रुड़की: मुहर्रम इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना है. इस महीने की 10 तारीख यानी आशूरा के दिन दुनियाभर में मुसलमान इस्लाम धर्म के आखिरी पैगंबर हजरत मोहम्मद सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम के नवासे हजरत इमाम हुसैन की इराक के कर्बला में हुई शहादत की याद में ताजिया निकाल कर उन्हें याद करते हैं. इस बार 10 अगस्त को मुहर्रम है. इसी दिन जगह-जगह ताजिये निकालकर फातिहा और तिलावत-ए-कुरआन किया जाता है. मोहर्रम माह की 9 तारीख की देर शाम ताजियों को निकाला जाता है. अगले दिन 10 तारीख को क्षेत्र की कर्बला में सुपुर्दे ख़ाक किया जाता है.
आलम-ए-इस्लाम की तारीख बन गई कर्बला की जंग: कर्बला के मैदान में नवासा ए-रसूल हजरत इमाम हुसैन और उनके कुनबे को यजीद के लश्कर ने 10 मोहर्रम को शहीद कर दिया था. शहादत पाने वालों में इमाम हुसैन का छह माह का बेटा अली असगर, 18 साल का जवान अली अकबर, भाई अब्बास अलमदार, दो भांजे औनो मोहम्मद, भतीजा कासिम और दोस्त एहबाब शामिल थे. 10 मोहर्रम को हुसैन का भरा पूरा घर लूट लिया गया थे. खयामे हुसैनी में आग लगा दी गई थी.
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ये है पूरा वाक्या: दरअसल वाक्या सन 680 (61 हिजरी) का है, तब इराक में यजीद नामक खलीफा (बादशाह) ने इमाम हुसैन को यातनाएं देना शुरू कर दिया था. उनके साथ परिवार, बच्चे, बूढ़े बुजुर्ग सहित कुल 72 लोग थे. वह कूफे शहर की ओर बढ़ रहे थे. तभी यजीद की सेना ने उन्हें बंदी बना लिया. कर्बला (इराक का प्रमुख शहर) ले गई. कर्बला में भी यजीद ने दबाव बनाया कि उसकी बात मान लें, लेकिन इमाम हुसैन ने जुल्म के आगे झुकने से साफ इनकार कर दिया. इसके बाद यजीद ने कर्बला के मैदान के पास बहती नहर से सातवें मुहर्रम को पानी लेने पर रोक लगा दी. हुसैन के काफिले में 6 माह तक के बच्चे भी थे, अधिकतर महिलाएं थीं, पानी नहीं मिलने से ये लोग प्यास से तड़पने लगे. इमाम हुसैन ने यजीद की सेना से पानी मांगा, लेकिन यजीद की सेना ने शर्त मानने की बात कही. यजीद को लगा कि हुसैन और उनके साथ परिवार, बच्चे व महिलाएं टूट जाएंगे और उसकी शरण में आ जाएंगे, लेकिन तब भी ऐसा नहीं हुआ.
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9 वें मुहर्रम की रात हुसैन ने परिवार व अन्य लोगों को जाने की इजाजत दी. रात को उन्होंने रोशनी बुझा दी. कुछ देर बाद जब उन्होंने रोशनी की तो सभी वहीं मौजूद थे. सभी ने इमाम हुसैन का साथ देने का इरादा कर लिया था. इसी रात की सुबह यानी 10 वें मुहर्रम को यजीद की सेना ने हमला शुरू कर दिया. 680 (इस्लामी 61 हिजरी) को सुबह इमाम और उनके सभी साथी नमाज पढ़ रहे थे. तभी यजीद की सेना ने उन्हें घेर लिया. इसके बाद हुसैन व उनके साथियों पर शाम तक हमला कर सभी को शहीद कर दिया गया.
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ये कहते हैं इतिहासकार: इतिहास के अनुसार, यजीद ने इमाम हुसैन के छह माह और 18 माह के बेटे को भी मारने का हुक्म दिया. इसके बाद बच्चों पर तीरों की बारिश कर दी गई. इमाम हुसैन पर भी तलवार से वार किए गए. इस तरह से हजारों यजीदी सिपाहियों ने मिलकर इमाम हुसैन सहित 72 लोगों को शहीद कर दिया. अपने हजारों फौजियों की ताकत के बावजूद यजीद, इमाम हुसैन और उनके साथियों को अपने सामने नहीं झुका सका. दीन के इन मतवालों ने झूठ के आगे सर झुकाने के बजाय अपने सर को कटाना बेहतर समझ. जिसके बाद यह लड़ाई आलम-ए-इस्लाम की एक तारीख बन गई. जंग के आखिर में हुसैन को भी शहादत हासिल हुई.
इस्लामी इतिहास की इस बेमिसाल जंग ने पूरी दुनिया के मुसलमानों को एक सबक दिया कि हक की बात के लिए यदि खुद को भी कुर्बान करना पड़े तो पीछे नहीं हटना चाहिए. वहीं मुहर्रम की 9 तारीख को हजरत इमाम हुसैन और उनके जांनिसारों की याद में ताजिए निकाले गए, मर्सिया पढ़ी गई. जगह-जगज जलसों का आयोजन किया गया. अकीदतमंदों ने लंगर और सबील वितरित की. मुहर्रम की 10 तारीख को ताजिए सुपुर्दे खाक किए गए.