गिर्दा ने जो बात अपनी रचनाओं के माध्यम से 1994 में कह दी वो सब राज्य बनने के बाद सत्य होता दिखाई दिया। इसके अलावा गिर्दा साथियों के साथ इतने मिलकर रहते थे कि आज भी उनके सहयोगी रहे उनहै याद करना नही भूलते है।

बाइट- राजीव लोचन साह, जनकवी वरिष्ठ पत्रकार, नैनीताल।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि उत्तराखंण्ड मे गिर्दा की अहमियत महज एक कवि तक नही है। वह सही मायने मै एक दूरदर्शी आन्दोलनकारी थे उनकी मैात ने सूबे का सच्चा रहनुमा खो दिया है जिसकी भरपाई मुसकिल नही नामुन्किन है।
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