देहरादून: 70 फीसदी वन क्षेत्र वाले उत्तराखंड राज्य में वन पंचायतों की अपनी अलग भूमिका है. ये वन पंचायतें न सिर्फ वनों का संरक्षण और वन क्षेत्रों के वाटर रिसोर्सेज को पुनर्जीवित करती हैं, बल्कि वन पंचायत क्षेत्रों में बसे हजारों परिवारों के जीवन यापन में भी बहुत सहायक सिद्ध होती है. लेकिन जिस मकसद से राज्य में वन पंचायत नियमावली को बनाया गया था, शायद वो उदेश्य से पूरी तरह साकार नहीं हो पाया. क्या है वन पंचायतों का स्वरुप. सरकारी तंत्र को वन पंचायतों के किन पहलुओं पर सबसे ज्यादा फोकस करने की है जरुरत? ईटीवी भारत की स्पेशल रिपोर्ट.
उत्तराखंड राज्य का वन क्षेत्र दो हिस्सों में बंटा है. पहला रिजर्व वन और दूसरा सिविल वन है. रिजर्व वन वो वन है जो वन विभाग के अंदर आता है. इसकी पूरी देख-रेख वन विभाग करता है. यहां जनता को जाने की अनुमति नहीं होती. लेकिन सिविल वन क्षेत्र के आस-पास बसे ग्रामीणों को जंगल से चुगान करने, सूखी लकड़ियों का इस्तेमाल करने, पशुओं को चराने और सिविल फॉरेस्ट की रखवाली करना होता है.
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साल 2005 में बनी थी वन पंचायत नियमावली
साल 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग होकर एक अलग पहाड़ी राज्य बने उत्तराखंड में करीब 5000 वन पंचायतें थीं. लेकिन साल 2005 में वन पंचायतों के विकास और स्थानीय ग्रामीणों को स्थायी रोजगार देने को लेकर वन पंचायत नियमावली-2005 लागू किया गया. करीब 7,089 वन पंचायतों को और बढ़ाया गया. जिससे प्रदेश में सिविल वन क्षेत्रों का दायरा बढ़कर 5.45 लाख हेक्टेयर हो गया.
इन सिविल वन क्षेत्रों में वन पंचायत संख्या 12,089 हो गई. जिसमें 6,278 वन पंचायत गढ़वाल मंडल और 5,811 वन पंचायत कुमाऊं मंडल में शामिल हैं. लेकिन, 14 साल बीत जाने के बाद वन पंचायतों के विकास और स्थायी रोजगार उपलब्ध कराने में अभी तक की सभी सरकारें सफल नहीं हो पायी हैं.
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वन पंचायतों के विकास का खाका
राज्य गठन से पहले इस पहाड़ी क्षेत्र के वन पंचायतों की स्थिति बहुत ज्यादा अच्छी नहीं थी. लिहाजा राज्य गठन के बाद वनों का संरक्षण और वन पंचायतों में रहने वाले ग्रामीणों के विकास की अवधारणा को लेकर ही वन पंचायतों का विस्तारीकरण किया गया. वन पंचायत नियमावली भी बनाई गई थी, लेकिन अब तक इसका कुछ खास फायदा नहीं हो पाया है. अब उत्तराखंड वन पंचायत सलाहकार परिषद पंचायतों के विकास के लिए खाका तैयार करने जा रही है. सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो आने वाले समय में वन पंचायतों का कायाकल्प होना तय है. इसके लिए उत्तराखंड वन पंचायत सलाहकार परिषद के अध्यक्ष ने होमवर्क करना शुरू कर दिया है.
महज 25 फीसदी वन पंचायतों तक ही पहुंची सरकार
प्रदेश के वन पंचायत क्षेत्रों में बसे ग्रामीणों के जीवन यापन के लिए व्यवस्थित करने और रोजगार उपलब्ध कराने को लेकर राज्य में वन पंचायतों का गठन किया गया था. लेकिन मौजूदा हालत ये हैं कि सरकारी तंत्र, वन पंचायतों के एक बड़े हिस्से पर ध्यान नहीं दे पा रहा है. हालांकि वन पंचायतों के विकास के लिए 80 प्रतिशत धनराशि कैम्पा योजना जबकि 20 प्रतिशत राज्य बजट से प्रावधान किया जाता है.
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करीब 50 फीसदी वन पंचायतों में नहीं हो पाए चुनाव
उत्तराखंड राज्य में 12,089 वन पंचायत हैं. जिसमें से 750 वन पंचायतों पर जायका (जापान इंटरनेशनल कोऑपरेशन एजेंसी) काम कर रही है. बाकि 11,339 वन क्षेत्रों में उत्तराखंड वन पंचायत सलाहकार परिषद काम कर रही है. लेकिन इन वन पंचायतों में से 50 फीसदी वन पंचायत के क्षेत्र ऐसे हैं जहां चुनाव हो पाए हैं. लेकिन अभी भी 50 फीसदी वन पंचायतों में चुनाव होना बाकी है. गौरतलब है कि वन पंचायतों में चुनाव प्रक्रिया को जिला अधिकारी और पटवारी के नेतृत्व में कराया जाता है. लेकिन, इसमें वन विभाग की कोई भूमिका नहीं होती. यही वजह है कि लंबे समय से इन वन पंचायतों में चुनाव नहीं हो पाए हैं.
राज्य गठन के बाद साल 2005 में वन पंचायतों की संख्या तो दोगुनी कर दी गई. लेकिन 14 साल बीत जाने के बाद भी राज्य सरकार मात्र 25 फीसदी वन पंचायतों तक ही पहुंच पाई है. सरकारी विभाग के आंकड़े इस बात की तस्दीक कर रहे हैं कि अभी भी 75 फीसदी वन पंचायत, सरकार की पहुंच से दूर हैं.