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नेताजी को उत्तराखंड से ही मिली थी लड़ने की प्रेरणा, पहाड़ी सैनिकों पर था सबसे ज्यादा भरोसा - दिल्ली चलो नारा

नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को हुआ था. उन्होंने पहले भारतीय सशस्त्र बल की स्थापना की थी जिसका नाम उन्होंने आजाद हिंद फौज रखा था. इसके साथ ही नेताजी का उत्तराखंड से भी काफी पुराना नाता है.

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सुभाष चंद्र बोस जयंती
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Published : Jan 23, 2020, 9:03 AM IST

Updated : Jan 23, 2020, 9:46 AM IST

देहरादून: 'तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा' और 'दिल्ली चलो' जैसे नारों से लोगों में आजादी का जुनून पैदा करने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज (23 जनवरी) 123वीं जयंती है. वहीं, नेताजी और उनके द्वारा स्थापित आजाद हिंद फौज का उत्तराखंड से काफी गहरा नाता रहा है. कहा जाता है कि विद्रोह के साथ-साथ लड़ने की प्रेरणा भी नेताजी को देवभूमि से ही मिली थी.

सुभाष चंद्र बोस जयंती स्पेशल

देहरादून से मिली नेताजी को विद्रोह और लड़ने की प्रेरणा

मसान साम्राज्य के राजा महेंद्र प्रताप सिंह का कार्यक्षेत्र देहरादून था. आज भी उनकी कोठियां देहरादून राजपुर रोड पर मौजूद हैं. साल 1914 में उन्होंने यहां से भाग कर अफगानिस्तान काबुल में जाकर निर्वासित भारत सरकार का गठन किया था और वो वहां निर्वासित भारत सरकार के राष्ट्रपति बन गए. राजा महेंद्र प्रताप सिंह वहीं से विश्व के अन्य नेताओं जैसे कि स्टर्लिंग, हिटलर आदि से भारत के राष्ट्रपति की हैसियत से मिला करते थे. राजा महेंद्र प्रताप के विद्रोह और इस रणनीति से प्रेरणा लेते हुए नेता सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंद सेना का गठन किया.

पेशावर महानायक वीरचन्द्र गढ़वाली से मिला भरोसा

साल 1930 में उत्तराखंड के पेशावर कांड के महानायक वीर चंद्र गढ़वाली से भी नेताजी प्रेरित हुए थे. दरअसल, 23 अप्रैल 1930 को हवलदार मेजर वीर चंद्र गढ़वाली के नेतृत्व में रॉयल गढ़वाल राइफल के जवानों ने भारत की आजादी के लिए लड़ने वाले निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से मना कर दिया था, जिससे नेताजी को आत्मविश्वास मिला.

इन सभी घटनाओं के बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारत से विद्रोह कर रंगून चले गए. जहां, उन्होंने आजाद हिंद फौज की स्थापना की. इतना ही नहीं देहरादून FRI में काम कर रहे रासबिहारी बोस ने अंग्रेज वायसराय पर बम फेंका था. ये घटना भी उत्तराखंड के देहरादून से जुड़ी हुई है.

ये भी पढ़ें: थाईलैंड की रॉयल फैमिली करेगी कॉर्बेट का दीदार, थाई राजपूत ने सुरक्षा इंतजामों का लिया जायजा

आजाद हिंद फौज को था उत्तराखंड के शौर्य पर भरोसा

आजाद हिंद फौज के गठन के बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस का उत्तराखंड से आने वाले सैनिकों पर सबसे ज्यादा भरोसा था. वो उत्तराखंडियों की देशभक्ति से काफी प्रभावित थे. यही वजह थी कि आजाद हिंद फौज में पूरी दो बटालियन गढ़वालियों की थी. आजाद हिंद फौज में दूसरी गढ़वाल और पांचवी गढ़वाल दो बटालियन मौजूद थीं. सेकेंड गढ़वाल की कमांड कैप्टन बुद्धि सिंह रावत के पास थी तो वहीं फिफ्थ गढ़वाल का नेतृत्व पितृ शरण रतूड़ी ने किया था जोकि टिहरी के बहुत बड़े सैनिक थे.

इसके अलावा आजाद हिंद फौज के रंगून में मौजूद ऑफिसर ट्रेनिंग स्कूल के चीफ भी उत्तराखंड से थे, जिनका नाम चंद्र सिंह नेगी था. बाद में आजाद हिंद फौज के इन तीनों वीर सैनिकों को मेजर में प्रमोट किया गया और फिर ये कर्नल के पोस्ट तक प्रमोट किए गए.

उत्तराखंडी सैनिकों ने हिन्द फौज में दी शहादत

इन तीनों अफसरों के अलावा ज्ञान सिंह बिष्ट, कैप्टन महेंद्र सिंह बागड़ी, मेजर पदम सिंह गुसाईं और मेजर देव सिंह दानू ने भी आजाद हिंद फौज में प्रमुख भूमिका निभाई थी. लेफ्टिनेट ज्ञान सिंह 1945 में टांगजीन मोर्चे पर गढ़वाली सैनिकों का नेतृत्व कर रहे थे, जहां उन्होंने 40 गढ़वाली सैनिकों के साथ वीरगति को प्राप्त किया, जिसका जिक्र आजाद हिंद फौज के जनरल शाहनवाज खान ने अपनी किताब में किया था.

