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उत्तराखंडः वन पंचायतों को विकास की दरकार, कब तक बदलेगी तस्वीर?

उत्तराखंड में वन पंचायतों को ही विकास की दरकार है. ऐसे में बड़ा सवाल ये है कि अगर सरकार वन पंचायतों पर ध्यान ही नहीं देगी तो दूरस्थ क्षेत्रों में रह रहे लोगों तक विकास कैसे पहुंचेगा और अगर विकास नहीं पहुंचा तो पलायन कैसे रुकेगा?

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वन पंचायतों को विकास की दरकार
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Published : Dec 14, 2019, 2:26 PM IST

Updated : Dec 14, 2019, 3:07 PM IST

देहरादून: 70 फीसदी वन क्षेत्र वाले उत्तराखंड राज्य में वन पंचायतों की अपनी अलग भूमिका है. ये वन पंचायतें न सिर्फ वनों का संरक्षण और वन क्षेत्रों के वाटर रिसोर्सेज को पुनर्जीवित करती हैं, बल्कि वन पंचायत क्षेत्रों में बसे हजारों परिवारों के जीवन यापन में भी बहुत सहायक सिद्ध होती है. लेकिन जिस मकसद से राज्य में वन पंचायत नियमावली को बनाया गया था, शायद वो उदेश्य से पूरी तरह साकार नहीं हो पाया. क्या है वन पंचायतों का स्वरुप. सरकारी तंत्र को वन पंचायतों के किन पहलुओं पर सबसे ज्यादा फोकस करने की है जरुरत? ईटीवी भारत की स्पेशल रिपोर्ट.

वन पंचायतों को विकास की दरकार

उत्तराखंड राज्य का वन क्षेत्र दो हिस्सों में बंटा है. पहला रिजर्व वन और दूसरा सिविल वन है. रिजर्व वन वो वन है जो वन विभाग के अंदर आता है. इसकी पूरी देख-रेख वन विभाग करता है. यहां जनता को जाने की अनुमति नहीं होती. लेकिन सिविल वन क्षेत्र के आस-पास बसे ग्रामीणों को जंगल से चुगान करने, सूखी लकड़ियों का इस्तेमाल करने, पशुओं को चराने और सिविल फॉरेस्ट की रखवाली करना होता है.

पढ़ेंः उत्तराखंड: 4G का नेटवर्क रोक पाने में नाकाम जेलों के जैमर, टेक्नोलॉजी ने खतरे में डाली सुरक्षा

साल 2005 में बनी थी वन पंचायत नियमावली

साल 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग होकर एक अलग पहाड़ी राज्य बने उत्तराखंड में करीब 5000 वन पंचायतें थीं. लेकिन साल 2005 में वन पंचायतों के विकास और स्थानीय ग्रामीणों को स्थायी रोजगार देने को लेकर वन पंचायत नियमावली-2005 लागू किया गया. करीब 7,089 वन पंचायतों को और बढ़ाया गया. जिससे प्रदेश में सिविल वन क्षेत्रों का दायरा बढ़कर 5.45 लाख हेक्टेयर हो गया.

इन सिविल वन क्षेत्रों में वन पंचायत संख्या 12,089 हो गई. जिसमें 6,278 वन पंचायत गढ़वाल मंडल और 5,811 वन पंचायत कुमाऊं मंडल में शामिल हैं. लेकिन, 14 साल बीत जाने के बाद वन पंचायतों के विकास और स्थायी रोजगार उपलब्ध कराने में अभी तक की सभी सरकारें सफल नहीं हो पायी हैं.

पढ़ेंः पतंजलि ने किसानों को समृद्ध बनाने का लिया संकल्प, ई-नेम योजना से कराया अवगत

वन पंचायतों के विकास का खाका
राज्य गठन से पहले इस पहाड़ी क्षेत्र के वन पंचायतों की स्थिति बहुत ज्यादा अच्छी नहीं थी. लिहाजा राज्य गठन के बाद वनों का संरक्षण और वन पंचायतों में रहने वाले ग्रामीणों के विकास की अवधारणा को लेकर ही वन पंचायतों का विस्तारीकरण किया गया. वन पंचायत नियमावली भी बनाई गई थी, लेकिन अब तक इसका कुछ खास फायदा नहीं हो पाया है. अब उत्तराखंड वन पंचायत सलाहकार परिषद पंचायतों के विकास के लिए खाका तैयार करने जा रही है. सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो आने वाले समय में वन पंचायतों का कायाकल्प होना तय है. इसके लिए उत्तराखंड वन पंचायत सलाहकार परिषद के अध्यक्ष ने होमवर्क करना शुरू कर दिया है.

