देहरादून: उत्तराखंड में दल-बदल कानून को लेकर चर्चाएं ज्यादा की जाती हैं, क्योंकि दल-बदल कानून (anti defection law) ने उत्तराखंड के इतिहास में एक अमिट छाप छोड़ी है. क्या होता है दल-बदल विरोधी कानून और इससे किस तरह से राजनीतिक पृष्ठभूमि पर असर पड़ता है ? आइए आपको बताते हैं.
क्या है दल-बदल और इसके नुकसान: संसदीय कार्य प्रणाली में संसद या फिर विधानसभा में किसी एक निश्चित राजनीतिक दल या फिर निर्दलीय रूप में जनता के बीच से चुनकर आए सदस्य यानी विधायक या फिर सांसद की उसके दल के प्रति प्रतिबद्धता सुनिश्चित होती है. लेकिन अगर वह किसी पार्टी के सिंबल पर जीत कर आता है और जीतने के बाद अपने दल यानी पार्टी को बदल देता है तो इसे दल-बदल कहते हैं. नेताओं द्वारा दल बदलने से जनता का नुकसान होता है.
दरअसल, यह एक तरह से उस जनप्रतिनिधि को चुनने वाली जनता के साथ धोखा है. अक्सर यह देखा जाता है कि मतदाता प्रत्याशी के साथ-साथ राजनीतिक दल को भी मद्देनजर रखकर अपना मतदान करता है लेकिन जनता के बीच जाने के बाद उस जनप्रतिनिधि द्वारा राजनीतिक दल बदला जाना एक तरह से उसे मतदान करने वाली जनता के साथ छलावा है. इसे संसदीय कार्य प्रणालियों में कई तरह के व्यवधान उत्पन्न होते हैं और सरकारें और अस्थिर हो जाती हैं.
क्या है दल-बदल विरोधी कानून: चुनाव में जीत कर जाने वाले जनप्रतिनिधियों द्वारा दल-बदल पर लगाम लगाने के लिए संविधान के 91वें संशोधन के रूप में दल-बदल कानून लाया गया, जिसे शुरुआत में काफी लचीला रखा गया था. बाद में इसे अटल बिहारी वाजपेई की सरकार ने और सख्त कर दिया. मौजूदा दल-बदल विरोधी कानून के तहत अगर सदन के सभी सदस्यों के एक तिहाई सदस्यों से कम व्यक्ति अगर अपना दल बदलते हैं, तो उन पर दल-बदल कानून लागू होता है. अगर दल बदलने वालों की संख्या एक तिहाई से ज्यादा होती है, तो उन पर यह कानून लागू नहीं होता है.
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दल-बदल कानून के अनुसार संसद और विधानसभा के सदस्यों का एक पार्टी से दूसरी पार्टी में शामिल होना एक दंडनीय अपराध है और इस अपराध के बदले संसदीय सदस्य की सदस्यता रद्द कर दी जाती है. यह भी जरूरी नहीं है कि सदन का वह सदस्य विपक्ष से सत्ता पक्ष में जाए या फिर सत्तापक्ष से विपक्ष में जाए बल्कि निर्दलीय सदस्य के भी किसी दल में जाने पर उसकी सदस्यता रद्द की जा सकती है.
वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत (Senior Journalist Jai Singh Rawat) कहते हैं कि देश में दल-बदल कानून को और अधिक सख्त होने की जरूरत है. जनप्रतिनिधि अपने निजी स्वार्थ और उज्ज्वल भविष्य के लिए अपनी पार्टियां बदल देते हैं. लेकिन यह उस जनता के साथ छलावा होता है, जिसने उसे राजनीतिक दल के मार्फत वोट दिया है. उनका कहना है कि दल बदलने वाले नेताओं को एक लंबे समय तक सदन से बर्खास्त रखना चाहिए. ताकि उसकी जनता के साथ-साथ अपने राजनीतिक दल के प्रति प्रतिबद्धता हो और बहुमत बनाते समय खरीद-फरोख्त और सरकार की अस्थिरता पर लगाम लगाई जा सके.
उत्तराखंड का इतिहास: उत्तराखंड में दल-बदल की राजनीति के तेज होने की एक वजह यह भी है कि 2016 में बड़ी संख्या में विधायकों ने दलबदल किया. 2017 के चुनाव में यह अधिकतर विधायक जीतकर विधानसभा पहुंच गए. ऐसे में पार्टी नेताओं का दल-बदल को लेकर हौसला बुलंद हुआ है. बात 2022 विधानसभा चुनाव की करें तो यशपाल आर्य बाजपुर से भाजपा के टिकट पर विधायक बने लेकिन उन्होंने चुनावों से पहले अपने समीकरणों को देखते हुए पार्टी छोड़ दी. यशपाल आर्य के बेटे संजीव आर्य को दल-बदल के कारण ही मौका मिला. यशपाल आर्य ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा ज्वॉइन की. साथ में ही बेटे को भी टिकट दिलवा दिया, लेकिन उनके बेटे संजीव आर्य ने पहली बार ही नैनीताल से विधायक बनकर दलबदल की परंपरा को आगे बढ़ाया.
राजकुमार भी पुरोला से कांग्रेस विधायक थे. इससे पहले वे सहसपुर से भाजपा के विधायक रहे, लेकिन दल-बदल के बावजूद जनता उन पर विश्वास करती रही. जिस वे बार-बार तोड़ रहे हैं. प्रीतम सिंह पंवार ने भी भाजपा और कांग्रेस से विश्वास हटाते हुए धनौल्टी विधानसभा से निर्दलीय चुनाव जीता. जनता ने एक निर्दलीय प्रत्याशी को वोट दिया. तब जनता ने प्रीतम सिंह पंवार पर भरोसा दिखाया. प्रीतम सिंह पंवार ने भी चुनाव से ठीक पहले जनता के उस बहुमत को नकारते हुए भाजपा में शामिल होने का निर्णय लिया. राम सिंह कैड़ा भी निर्दलीय विधायक के तौर पर भीमताल से चुने गए थे. उन्होंने भी 4 साल निर्दलीय के तौर पर जनता के बीच में अपनी छवि को बचाए रखा. चुनाव से ठीक पहले चुनावी नफा नुकसान को देखते हुए वे भी भाजपा में शामिल हो गए.