देहरादून: साल 2013 में केदारनाथ आपदा की खौफनाक तस्वीरें अब भी रोंगटे खड़े कर देती हैं. यह घटना दुनिया में सदी की सबसे बड़ी जल प्रलय से जुड़ी घटनाओं में से एक थी. 16 जून 2013 की उस रात केदारनाथ मंदिर के ठीक पीछे 13 हजार फीट ऊंचाई पर चौराबाड़ी झील ने ऐसी तबाही मचाई थी, जिसके कारण हजारों लोगों की जिंदगियां तबाह हो गईं. अंदाजा लगाइए कि झील फटने के कई किलोमीटर दूर तक भी लोगों को कुछ सेकंड संभलने का मौका भी नहीं मिल सका था. पानी का वेग इतना तेज था कि कई क्विंटल भारी पत्थर इस जल प्रलय के साथ बहते हुए सब कुछ नेस्तनाबूद कर रहे थे.
इस घटना को याद करना इसलिए जरूरी है क्योंकि ऐसे कई खतरे अभी हिमालय के ऊंचे ग्लेशियर्स पर अब भी मौजूद हैं. प्रधानमंत्री कार्यालय की पहल पर ऐसी ही झीलों के अध्ययन के लिए वैज्ञानिकों और पर्यावरणविद् की एक टीम पिछले सालों में पूरे हिमालय क्षेत्र में मौजूद ऐसी चीजों का अध्ययन कर चुकी है. एक रिपोर्ट के अनुसार नेपाल भूटान समेत पूरे हिमालय क्षेत्र में ऐसी करीब 4 हजार से ज्यादा जिले हैं, जो हिमालय क्षेत्र में विकसित हो रहे हैं.
वैसे तो हिमालय में ग्लेशियर पर झीलों का बनना और फिर खत्म हो जाना कोई नई बात नहीं है, लेकिन जानकार कहते हैं कि पिछले 40 सालों में हिमालयी ग्लेशियर्स पर झीलों की संख्या में दोगुने का अंतर आया है. इसकी बड़ी वजह दुनिया भर में ग्लोबल वार्मिंग को माना जा रहा है. जिसके कारण उच्च हिमालई क्षेत्रों में भी ग्लेशियर पिघल रहे हैं. वाडिया इंस्टीट्यूट के रिटायर्ड वैज्ञानिक और कई बार अध्ययन दल को लीड करने वाले डॉ डीपी डोभाल कहते हैं कि दुनिया भर में जिस तरह मौसम में बदलाव आया है और तापमान में बढ़ोतरी हुई है. उसके कारण ग्लेशियर के पिघलने का सिलसिला भी तेज हुआ है. यही नहीं सर्दियों में बर्फबारी के समय के बाद होने का भी आंकलन किया गया है. और यह स्थिति ग्लेशियर की खराब स्थिति को दिखाता है.
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हिमालय में ग्लेशियर के रूप में एक महासागर जितना पानी जमा है. अंदाजा लगाइए कि ऐसे ग्लेशियर्स पर पर्यावरणीय बदलाव के कारण दिक्कतें आती है तो इससे कितनी तबाही हो सकती है. एक अध्ययन के अनुसार हिमालय में बन रही झीलों का सबसे बड़ा खतरा नेपाल तिब्बत और पूर्वी हिमालय पर दिखाई देता है. वैज्ञानिक मानते हैं कि भारतीय हिमालय में करीब 2 हजार क्यूबिक किलोमीटर पानी जमा है. जो करोड़ों लोगों के लिए पेयजल का एक बड़ा साधन है.
दरअसल, मौसम में दोहरे बदलाव ने परेशानियों को बढ़ा दिया है, जिसमें पहला अतिवृष्टि या हीट वेव का पहले के मुकाबले बढ़ना है, जो कि दूसरा मौसम में समय को लेकर अनिश्चितता होना है. वैज्ञानिक कहते हैं कि अब अक्टूबर के महीने तक भी जिन जगहों पर बर्फबारी दिखाई देती थी वहां पर बर्फबारी नहीं हो पा रही है, जबकि सामान्यता अक्टूबर तक मॉनसून सीजन खत्म होने के बाद बारिश का सिलसिला कम होता था लेकिन अब सितंबर तक भी अतिवृष्टि की घटनाएं हो रही हैं.
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भूवैज्ञानिक डॉ एसपी सती कहते हैं कि मौजूदा साल सबसे गर्म सालों में रिकॉर्ड किया गया और इसका सीधा असर ग्लेशियर पर 60 प्रतिशत तक आधारित नदी इंडस पर दिखाई दिया है, जिसमें पानी का वॉल्यूम बढ़ा है और इसके कारण पाकिस्तान में बाढ़ की घटना सामने आई है.
दुनिया भर में मौसम पर नजर रखने वाली सबसे बड़ी संस्था में शामिल आईपीसीसी की रिपोर्ट बताती है कि साल 2007 के बाद मौसम में काफी ज्यादा बदलाव देखने को मिला है और इसके कारण हिमालय क्षेत्र में इसका बेहद ज्यादा असर देखने को मिल रहा है. उत्तराखंड के हिमालई क्षेत्र में करीब 700 जिलों के बनने की जानकारी है. उधर, रिपोर्ट बताती है कि सतलुज, चिनाब, व्यास और रावी घाटियों में ही करीब 1475 जिले हैं. उधर, अलकनंदा नदी बेसिन ग्लेशियरों में 635 जिले बनने की रिपोर्ट है.
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मौसम के गर्म होने के कारण न केवल ग्लेशियर पीछे खिसक रहे हैं बल्कि वह ऊंचाई के लिहाज से भी सिमट रहे हैं. इतना ही नहीं ग्लेशियर पर जहां भी मोटाई कम है वहां पर झील विकसित हो रही है. हालांकि, वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि हिमालय पर जितने बड़ी मात्रा में ग्लेशियर मौजूद है. उस लिहाज से यह कहना गलत होगा कि ग्लेशियर खत्म हो जाएंगे लेकिन इस को लेकर चिंता जरूर खड़ी होती है. हालांकि, 9 सितंबर को हिमालय दिवस मनाया जाता है लेकिन वैज्ञानिक ऐसे गंभीर मामलों को महोत्सव के रूप में मनाने को भी गलत मानते हैं, जब तक की इसके जरिए लोग अपने हिस्से का हिमालय बचाने की कोशिश है ना करें.