महज 25 फीसदी वन पंचायतों तक ही पहुंची सरकार
प्रदेश के वन पंचायत क्षेत्रों में बसे ग्रामीणों के जीवन यापन के लिए व्यवस्थित करने और रोजगार उपलब्ध कराने को लेकर राज्य में वन पंचायतों का गठन किया गया था. लेकिन मौजूदा हालत ये हैं कि सरकारी तंत्र, वन पंचायतों के एक बड़े हिस्से पर ध्यान नहीं दे पा रहा है. हालांकि वन पंचायतों के विकास के लिए 80 प्रतिशत धनराशि कैम्पा योजना जबकि 20 प्रतिशत राज्य बजट से प्रावधान किया जाता है.

पढ़ेंः उत्तराखंड: राजभवन में वसंतोत्सव-2020 की तैयारियां प्रारंभ, राज्यपाल बेबी रानी ने किया शुभारंभ

करीब 50 फीसदी वन पंचायतों में नहीं हो पाए चुनाव
उत्तराखंड राज्य में 12,089 वन पंचायत हैं. जिसमें से 750 वन पंचायतों पर जायका (जापान इंटरनेशनल कोऑपरेशन एजेंसी) काम कर रही है. बाकि 11,339 वन क्षेत्रों में उत्तराखंड वन पंचायत सलाहकार परिषद काम कर रही है. लेकिन इन वन पंचायतों में से 50 फीसदी वन पंचायत के क्षेत्र ऐसे हैं जहां चुनाव हो पाए हैं. लेकिन अभी भी 50 फीसदी वन पंचायतों में चुनाव होना बाकी है. गौरतलब है कि वन पंचायतों में चुनाव प्रक्रिया को जिला अधिकारी और पटवारी के नेतृत्व में कराया जाता है. लेकिन, इसमें वन विभाग की कोई भूमिका नहीं होती. यही वजह है कि लंबे समय से इन वन पंचायतों में चुनाव नहीं हो पाए हैं.

राज्य गठन के बाद साल 2005 में वन पंचायतों की संख्या तो दोगुनी कर दी गई. लेकिन 14 साल बीत जाने के बाद भी राज्य सरकार मात्र 25 फीसदी वन पंचायतों तक ही पहुंच पाई है. सरकारी विभाग के आंकड़े इस बात की तस्दीक कर रहे हैं कि अभी भी 75 फीसदी वन पंचायत, सरकार की पहुंच से दूर हैं.

देहरादून: 70 फीसदी वन क्षेत्र वाले उत्तराखंड राज्य में वन पंचायतों की अपनी अलग भूमिका है. ये वन पंचायतें न सिर्फ वनों का संरक्षण और वन क्षेत्रों के वाटर रिसोर्सेज को पुनर्जीवित करती हैं, बल्कि वन पंचायत क्षेत्रों में बसे हजारों परिवारों के जीवन यापन में भी बहुत सहायक सिद्ध होती है. लेकिन जिस मकसद से राज्य में वन पंचायत नियमावली को बनाया गया था, शायद वो उदेश्य से पूरी तरह साकार नहीं हो पाया. क्या है वन पंचायतों का स्वरुप. सरकारी तंत्र को वन पंचायतों के किन पहलुओं पर सबसे ज्यादा फोकस करने की है जरुरत? ईटीवी भारत की स्पेशल रिपोर्ट.

वन पंचायतों को विकास की दरकार

उत्तराखंड राज्य का वन क्षेत्र दो हिस्सों में बंटा है. पहला रिजर्व वन और दूसरा सिविल वन है. रिजर्व वन वो वन है जो वन विभाग के अंदर आता है. इसकी पूरी देख-रेख वन विभाग करता है. यहां जनता को जाने की अनुमति नहीं होती. लेकिन सिविल वन क्षेत्र के आस-पास बसे ग्रामीणों को जंगल से चुगान करने, सूखी लकड़ियों का इस्तेमाल करने, पशुओं को चराने और सिविल फॉरेस्ट की रखवाली करना होता है.

