हरिद्वार: हंसी...क्या ये नाम किसी को याद है? शायद नहीं होगा, क्योंकि न तो इस नाम तो कुछ खास है और न ही इस नाम से पहचाने जाने वाली महिला में. लेकिन आज से ठीक डेढ़ साल पहले हंसी प्रहरी नाम की ये महिला एकाएक राज्य के लेकर राष्ट्रीय अखबारों की सुर्खियां बन गई थी. करीब डेढ़ साल पहले 18 अक्टूबर 2020 को ईटीवी भारत इस महिला की कहानी दुनिया के सामने लेकर आया था. सोचा था शायद इस महिला की स्थिति में सुधार हो सकेगा और वो मुख्यधारा में जुड़ सकेगी. लेकिन आज भी हंसी उसी हालात में जब सड़कों पर भीख मांगती दिखाई दी तो एक बार फिर कहानी वहीं चली गई जहां से शुरू हुई थी.
याद दिला दें कि, हंसी प्रहरी वही महिला है जो कभी कुमाऊं विश्वविद्यालय की शान थी. छात्रा यूनियन वाइस प्रेसिडेंट रहीं हंसी ने कुमाऊं विश्वविद्यालय से दो बार एमए की पढ़ाई अंग्रेजी में पास करने के बाद विश्वविद्यालय में ही लाइब्रेरियन की नौकरी की लेकिन आज उसे देखेंगे तो बस दिल से आह निकलेगी.
पढ़ाई-लिखाई में तेज हंसी आज भी हरिद्वार की सड़कों, रेलवे स्टेशन, बस अड्डों और गंगा घाटों पर भीख मांग रही है. अभी भी वो अपने बच्चे के साथ उसी तरह का जीवन जी रही है जैसे पहले जिया करती थी.
ऐसा नहीं है कि सरकार की ओर से हंसी के लिए मदद नहीं दी गई. तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने खुद मंत्री रेखा आर्य को हंसी के मिलने हरिद्वार भेजा था और मंत्री ने उसकी नौकरी और रहने-खाने की व्यवस्था की थी, लेकिन हंसी ने तब उसे ठुकरा दिया था. हरिद्वार की मेयर अनीता शर्मा ने बोर्ड में प्रस्ताव रखकर हंसी को घर दिलाने की बात भी कही थी लेकिन वो अब तक नहीं हो पाया है. हालांकि, इसका कारण भी खुद हंसी ही है.
दरअसल, हंसी मानसिक रूप से बीमार है, इसी वजह से वो अपने बारे में ठीक से सोच समझ भी नहीं पाती. उसे सड़कों पर रहना, सरकारी मदद दिए जाने के बाद भी खानाबदोश जीवन जीना और सड़कों पर भीख मांगना ही सही लगता है.
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बता दें कि, हरिद्वार की मेयर अनीता शर्मा ने हंसी प्रहरी को स्थायी निवास देने का वादा किया था. हंसी को मेयर अनीता शर्मा ने पांडेवाला में हरिद्वार निगम के खाली पड़े फ्लैट भी दिखाए थे और जल्द ही इस मामले को बोर्ड में रखने की बात कही थी. हंसी को निवास देने के संबंध में मेयर अनीता शर्मा ने मुख्य नगर आयुक्त को पत्र भी लिखा था लेकिन अब तक हंसी को अपना घर नहीं मिल पाया है.
ईटीवी भारत की खबर से चर्चा में आने के बाद हंसी को सरकार के साथ भी कई सामाजिक संगठनों से भी मदद की पेशकश मिली थी लेकिन हंसी ने अभी तक स्वाभिमान और अध्यात्म का हवाला देकर किसी तरह की मदद नहीं ली है. अब आलम ये है कि कोई हंसी को पूछ भी नहीं रहा.
ये कहा जा रहा है कि हंसी ही कोई मदद नहीं लेना चाहती, लेकिन कोई ये नहीं सोच रहा कि जो महिला मानसिक रूप से स्वस्थ ही नहीं है वो कैसे कोई फैसला ले सकती है. क्या ऐसा नहीं होना चाहिए था कि हंसी की स्थिति समझते हुए उसे घर-नौकरी बाद में दी जाती, पहले उसका इलाज करवाया जाता. केवल ये कहकर कि हमने तो मदद दी थी लेकिन उसने ली नहीं, इससे क्या सरकार या संबंधित संस्थाओं की जिम्मेदारी खत्म हो जाती है? ये कौन समझेगा कि अगर इतनी होनहार महिला ऐसी स्थिति में पहुंची है तो उसके सोचने समझने की शक्ति की वर्तमान में कैसी हालत होगी. क्या हम ऐसे में उससे कोई फैसला लेने की उम्मीद भी कर सकते हैं?