देहरादून: 'तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा' और 'दिल्ली चलो' जैसे नारों से लोगों में आजादी का जुनून पैदा करने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज (23 जनवरी) 123वीं जयंती है. वहीं, नेताजी और उनके द्वारा स्थापित आजाद हिंद फौज का उत्तराखंड से काफी गहरा नाता रहा है. कहा जाता है कि विद्रोह के साथ-साथ लड़ने की प्रेरणा भी नेताजी को देवभूमि से ही मिली थी.

सुभाष चंद्र बोस जयंती स्पेशल

देहरादून से मिली नेताजी को विद्रोह और लड़ने की प्रेरणा

मसान साम्राज्य के राजा महेंद्र प्रताप सिंह का कार्यक्षेत्र देहरादून था. आज भी उनकी कोठियां देहरादून राजपुर रोड पर मौजूद हैं. साल 1914 में उन्होंने यहां से भाग कर अफगानिस्तान काबुल में जाकर निर्वासित भारत सरकार का गठन किया था और वो वहां निर्वासित भारत सरकार के राष्ट्रपति बन गए. राजा महेंद्र प्रताप सिंह वहीं से विश्व के अन्य नेताओं जैसे कि स्टर्लिंग, हिटलर आदि से भारत के राष्ट्रपति की हैसियत से मिला करते थे. राजा महेंद्र प्रताप के विद्रोह और इस रणनीति से प्रेरणा लेते हुए नेता सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंद सेना का गठन किया.

पेशावर महानायक वीरचन्द्र गढ़वाली से मिला भरोसा

साल 1930 में उत्तराखंड के पेशावर कांड के महानायक वीर चंद्र गढ़वाली से भी नेताजी प्रेरित हुए थे. दरअसल, 23 अप्रैल 1930 को हवलदार मेजर वीर चंद्र गढ़वाली के नेतृत्व में रॉयल गढ़वाल राइफल के जवानों ने भारत की आजादी के लिए लड़ने वाले निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से मना कर दिया था, जिससे नेताजी को आत्मविश्वास मिला.

इन सभी घटनाओं के बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारत से विद्रोह कर रंगून चले गए. जहां, उन्होंने आजाद हिंद फौज की स्थापना की. इतना ही नहीं देहरादून FRI में काम कर रहे रासबिहारी बोस ने अंग्रेज वायसराय पर बम फेंका था. ये घटना भी उत्तराखंड के देहरादून से जुड़ी हुई है.

ये भी पढ़ें: थाईलैंड की रॉयल फैमिली करेगी कॉर्बेट का दीदार, थाई राजपूत ने सुरक्षा इंतजामों का लिया जायजा

आजाद हिंद फौज को था उत्तराखंड के शौर्य पर भरोसा

आजाद हिंद फौज के गठन के बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस का उत्तराखंड से आने वाले सैनिकों पर सबसे ज्यादा भरोसा था. वो उत्तराखंडियों की देशभक्ति से काफी प्रभावित थे. यही वजह थी कि आजाद हिंद फौज में पूरी दो बटालियन गढ़वालियों की थी. आजाद हिंद फौज में दूसरी गढ़वाल और पांचवी गढ़वाल दो बटालियन मौजूद थीं. सेकेंड गढ़वाल की कमांड कैप्टन बुद्धि सिंह रावत के पास थी तो वहीं फिफ्थ गढ़वाल का नेतृत्व पितृ शरण रतूड़ी ने किया था जोकि टिहरी के बहुत बड़े सैनिक थे.

इसके अलावा आजाद हिंद फौज के रंगून में मौजूद ऑफिसर ट्रेनिंग स्कूल के चीफ भी उत्तराखंड से थे, जिनका नाम चंद्र सिंह नेगी था. बाद में आजाद हिंद फौज के इन तीनों वीर सैनिकों को मेजर में प्रमोट किया गया और फिर ये कर्नल के पोस्ट तक प्रमोट किए गए.

उत्तराखंडी सैनिकों ने हिन्द फौज में दी शहादत

इन तीनों अफसरों के अलावा ज्ञान सिंह बिष्ट, कैप्टन महेंद्र सिंह बागड़ी, मेजर पदम सिंह गुसाईं और मेजर देव सिंह दानू ने भी आजाद हिंद फौज में प्रमुख भूमिका निभाई थी. लेफ्टिनेट ज्ञान सिंह 1945 में टांगजीन मोर्चे पर गढ़वाली सैनिकों का नेतृत्व कर रहे थे, जहां उन्होंने 40 गढ़वाली सैनिकों के साथ वीरगति को प्राप्त किया, जिसका जिक्र आजाद हिंद फौज के जनरल शाहनवाज खान ने अपनी किताब में किया था.

