हरिद्वार: उत्तराखंड के पहाड़ हमेशा ही संवेदनशील रहे हैं. कई बार उत्तराखंड में बड़ी प्राकृतिक आपदाएं आई हैं, जिसमें कई लोगों ने अपनी जान गंवाई हैं. पर्यावरण वैज्ञानिक इस त्रासदी को बड़ी त्रासदी बता रहे हैं और आने वाले वक्त में भी इस तरह की बड़ी त्रासदी होने का खतरा भी जता रहे हैं.
जलवायु परिवर्तन से खिसकती हैं ग्लेशियरों के बीच की चट्टानें
पर्यावरण वैज्ञानिक डॉ. बीडी जोशी का कहना है कि जब मौसम परिवर्तन होता है. उस वक्त दो ग्लेशियरों के बीच की चट्टानों में दरारें जलवायु परिवर्तन के साथ खिसक जाती हैं, जिससे हिमस्खलन होता है और जितना बड़ा ग्लेशियर होता है, उसके हिसाब से आपदा का रूप निर्धारित होता है. क्योंकि, पानी के साथ बड़े-बड़े पत्थर भी बहकर जाते हैं, तो उसे रोकना लगभग नामुमकिन होता है.
निर्माण कार्य के लिए किए गए ब्लास्ट खतरनाक - बीडी जोशी
बीडी जोशी के मुताबिक ग्लेशियर के आसपास अगर निर्माण कार्य के लिए ब्लास्ट किया गया हो, तो इससे आसपास की चट्टानें भी प्रभावित होती हैं. बारिश होने पर पानी दरारों में भर जाता है, जिससे ग्लेशियर पर काफी दबाव बनाता है. इस कारण ग्लेशियर टूटने लगते हैं.
पढ़ें- तपोवन के NTPC सुरंग में राहत बचाव कार्य जारी, पढ़ें ऑपरेशन की चुनौतियां
निचले इलाकों में होना चाहिए वन क्षेत्र- बीडी जोशी
बीडी जोशी का कहना है कि पहाड़ों के निचले इलाकों में वन क्षेत्र होना चाहिए. इस प्रकार की प्राकृतिक आपदा को रोकने में वन काफी कारगर साबित होते हैं. इस आपदा से सरकार को शिक्षा लेनी चाहिए कि पहाड़ों पर पर्यावरण को बढ़ाना.
वक्त रहते बचाव और राहत दल ने मोर्चा संभाला
बीडी जोशी का कहना है कि चमोली की त्रासदी काफी बड़ी हो सकती थी, मगर वक्त रहते ही अधिकारियों और सरकार ने इस त्रासदी को रोकने के लिए कार्य शुरू कर दिए थे और मौके पर तुरंत व्यवस्थाएं पहुंचा दी गईं. साथ ही तमाम गंगा किनारों पर अलर्ट जारी कर दिया गया. इसका काफी लाभ देखने को मिला है. इस कारण बड़ी विपदा टल गई है.