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हंसी की कहानी: उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के सोमेश्वर विधानसभा क्षेत्र के हवालबाग विकासखंड के अंतर्गत गोविंदपुर के पास रणखिला गांव पड़ता है. इसी गांव में पली-बढ़ीं हंसी 5 भाई-बहनों में से सबसे बड़ी बेटी हैं. पहाड़ी परिवार में सब कुछ बेहतर चल रहा था. परिवार की सबसे बड़ी बेटी हंसी पूरे गांव में अपनी पढ़ाई को लेकर चर्चा में रहती थी. पिता छोटा-मोटा रोजगार करते थे. अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए उन्होंने दिन रात एक कर दिया था.
छात्र यूनियन की वाइस प्रेसिडेंट रह चुकी हैं हंसी: पिता का मान रखते हुये परिवार की सबसे बेटी हंसी गांव से छोटे से स्कूल से पास होकर कुमाऊं विश्वविद्यालय में एडमिशन लेने पहुंच गईं. एडमिशन की तमाम प्रक्रिया और टेस्ट पास करने के बाद हंसी का दाखिला विश्वविद्यालय में हो गया. हंसी पढ़ाई लिखाई और दूसरी एक्टिविटीज में इतनी तेज थी कि साल 1999-2000 वह चर्चाओं में तब आईं जब कुमाऊं विश्वविद्यालय में छात्रा यूनियन की वाइस प्रेसिडेंट बनीं. इसके साथ ही कुमाऊं विश्वविद्यालय से दो बार एमए की पढ़ाई अंग्रेजी और राजनीति विज्ञान में पास करने के बाद हंसी ने कुमाऊं विश्वविद्यालय में ही लाइब्रेरियन की नौकरी की.
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उन्होंने लगभग 4 साल विश्वविद्यालय में नौकरी की. उन्हें नौकरी इसलिए मिली क्योंकि वह विश्वविद्यालय में होने वाली तमाम एजुकेशन से संबंधित प्रतियोगिताओं में भाग लेती थीं. चाहे वह डिबेट हो या कल्चर प्रोग्राम या दूसरे अन्य कार्यक्रम, वह सभी में प्रथम आया करती थीं. इसके बाद उन्होंने 2008 तक कई प्राइवेट जॉब भी की.
शादी के बाद हुई आपसी तनातनी से 2011 के बाद हंसी की जिंदगी में अचानक से मोड़ आया. शादीशुदा जिंदगी में हुई उथल-पुथल के बाद हंसी कुछ समय तक अवसाद में रहीं और इसी बीच उनका धर्म की ओर झुकाव भी हो गया. उन्होंने परिवार से अलग होकर धर्मनगरी में बसने की सोची और हरिद्वार पहुंच गईं, तब से ही वो अपने परिवार से अलग हैं. वो बताती हैं कि इस दौरान उनकी शारीरिक स्थिति भी गड़बड़ रहने लगी और वह सक्षम नहीं रहीं कि कहीं नौकरी कर सकें. 2012 के बाद से ही हरिद्वार में भिक्षा मांग कर अपना और अपने 7 साल के बच्चे का लालन-पालन कर रही हैं. हंसी के दो बच्चे हैं. बेटी नानी के साथ रहती है और बेट उनके साथ ही फुटपाथ पर जीवन बिता रहा है.
पूर्व केंद्रीय मंत्री को टक्कर दे चुकी हैं हंसी: ईटीवी भारत ने जब हंसी के बारे में और जानकारी जुटाई थी, तो पता लगा कि हंसी अपने गांव का कोई छोटा-मोटा नाम नहीं हैं. साल 2002 में हंसा ने वर्तमान दोनों सांसद प्रदीप टम्टा और अजय टम्टा के खिलाफ सोमेश्वर विधानसभा सीट से निर्दलीय चुनाव लड़ा था. ग्रामीणों ने हंसी के पढ़े-लिखे होने के बाद खुद उनको ये चुनाव लड़ने को कहा था. इतना ही नहीं, हंसी ने पूर्व केंद्रीय मंत्री और मौजूदा सांसद अजय टम्टा से 2000 वोट अधिक हासिल किए थे.
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फिर से एक अपील...इस खबर के जरिये ईटीवी भारत का मकसद सरकार तक ये बात पहुंचाना है कि किसी जरूरतमंद की मदद केवल कहने भर से नहीं होगी. असल काम तब पूरा होगा जब पहाड़ की एक शिक्षित होनहार छात्रा को सड़कों पर भिक्षुक का जीवन जीने से छुटकारा मिले. नीयत हो तो कुछ असंभव नहीं. ऐसा नहीं कि केवल हंसी की जिंदगी संवारने से बहुत बड़ा बदलाव आ जाएगा क्योंकि ढूंढने निकलेंगे तो हंसी जैसे कई लोग असल मदद की आस में मिलेंगे, लेकिन 'एक नन्हा सा दीया तो अंधेरे से बेहतर ही है न'...