पढ़ेंः उत्तराखंड: 4G का नेटवर्क रोक पाने में नाकाम जेलों के जैमर, टेक्नोलॉजी ने खतरे में डाली सुरक्षा

साल 2005 में बनी थी वन पंचायत नियमावली

साल 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग होकर एक अलग पहाड़ी राज्य बने उत्तराखंड में करीब 5000 वन पंचायतें थीं. लेकिन साल 2005 में वन पंचायतों के विकास और स्थानीय ग्रामीणों को स्थायी रोजगार देने को लेकर वन पंचायत नियमावली-2005 लागू किया गया. करीब 7,089 वन पंचायतों को और बढ़ाया गया. जिससे प्रदेश में सिविल वन क्षेत्रों का दायरा बढ़कर 5.45 लाख हेक्टेयर हो गया.

इन सिविल वन क्षेत्रों में वन पंचायत संख्या 12,089 हो गई. जिसमें 6,278 वन पंचायत गढ़वाल मंडल और 5,811 वन पंचायत कुमाऊं मंडल में शामिल हैं. लेकिन, 14 साल बीत जाने के बाद वन पंचायतों के विकास और स्थायी रोजगार उपलब्ध कराने में अभी तक की सभी सरकारें सफल नहीं हो पायी हैं.

पढ़ेंः पतंजलि ने किसानों को समृद्ध बनाने का लिया संकल्प, ई-नेम योजना से कराया अवगत

वन पंचायतों के विकास का खाका
राज्य गठन से पहले इस पहाड़ी क्षेत्र के वन पंचायतों की स्थिति बहुत ज्यादा अच्छी नहीं थी. लिहाजा राज्य गठन के बाद वनों का संरक्षण और वन पंचायतों में रहने वाले ग्रामीणों के विकास की अवधारणा को लेकर ही वन पंचायतों का विस्तारीकरण किया गया. वन पंचायत नियमावली भी बनाई गई थी, लेकिन अब तक इसका कुछ खास फायदा नहीं हो पाया है. अब उत्तराखंड वन पंचायत सलाहकार परिषद पंचायतों के विकास के लिए खाका तैयार करने जा रही है. सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो आने वाले समय में वन पंचायतों का कायाकल्प होना तय है. इसके लिए उत्तराखंड वन पंचायत सलाहकार परिषद के अध्यक्ष ने होमवर्क करना शुरू कर दिया है.

महज 25 फीसदी वन पंचायतों तक ही पहुंची सरकार
प्रदेश के वन पंचायत क्षेत्रों में बसे ग्रामीणों के जीवन यापन के लिए व्यवस्थित करने और रोजगार उपलब्ध कराने को लेकर राज्य में वन पंचायतों का गठन किया गया था. लेकिन मौजूदा हालत ये हैं कि सरकारी तंत्र, वन पंचायतों के एक बड़े हिस्से पर ध्यान नहीं दे पा रहा है. हालांकि वन पंचायतों के विकास के लिए 80 प्रतिशत धनराशि कैम्पा योजना जबकि 20 प्रतिशत राज्य बजट से प्रावधान किया जाता है.

पढ़ेंः उत्तराखंड: राजभवन में वसंतोत्सव-2020 की तैयारियां प्रारंभ, राज्यपाल बेबी रानी ने किया शुभारंभ

करीब 50 फीसदी वन पंचायतों में नहीं हो पाए चुनाव
उत्तराखंड राज्य में 12,089 वन पंचायत हैं. जिसमें से 750 वन पंचायतों पर जायका (जापान इंटरनेशनल कोऑपरेशन एजेंसी) काम कर रही है. बाकि 11,339 वन क्षेत्रों में उत्तराखंड वन पंचायत सलाहकार परिषद काम कर रही है. लेकिन इन वन पंचायतों में से 50 फीसदी वन पंचायत के क्षेत्र ऐसे हैं जहां चुनाव हो पाए हैं. लेकिन अभी भी 50 फीसदी वन पंचायतों में चुनाव होना बाकी है. गौरतलब है कि वन पंचायतों में चुनाव प्रक्रिया को जिला अधिकारी और पटवारी के नेतृत्व में कराया जाता है. लेकिन, इसमें वन विभाग की कोई भूमिका नहीं होती. यही वजह है कि लंबे समय से इन वन पंचायतों में चुनाव नहीं हो पाए हैं.

