देहरादन: चुनावों में बीजेपी, कांग्रेस और अन्य दल सत्ता पर काबिज होने के लिए जनहित के मुद्दे लेकर जनता के बीच जाते हैं, लेकिन सत्ता पर काबिज होते ही सारे दावे हवा-हवाई साबित हो जाते हैं. राज्य गठन से प्रदेश का चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लड़ा जाता रहा है. जिन मुद्दों पर तमाम दल सियासत करते हैं, वो कभी परवान नहीं चढ़ सके. प्रदेश में कई मुद्दे आज भी जस के तस हैं. आइए एक नजर उन मुद्दों पर डालते हैं जो इन चुनावों में छाये रहे...
उत्तराखंड विधानसभा चुनाव हर बार की तरह इस बार फिर वादों और दावों का चुनाव रहा. चुनाव के दौरान सभी दलों ने कई मुद्दे उछाले, कई घोषणाएं कीं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर मुख्यमंत्री पुष्कर धामी की सत्तारूढ़ सरकार तक बड़ी घोषणाएं करने से भी नहीं चूकी. भाजपा का चुनाव प्रचार अभियान विकास के मुद्दे से लेकर कांग्रेस पर आरोप मढ़ने पर केंद्रित रहा. वहीं विपक्ष की बात करें तो कांग्रेस नेता राहुल गांधी, प्रियंका गांधी से लेकर पूर्व सीएम हरीश रावत तक ने कई तरह के बयान दिए. भाजपा पर आरोप लगाए तो विकास, रोजगार और महंगाई जैसे मुद्दे उठाए. इधर, आम आदमी पार्टी ने बिजली, शिक्षा, रोजगार आदि मुद्दों के लिए गारंटी योजनाएं देने का वादा किया.
फ्री बिजली का मुद्दा: उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में फ्री बिजली के वादों से असल मुद्दों को तगड़ा झटका लगा. फ्री बिजली के वादों के बीच अन्य चुनावी मुद्दे राजनीतिक दलों के लिए उतने खास नहीं रहे. बीजेपी, कांग्रेस, आम आदमी पार्टी सभी राजनीतिक दल फ्री बिजली के वादे पर सवार होकर 2022 विधानसभा चुनाव जीतने का सपना संजोए हैं.
आम आदमी पार्टी ने 300 यूनिट मुफ्त बिजली दिए जाने के लिए जहां गारंटी कार्ड जारी किया, वहीं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हरीश रावत ने भी फ्री बिजली की बात कही. उन्होंने कहा अगर कांग्रेस सत्ता में आती है तो प्रदेश की जनता को 200 यूनिट मुफ्त बिजली देगी.
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रोजगार का मुद्दा: उत्तराखंड में बेरोजगारी और रोजगार के कम मौके भी इस बार चुनावी मुद्दे के तौर पर सामने आये. उत्तराखंड में आम आदमी पार्टी ने रोजगार गारंटी अभियान चलाकर युवाओं को अपने साथ जोड़ने की कोशिश की. पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक व दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने राज्य में आप की सरकार बनने पर रोजगार गारंटी का ऐलान भी किया. वहीं, हरीश रावत ने भी कांग्रेस के सत्ता में आते ही सभी रिक्त पदों पर भर्ती करने की बात कही.
हरीश रावत का आरोप: उन्होंने कहा एक साल के भीतर सभी खाली पदों को भरा जाएगा. हरीश रावत ने भाजपा सरकार पर युवाओं को रोजगार के नाम पर सिर्फ जुमलेबाजी करने का आरोप लगाया. भाजपा ने भी अपने दृष्टि पत्र में दोबारा सत्ता में आने पर 50 हजार युवाओं को नौकरी देने का वादा किया. इसके साथ ही जो युवा बेरोजगार हैं, उन्हें एक साल तक तीन हजार रुपये प्रतिमाह देने की घोषणा भी बीजेपी ने की.
महंगाई के मुद्दे पर बयानबाजी: उत्तराखंड में कांग्रेस ने महंगाई के मुद्दे को लेकर भाजपा के विरोध में अभियान छेड़ा. पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ताओं ने चुनाव प्रचार में महंगाई के मुद्दे पर केंद्र और राज्य की भाजपा सरकार को घेरा. पेट्रोल व डीजल के साथ ही रसोई गैस की बढ़ती कीमतों को लेकर भी कांग्रेस, आम आदमी पार्टी व अन्य दल इन चुनावों में हमलावर दिखाई दिये.
धुव्रीकरण का मामला: चुनाव से ऐन पहले हरिद्वार से धर्म संसद के विवादों का जिन्न बोतल से बाहर निकला. जैसे-जैसे चुनाव निर्णायक दौर में पहुंचा भाजपा ने तुष्टिकरण के मुद्दे पर कांग्रेस को असहज करने की कोशिश की. मुस्लिम विवि के मुद्दे पर भी उत्तराखंड में जमकर सियासत हुई. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ और अमित शाह से लेकर पार्टी का शायद ही कोई केंद्रीय और प्रांतीय नेता रहा हो जिसने इस मामले पर बयान न दिया हो. लव जिहाद से लेकर लैंड जिहाद, हिजाब और आखिर में सीएम धामी का समान नागरिक संहिता का मुद्दा ध्रुवीकरण की सियासत का आखिरी दांव माना गया.
