मसूरी: सड़कों पर सरपट दौड़ाने वाले रिक्शे का इतिहास काफी पुराना है. लेकिन कभी शान की सवारी समझे जाने वाला रिक्शे अब अपना वजूद बनाए रखने के लिए जूझ रहे हैं. वहीं पहाड़ों की रानी मसूरी में रिक्शे का इतिहास 131 साल पुराना है. माल रोड में शान की सवारी रिक्शा अब धीरे-धीरे बीते दिनों की बात होती जा रही है. आजादी के पहले और उसके ठीक बाद इसे शान की सवारी और स्टेट्स सिंबल माना जाता था. आधुनिकता की चकाचौंध इसको धीरे-घीरे लोगों से दूर कर रही है.
रोजी-रोटी चलाना हुआ मुश्किल
हाथ रिक्शा में देश के राजाओं, ब्रिटिश शासन के अधिकारियों और आजाद भारत के नेताओं ने मसूरी माल रोड पर सफर किया है. बदलते वक्त के साथ हाथ रिक्शों की जगह साइकिल रिक्शे ने ली. लेकिन बदलते दौर में 121 परिवारों की रोजी-रोजी चलाने वाला रिक्शा अब उनके भार को नहीं उठा पा रहा है.
रिक्शा चालकों का कहना है कि कोरोना काल में उनका कार्य काभी प्रभावित हुआ है, जिससे उनके आगे रोजी-रोटी की समस्या गहरा गई है. पहाड़ों की रानी मसूरी 19वीं शताब्दी में अपने अस्तिव में एक प्रसिद्ध हिल स्टेशन के रूप में दुनिया के सामने आई. जिसके बाद लोगों का मसूरी में आवागमन शुरू हुआ. उस समय पर यहां यातायात की कोई सुविधा नहीं थी. जिससे लोगों को आने-जाने व सामान लाने-ले-जाने के लिए परेशानियों का सामना करना पड़ता था. जिसके बाद रिक्शे ने लोगों की मुश्किल को आसान कर दिया. वहीं बदलते समय के साथ ब्रिटिश शासकों ने रिक्शे को परिवहन के साधन के तौर पर उपयोग किया.
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जानें रिक्शे का मसूरी कनेक्शन
इतिहासकार गोपाल भारद्वाज बताते हैं कि साल 1890 में एक भारतीय व्यापारी के दिमाग में यह आया कि क्यों न हाथ से खींचने वाले रिक्शा बनाया जाएं. जिससे आने जाने व सामान ले जाने की सुविधा मिल सकें. जिसकी अंग्रेजों ने अविलंब इजाजत दे दी और एक कारखाना देने का निर्णय लिया. इसके बाद हाथ से खींचने वाले रिक्शे शहर में यातायात का बड़ा साधन बन गये. जिसमें दो सवारियों को पांच आदमी खींचते थे और एक सवारी को तीन आदमी खींचते थे, हाथ रिक्शा खींचने वालों को वर्दी भी दी जाती थी.
साल 1930 में एक भारतीय ने रिक्शों की मांग को देखते हुए इंदिरा भवन में बड़ा कारखाना खोला, जहां पर तीन सौ रिक्शे बनाए गए थे. धीरे-धीरे जब समय बदला तो रिक्शा खींचने वालों की संख्या कम होने पर दो सवारी को तीन लोग ही खींचने लगे. उसके बाद लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी मसूरी द्वारा साल 1995 में हाथ से खींचने वाले रिक्शों को साइकिल रिक्शा में बदल दिया गया.
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मसूरी की शान रिक्शा
गोपाल भारद्वाज बताते है कि हाथ रिक्शा मसूरी की शान थी, ब्रिटिश काल में अंग्रेज हाथ रिक्शा में बैठकर जाते थे. बाद में मसूरी में देश विदेश के लोग लगे व देश के राजा रजवाड़े भी बड़ी संख्या में मसूरी आते थे. सभी के अपने-अपने रिक्शे होते थे, जिनको चलाने वालों की बाकायदा वर्दी होती थी. साथ ही रजवाड़ों के रिक्शे में उनका निशान भी होता था. उन्होंने बताया कि एलबीएस अकादमी द्वारा हाथ रिक्शों को बंद करवा दिया गया. उन्होंने कहा कि अकादमी के लोगों को ऐसा लगा कि यह प्रथा ठीक नहीं है. क्योंकि इसमें आदमी आदमी को खींचता है. जिस पर अकादमी ने इस मामले को गंभीरता से लिया और साल 1995 में इस प्रथा को समाप्त कर दिया गया. साथ ही हाथ रिक्शा चलाने वालों को विभिन्न स्थानों पर समायोजित किया गया और कुछ को साइकिल रिक्शा दिया गया.
दो जून की रोटी को तरस रहे रिक्शा चालक
लेकिन वर्तमान में हाथ रिक्शा से साइकिल रिक्शा चलाने वाले करीब 121 परिवार मसूरी में रहते हैं. जिनका परिवार इसी व्यवसाय पर निर्भर है, लेकिन कोरोना काल में उनका व्यवसाय भी प्रभावित हुआ है. साथ ही रिक्शा चालक अच्छे दिन आने का इंतजार कर रहे हैं.
रिक्शा चालक विरेंद्र ने कहा कि पूर्व में हाथ रिक्शा से परिवार पालते थे, लेकिन गत वर्ष कोरोना संक्रमण के चलते रोजगार समाप्त हो गया. इस वर्ष अभी तक काम नहीं है, जिससे परिवार चलाने में दिक्कत आ रही है.
रिक्शा चालक अतर सिंह ने बताया कि जब हाथ रिक्शा था तो एक रिक्शा से तीन चार लोगों को रोजगार मिलता था. लेकिन अब साइकिल रिक्शा से एक को ही रोजगार मिलता है. लेकिन गत वर्ष कोरोना के कारण सभी बेरोजगार हो गए हैं. वहीं राकेश पंवार ने कहा कि पूरे साल काम न होने के चलते बैठे रहे, अब फिर से कोरोना का संकट नजर आ रहा है. चिंता है कि किस तरह परिवार पालेंगे, क्या खायेंगे व बच्चों की फीस कहां से देंगे? सरकार की ओर से कोई मदद नहीं की जा रही है.