राज्य गठन के बाद साल 2005 में वन पंचायतों की संख्या तो दोगुनी कर दी गई. लेकिन 14 साल बीत जाने के बाद भी राज्य सरकार मात्र 25 फीसदी वन पंचायतों तक ही पहुंच पाई है. सरकारी विभाग के आंकड़े इस बात की तस्दीक कर रहे हैं कि अभी भी 75 फीसदी वन पंचायत, सरकार की पहुंच से दूर हैं.

Intro:Ready To Air......

70 फीसदी वन क्षेत्र वाले उत्तराखंड राज्य में वन पंचायतो की अपनी एक अलग भूमिका है। क्योकि ये वन पंचायते न सिर्फ वनो का संरक्षण और वन क्षेत्रों के वाटर रिसोर्सेज को पुनर्जीवित करती है, बल्कि वन पंचायत क्षेत्रो में बसे हजारो परिवारों के जीवन यापन में भी बहुत सहायक सिद्ध होती है। लेकिन जिस मकसद से राज्य में वन पंचायत नियमावली को बनाया गया था, शायद वो उदेश्य से पूरी तरह से साकार नहीं हो पाया, जबकि विकास के लिए वन पंचायतो का विस्तारीकरण तक कर दिया गया था। आखिर क्या हैं वन पंचायतो का स्वरुप, सरकारी तंत्र को वन पंचायतो के किन पहलुओं पर सबसे ज्यादा फोकस करने की जरुरत हैं? देखिए ईटीवी भारत की स्पेशल रिपोर्ट......  





Body:उत्तराखंड राज्य का वन क्षेत्र दो हिस्सों में बटा हुआ है। पहला रिजर्व वन और दूसरा सिविल वन है। रिजर्व वन वो वन है जो वन विभाग के अंदर आता हैं। और इसकी पूरी देख रेख वन विभाग करता है। जहा जनता को जाने की अनुमति नहीं होती है, लेकिन सिविल वन क्षेत्र के आस पास बसे ग्रामीणों को जंगल से चुगान करने, सुखी लकडिया इस्तेमाल करना, पशुओ को चराने ले जाना, साथ ही साथ सिविल फारेस्ट की रखवाली करना होता है। और इन्ही सिविल वन क्षेत्रो के आस पास रहने वाले की सुविधा के लिए वन पंचायत बनाया गया, ताकि संबधित वन पंचायतो में रह रहे ग्रामीण अपने ही वन पंचायतो का इस्तेमाल कर वन पंचायतो का संरक्षण कर सके 


साल 2005 में बनी थी वन पंचायत नियमावली................  

साल 2000 में उत्तर प्रदेश से पृथक होकर एक अलग पहाड़ी राज्य बने उत्तराखंड में, करीब 5000 ही वन पंचायते थी, लेकिन साल 2005 में वन पंचयतो के विकास और स्थानीय ग्रामीणों को स्थायी रोजगार देने को लेकर वन पंचायत नियमावली- 2005 लागू किया गया। साथ ही करीब 7,089 वन पंचायतो को और बढ़ाया गया। जिससे प्रदेश में सिविल वन क्षेत्रो का दायरा बढ़कर 5.45 लाख हेक्टेयर हो गया और इन सिविल वन क्षेत्रो में वन पंचायत संख्या 12,089 हो गयी। जिसमे 6,278 वन पंचायत गढ़वाल मंडल और 5,811 वन पंचायत कुमाऊ मंडल में शामिल है। लेकिन साल 2005 में वन पंचायतो की संख्या बढ़ने के बाद से लेकर मौजूदा वक्त तक 14 साल बीत गए है, लेकिन वन पंचायतो के विकास और स्थायी रोजगार उपलब्ध कराने में अभी तक की सभी सरकारे सफल नहीं हो पायी है।  


वन पंचायतो के विकास का खाका............. 