Intro:सुभाष चंद्र बोस जयंती श्पेशल----

एंकर- सुभाष चंद्र बोस जयंती के मौके पर आइए आपको बताते हैं कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस और उनके द्वारा स्थापित की गई आजाद हिंद फौज का देवभूमि उत्तराखंड से कितना गहरा संबंध रहा है।


Body:वीओ- स्वतंत्रता संग्राम में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली आजाद हिंद फौज का गठन करने वाले नेताजी सुभाष चंद्र बोस का उत्तराखंड से गहरा नाता रहा है। यही नहीं विद्रोह के साथ-साथ लड़ने की प्रेरणा भी नेता जी को उत्तराखंड से ही मिली थी।

नेताजी को विद्रोह और लड़ने की प्रेरणा देहरादून से मिली---

मसान साम्रज्य के राजा महेंद्र प्रताप सिंह जिनका कार्यक्षेत्र देहरादून था और आज भी उनकी कोठियां देहरादून राजपुर रोड पर मौजूद है वह एक क्रांतिकारी थे। 1914 में उन्होंने यहां से भाग कर अफगानिस्तान काबुल में जाकर निर्वासित भारत सरकार का गठन किया था और वो वंहा निर्वासित भारत सरकार के राष्ट्रपति बन गए। राजा महेंद्र प्रताप सिंह वहीं से विश्व के अन्य नेताओं जैसे कि स्टर्लिंग, हिटलर आदि से भारत के राष्ट्रपति की हैसियत से मिला करते थे। राजा महेंद्र प्रताप के विद्रोह और इस रणनीति से प्रेरणा लेते हुए नेता सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंद सेना का गठन किया और अंग्रेजों से लोहा लेने की रणनीति बनाई।

पेशावर महानायक वीरचन्द्र गढ़वाली से मिला भरोसा---

1930 में उत्तराखंड से आने वाले पेशावर कांड के महानायक वीर चंद्र गढ़वाली से भी नेताजी प्रेरित हुए थे। दरअसल 23 अप्रैल 1930 को हवलदार मेजर वीर चंद्र गढ़वाली के नेतृत्व में रॉयल गढ़वाल राइफल के जवानों ने भारत की आजादी के लिए लड़ने वाले निहत्ते पठानों पर गोली चलाने से मना कर दिया था जिससे नेताजी को आत्मविश्वास मिला की अंग्रेजों की फौज में मौजूद भारतीय लोग भी उन्हीं के साथ हैं।

इन सभी घटनाओं के बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारत से विद्रोह कर रंगून चले गए जहां उन्होंने आजाद हिंद फौज की स्थापना की और इतना ही नहीं देहरादून FRI में काम कर रहे रासबिहारी बोस ने अंग्रेज वायसराय पर बम फेंका था यह घटना भी देहरादून उत्तराखंड से जुड़ी हुई है।

आजाद हिंद फौज को था उत्तराखंड के शौर्य पर भरोसा---

आजाद हिंद फौज के गठन के बाद नेताजी सुभाष चंद्र बोस का उत्तराखंड से आने वाले सैनिकों पर सबसे ज्यादा भरोसा था, वह उत्तराखंडयों की देशभक्ति से काफी प्रभावित थे। यही वजह थी कि आजाद हिंद फौज में पूरी दो बटालियन गढ़वालियों की थी। आजाद हिंद फौज में सेकंड गढ़वाल और फिफ्थ गढ़वाल दो बटालियन मौजूद थी सेकंड गढ़वाल की कमांड कैप्टन बुद्धि सिंह रावत के पास थी तो वहीं फिफ्थ गढ़वाल का नेतृत्व पितृ शरण रतूड़ी ने किया था जो कि टिहरी के बहुत बड़े सैनिक थे।


इसके अलावा आजाद हिंद फौज के रंगून में मौजूद ऑफिसर ट्रेनिंग स्कूल के चीफ भी उत्तराखंड से थे जिनका नाम चंद्र सिंह नेगी था बाद में आजाद हिंद फौज के इन तीनों वीर सैनिकों को मेजर में प्रमोट किया गया और फिर यह कर्नल प्रमोट किया गया।

हिन्द फ़ौज में शहादत भी दी उत्तराखंडी सेनिको ने---

इन तीनों अफसरों के अलावा रेफिनेट ज्ञान सिंह बिष्ट, कैप्टन महेंद्र सिंह बागड़ी, मेजर पदम सिंह गुसाईं और मेजर देव सिंह दानू को भी आजाद हिंद फौज में प्रमुख भूमिका निभाई थी।

लेफ्निनेट ज्ञान सिंह 1945 में टांगजीन मोर्चे पर गढ़वाली सैनिकों का नेतृत्व कर रहे थे जहां उन्होंने 40 गढ़वाली सैनिकों के साथ वीरगति को प्राप्त किया जिसका जिक्र आजाद हिंद फौज के जनरल शाहनवाज खान ने अपनी किताब में किया था इन सभी गढ़वाली सैनिकों पर लाल किला की जेल मैं रखा गया और वहां से ट्रायल किया गया।

बाइट- जय सिंह रावत, वरिष्ठ पत्रकार।






Conclusion:
Last Updated : Jan 23, 2020, 9:46 AM IST
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