हल्द्वानी: प्रकृति पूजन का प्रतीक हरेला लोकपर्व का आज से आगाज हो रहा है. हरेला पर्व की पूर्व संध्या पर डेकर पूजन की परंपरा भी निभाई गई. शास्त्रों के अनुसार कुमाऊं में हरेला पर्व से ही श्रावण मास और वर्षा ऋतु का आरंभ माना जाता है. हरेले के तिनकों को इष्ट देव को अर्पित कर धन-धान्य, दुधारू जानवरों की रक्षा और परिवार व प्राकृतिक की कुशलता की कामना की जाती है.
देवभूमि उत्तराखंड में ऋतुओं के अनुसार कई त्योहार मनाए जाते हैं, ये त्योहार यहां की परंपरा और संस्कृति को जीवंत रखे हुए हैं. हरेला का शाब्दिक अर्थ होता है हरियाली. श्रावण मास में हरेला का विशेष महत्व होता है क्योंकि यह महीना भगवान शिव का विशेष महीना होता है.ज्योतिषाचार्य डॉ. नवीन चंद्र जोशी के मुताबिक इस बार 16 जुलाई रविवार को शाम को डेकर पूजन के साथ साथ 17 जुलाई सोमवार यानी आज से पर्व का आगाज हो रहा है. हरियाली और प्राकृतिक संरक्षण संवर्धन के प्रतीक इस पर्व के मौके पर लोगों द्वारा अपने इष्ट देवता और मंदिरों में हरेला चढ़ाने का परंपरा है.
साथ ही धन धान्य और परिवार की सुख-शांति के कामना की जाती है. हरेला प्रकृति से जुड़ा हुआ पर्व है, जो प्राकृतिक के रक्षक भगवान शिव और माता पार्वती को समर्पित है. हरेला के पूर्व संध्या पर हरकाली पूजन यानी डेकर पूजा की परंपरा है.इस पूजा में घर के आंगन से ही शुद्ध मिट्टी लेकर उससे भगवान शिव, माता पार्वती और भगवान गणेश और भगवान कार्तिकेय की छोटी-छोटी मूर्तियां बनाई जाती हैं. इसके बाद इन मूर्तियों को सुंदर रंगों से रंगा जाता है.
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सूखने के पश्चात इनका श्रृंगार किया जाता है, जिसके बाद हरेला के सामने इन मूर्तियों को रखकर उनका पूजन किया जाता है और बड़े बुजुर्गों से आशीर्वाद लिया जाता है. शास्त्रों के अनुसार हरेला से 9 दिन पहले पांच, सात या नौ अनाजों को मिलाकर बर्तन में मिट्टी रखकर अनाज को बोया जाता है. जिसे मंदिर के कक्ष में रखा जाता है. दो से तीन दिन में हरेला अंकुरित होने लगता है, जहां 9 दिन बाद हरेले की विधि-विधान से पूजा कर इष्ट देवता और भगवान को समर्पित किया जाता है. साथ ही लोग पर्व पर भगवान से परिवार और प्रकृति की खुशहाली की कामना करते हैं.