देहरादून: उत्तराखंड में 2013 के बाद से लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं हुई है. राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण सालों साल से लटके हुए इस मुद्दे पर आज तक कुछ नहीं हुआ. लोकायुक्त मामले पर राजनीतिक दलों में सन्नाटा सा ही नजर आ रहा है. मौजूदा धामी सरकार वैसे तो तमाम नए कानूनों को लाकर खुद की पीठ थपथपा रही है, लेकिन लोकायुक्त की बात आते ही सब ठंडे बस्ते में जाता हुआ नजर आता है.
मौजूदा भाजपा सरकार नकल रोधी कानून से लेकर धर्मांतरण और यूनिफॉर्म सिविल कोड तक पर बेहद सक्रिय नजर आती है. पिछले एक साल में धामी सरकार ने ऐसे ही कई विवादित और बड़े फैसलों पर अपनी मुहर लगाई है, लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि लोकायुक्त जैसे गंभीर मामले पर सरकार पिछले 1 साल में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ी है. वैसे यह पहली सरकार नहीं है जिसने लोकायुक्त पर अपनी खामोशी बरती है.
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इससे पहले त्रिवेंद्र सरकार और हरीश रावत सरकार भी लोकायुक्त के मामले पर कोई खास पहल नही कर पाये. शायद यही कारण है कि लोकायुक्त को लटकाने की यह परंपरा आगे की सरकारें भी जारी रखे हुए हैं. वह बात अलग है कि विपक्ष में आने के बाद लोकायुक्त गठन पर राजनीतिक दलों के नेताओं के कंठ फिर खुल जाते हैं. वे सत्ताधारी दल पर इसे लेकर हमलावर भी नजर आते हैं. इस बार कांग्रेस की ओर से प्रदेश अध्यक्ष करन माहरा ने इस मुद्दे को लेकर आवाज बुलंद की है. करन माहरा ने कहा बीजेपी सरकार में भ्रष्टाचार का बोलबाला है, बीजेपी सरकार में खनन माफिया सक्रिय हैं, बीजेपी सरकार में अंकिता हत्याकांड जैसा जघन्य अपराध होता है, बीजेपी सरकार में इतने बड़े भर्ती घोटाले हो रहे हैं, वो कैसे लोकायुक्त की नियुक्ति करेगी. करन माहरा ने कहा बीजेपी ने जनता को ठगा है. जिसे जनता समझ रही है.
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इस मामले में भाजपा ज्यादा दोषी नजर आती है, ऐसा इसलिए क्योंकि वह भाजपा ही थी जिसने लोकायुक्त पर सबसे ज्यादा बबाल किया था. इतना ही नहीं 2017 के चुनाव से पहले तो भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में भी 100 दिन के भीतर लोकायुक्त लाने का वादा तक किया था, लेकिन 5 साल सरकार चलाने के बाद भी लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं हो पाई. इससे भी ज्यादा हैरानी की बात यह है कि अब तो भाजपाई लोकायुक्त लाने की जरूरत ही महसूस नहीं कर रहे है.
लोकायुक्त मामले पर कब क्या हुआ
- 2002 में उत्तराखंड में लोकायुक्त का गठन हुआ.
- सैयद रजा अब्बास प्रदेश के पहले लोकायुक्त बने.
- 2008 में एमएम घिल्डियाल दूसरे लोकायुक्त बने
- 2013 तक एमएम घिल्डियाल ने सेवाएं दी.
- 2013 से अब तक लोकायुक्त का यह पद खाली चल रहा है.
लोकायुक्त मामले पर सरकारों ने क्या किया
- 2011 में तत्कालीन भुवन चंद्र खंडूड़ी की सरकार ने पहली बार लोकायुक्त विधेयक विधानसभा में पारित किया.
- इसके तहत मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री और अफसर तक लोकायुक्त के दायरे में लाने की कोशिश की गई.
- लोकायुक्त को राष्ट्रपति की भी मंजूरी मिली, जिसके बाद प्रदेश में सत्ता बदल गई.
- इसके बाद विजय बहुगुणा ने विधानसभा में नया लोकायुक्त विधेयक 2014 पारित करवाया दिया.
- 2014 का यह विधेयक भुवन चंद्र खंडूड़ी के समय आए विधेयक से कमजोर बताया गया.
- इस विधेयक में मुख्यमंत्री को लोकायुक्त के दायरे से बाहर रखा गया.
- विजय बहुगुणा सरकार वाले लोकायुक्त विधेयक को भी लागू नहीं कराया जा सका.
- त्रिवेंद्र सरकार में 2017 के दौरान विधानसभा में विधेयक लाया गया था, तब से यह विधेयक विधानसभा में अटका हुआ है.
वैसे सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि उत्तराखंड में लोकायुक्त का ढांचा बना हुआ है. बकायदा इसका एक कार्यालय भी चलता है और इस कार्यालय में कई कर्मचारी भी काम करते हैं. लेकिन लोकायुक्त का गठन नहीं हुआ है. लोकायुक्त कोई है नहीं लिहाजा यह कार्यालय केवल एक शो पीस की तरह बना हुआ है. साल 2013 से अब तक ₹15 करोड़ से ज्यादा की रकम लोकायुक्त कार्यालय पर खर्च हो चुकी है. हर साल करीब 2 करोड़ से ज्यादा की रकम वेतन और अन्य खर्चों में व्यय हो रही है. लोकायुक्त कार्यालय में करीब 1600 शिकायतें लंबित हैं.