राज्य गठन से पहले इस पहाड़ी क्षेत्र के वन पंचायतो की स्तिथि बहुत ज्यादा अच्छी नहीं थी। लिहाजा राज्य गठन के बाद वनों का संरक्षण और वन पंचायतो में रहने वाले ग्रामीणों के विकास की अवधारणा को लेकर ही वन पंचायतों का विस्तारीकरण किया गया और वन पंचायत नियमावली भी बनायीं गयी थी लेकिन अब उसका कुछ खास फायदा नहीं हो पाया। जिसके बाद अब उत्तराखंड वन पंचायत सलाहकार, परिषद पंचायतो के विकास के लिए खाका तैयार करने जा रही है। जी हां सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो वन पंचायतों की आने वाले समय में कायाकल्प होना तय माना जा रहा है। इसके लिए उत्तराखंड वन पंचायत सलाहकार परिषद के अध्यक्ष ने होमवर्क करना शुरू कर दिया है, ताकि वन पंचायतों में क्रांति लाई जा सके। 

 

महज 25 फीसदी वन पंचायतो तक ही पहुंच पायी है राज्य सरकार............ 

प्रदेश के वन पंचायतो के क्षेत्रो में बसे ग्रामीणों को विकसित करने और उनके जीवन यापन के लिए व्यवस्था और रोजगार उपलब्ध कराने को लेकर ही राज्य में वन पंचायतो का गठन किया गया था। लेकिन मौजूदा हालत यह है कि सरकारी तंत्र, वन पंचायतो के एक बड़े हिस्से पर ध्यान नहीं दे पा रहा है, और मात्र 25 फीसदी वन पंचायत तक ही सिमट कर रह गयी है। ऐसे में प्रदेश के सभी वन पंचयतो तक राज्य सरकार को पहुंचने के लिए एक बेहतर खाका बनने की जरुरत है ताकि प्रदेश के सभी वन पंचायतो का विकास हो सके। हालांकि वन पंचायतो के विकास के लिए 80 प्रतिशत धनराशि कैम्पा योजना जबकि 20 प्रतिशत राज्य बजट से प्रावधान किया जाता है। 


करीब 50 फीसदी वन पंचायतो में नहीं हो पाए है चुनाव.............  

उत्तराखंड राज्य में 12,089 वन पंचायत है जिसमे से 750 वन पंचयतो पर जायका (जापान इंटरनेशनल कोऑपरेशन एजेंसी) काम कर रही हैं। बाकि 11,339 वन क्षेत्रो में उत्तराखंड वन पंचायत सलाहकार परिषद् काम कर रहा है। लेकिन इन वन पंचायतो में से 50 फीसदी वन पंचायत के क्षेत्र ऐसे है जहा चुनाव हो पाए है लेकिन अभी भी 50 फीसदी वन पंचायतो में चुनाव होना बाकि है। गौर हो कि वन पंचायतो में चुनाव प्रक्रिया को जिला अधिकारी और पटवारी के नेतृत्व में कराया जाता है। लेकिन इसमें वन विभाग की कोई भूमिका नहीं होती है यही वजह है कि लम्बे समय से इन वन पंचायतो में चुनाव नहीं हो पाए है। 


बाइट - वीरेंद्र बिष्ट, अध्यक्ष, उत्तराखंड वन पंचायत सलाहकार परिषद्

बाइट - आनंद बर्धन, प्रमुख सचिव, वन विभाग




Conclusion:राज्य गठन के बाद, साल 2005 में वन पंचायतो की संख्या तो दोगुनी कर दी गयी। लेकिन 14 साल बीत जाने के बाद भी राज्य सरकार मात्र 25 फीसदी वन पंचायतो तक ही पहुच पायी है। ऐसा हम नही कह रहे बल्कि सरकारी विभाग के आंकड़े इस बात की तस्दीक कर रहे है कि अभी भी 75 फीसदी वन पंचायत, सरकार की पहुच से दूर बतायी जा रही है। ऐसे में राज्य सरकार किस तरह पलायन को रोकने, ग्रामीणों का विकास, वन्य जीवों का संरक्षण, पर्यावरण के संरक्षण के साथ ही वनो का संरक्षण इन वन पंचायतो के जरिये कर पायेगी। ये एक बड़ा सवाल है? देहरादून से ईटीवी भारत के लिए रोहित सोनी की रिपोर्ट.........
Last Updated : Dec 14, 2019, 3:07 PM IST
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