देहरादून: उत्तराखंड में जनता के विश्वास को तोड़ने का खेल राजनेता खूब खेल रहे हैं. निजी हित के कारण न केवल लोकतंत्र की हत्या की जा रही है, बल्कि जनता को धोखा देने में भी नेता कोई कोर कसर नही छोड़ रहे हैं. हैरानी की बात यह है कि चुनाव से ठीक पहले जनता की उम्मीदों को तोड़ने वाले नेता जनता से फिर विश्वास जीतने की उम्मीद लगाते हैं. कई बार जनता भी ऐसे नेताओं को फिर से मौका दे भी देती है.
उत्तराखंड में दलबदल का लंबा इतिहास रहा है. समय-समय पर तमाम जनप्रतिनिधि ऐसे निर्णय ले लेते हैं जो जनता की भावनाओं के विपरीत होता हैं. साल 2016 के बाद प्रदेश में ऐसे दलबदल करने वाले नेताओं की संख्या बढ़ी है. ऐसा इसलिए क्योंकि दलबदल करने वाले नेताओं को जनता ने दोबारा मौका दिया. यही वह बात है जो जनप्रतिनिधियों के दर बदल को लेकर हौसले को बुलंद करती है, लेकिन यह बात केवल दलबदल की नहीं है यह बात जनता के विश्वास और क्षेत्र के विकास से भी जुड़ती है.
दल-बदल करने वाले नेताओं की फेहरिस्त
यशपाल आर्य: बाजपुर से भाजपा के टिकट पर विधायक बने लेकिन उन्होंने चुनावों से पहले अपने समीकरणों को देखते हुए पार्टी छोड़ दी.
संजीव आर्य: यशपाल आर्य के बेटे संजीव आर्य को दल बदल के कारण ही मौका मिला. यशपाल आर्य ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा ज्वॉइन की. साथ में ही बेटे को भी टिकट दिलवा दिया, लेकिन उनके बेटे संजीव आर्य ने पहली बार ही नैनीताल से विधायक बनकर दलबदल की परंपरा को आगे बढ़ाया. नैनीताल की जनता की भावनाओं पर खरे नहीं उतरे.
राजकुमार: राजकुमार पुरोला से कांग्रेस विधायक थे. इससे पहले वे सहसपुर से भाजपा के विधायक रहे, लेकिन दल बदल के बावजूद जनता उन पर विश्वास करती रही. जिस वे बार-बार तोड़ रहे हैं.
प्रीतम सिंह पंवार: भाजपा और कांग्रेस से विश्वास हटाते हुए धनौल्टी विधानसभा की जनता ने एक निर्दलीय प्रत्याशी को वोट दिया. तब जनता ने प्रीतम सिंह पंवार पर भरोसा दिखाया. प्रीतम सिंह पंवार ने भी चुनाव से ठीक पहले जनता के उस बहुमत को नकारते हुए भाजपा में शामिल होने का निर्णय लिया.
राम सिंह कैड़ा: निर्दलीय विधायक के तौर पर रामसिंह भीमताल से चुने गए थे. उन्होंने भी 4 साल निर्दलीय के तौर पर जनता के बीच में अपनी छवि को बचाए रखा. चुनाव से ठीक पहले चुनावी नफा नुकसान को देखते हुए वे भी भाजपा में शामिल हो गए.
उत्तराखंड में दलबदल की राजनीति के तेज होने की एक वजह यह भी है कि 2016 में बड़ी संख्या में विधायकों ने दलबदल किया. 2017 के चुनाव में यह अधिकतर विधायक जीतकर विधानसभा पहुंच गए. ऐसे में पार्टी नेताओं का दलबदल को लेकर हौसला बुलंद हुआ है.
जाहिर है कि जनता यदि ऐसे लोगों को मौका देगी तो दलबदल कर लोकतंत्र की हत्या भी ऐसे ही होती रहेगी. सबसे बड़ी बात यह है कि राजनीतिक दल भी इसे लोकतंत्र की हत्या मानते हैं. ऐसे नेताओं के खिलाफ बयान भी देते हैं लेकिन यही पार्टियां समय आने पर नेताओं को दलबदल भी करवाती हैं.
दलबदल को लेकर सबसे ज्यादा सक्रिय रहने वाली भारतीय जनता पार्टी के नेता भी दल बदल को गलत मान रहे हैं. निजी हित के कारण भारतीय जनता पार्टी में किसी भी नेता को नहीं आने की सलाह दे रहे हैं लेकिन हकीकत यह है कि निजी हित के लिए राजनीतिक दल भी ऐसे नेताओं को प्रोत्साहित करते हैं.