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भू-कानून नहीं लैंड-जिहाद': राज्य के युवाओं ने जिस भू-कानून को चुनाव से पहले जमीन से जुड़े मुद्दे के रूप में उठाया था उसे बीजेपी ने लैंड-जिहाद के रूप में बदल दिया. भू-कानून उत्तराखंड का उत्तराखंडियों का मुद्दा है, लेकिन लैंड-जिहाद सिर्फ बीजेपी का एजेंडा है. इन चुनावों में बीजेपी ने जमकर इस मुद्दे को उछाला.
आम आदमी का मुद्दा: इसके अलावा आम आदमी पार्टी ने उत्तराखंड में भ्रष्टाचार को लेकर पहले की और मौजूदा सरकार को आड़े हाथों लिया है. बीजेपी और कांग्रेस दोनों दलों पर आक्रामक तरीके से हमलावर आम आदमी पार्टी ने उत्तराखंड में बिजली, पानी, जनसुविधाओं को भी चुनावी मुद्दा बनाया.
उत्तराखंड में चुनावी मुद्दों की बात करें, तो चुनाव दर चुनाव यहां राजनीतिक दल पहाड़ के असल मुद्दों से भटकते नजर आये हैं. राजनीतिक विशेषज्ञों की मानें, तो राज्य गठन के बाद पहले आम चुनाव में प्रदेश में ढांचागत व्यवस्थाओं और राजस्व सहित मूलभूत सुविधाओं को बढ़ाने के मुद्दे चुनाव में खूब छाये रहे. तब कांग्रेस ने इन मुद्दों को पूरी तरह भुनाया. उसके बाद के चुनाव में मुद्दों की बात करें तो ये बेरोजगारी और महंगाई तक ही सीमित रहे. उत्तराखंड के चुनावों में पहाड़ों का विकास, कृषि, आपदा, पर्यावरण आदि मुद्दे कहीं भी चुनाव का हिस्सा नहीं रहे. महिलाओं के विकास की बातें घोषणा पत्र में जरूर हुई, लेकिन इन्हें धरातल पर कभी भी नहीं उतारा गया.
राजनीतिक विशेषज्ञों क्या कह रहे: वरिष्ठ पत्रकार भागीरथ शर्मा बताते हैं कि राज्य गठन के बाद भाजपा की कार्यकारी सरकार रही, लेकिन वह भी मात्र 2 साल में सीएम ही बदलते रह गए. उसके बाद पहले आम चुनाव में नवोदित राज्य के सामने कई चुनौंतियां थी. जिसमें राजस्व ग्रामों को सड़क से जोड़ने सहित हजारों गांव में विद्युतीकरण सहित राजस्व को बढ़ाने और ढांचागत विकास को बढ़ाना मुख्य काम था. तब कांग्रेस ने इन मुद्दों को बखूबी भुनाया.
कांग्रेस सरकार ने प्रदेश में औद्योगिकीकरण को बढ़ाया. उसके बाद हुए चुनाव में मुद्दे भी बदलते रहे, लेकिन पहाड़ के असल मुद्दे कभी भी चुनाव में प्रभावी नहीं दिखाई दिये. यही कारण है कि आज तक पहाड़ों का विकास नहीं हो पाया है.
भागीरथ शर्मा कहते हैं कि आज स्थिति यह है कि चुनाव मात्र मंहगाई और बेरोजगारी तक ही सीमित रह गए हैं. शिक्षा, स्वास्थ्य सहित कृषि की बातें होती तो हैं लेकिन चुनाव खत्म होने के बाद उन पर कोई चर्चा नहीं होती. महिलाओं के विकास के लिए भी कई प्रकार की बातें होती हैं, लेकिन उन पर होता कुछ नहीं. पहाड़ों में आज भी महिला विशेषज्ञ न होने के कारण कई गर्भवती और जच्चा-बच्चा दम तोड़ देते हैं. आपदा, पर्यावरण जैसे मुद्दे आज भी चुनावों से गायब हैं. हर वर्ष आपदा के कारण प्रदेश को लाखों-करोड़ों का नुकसान हो रहा है. हजारों लोग इसमें जान गंवा देते हैं, मगर ये बातें बस सिर्फ मुआवजे तक की सीमित रहती हैं. ये कभी चुनावों में मुद्दे बने ही नहीं.
जिलों के गठन का मुद्दा: साल 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग होकर राज्य बनने के बाद से उत्तराखंड में एक भी नया जिला नहीं बना है. कांग्रेस ने सरकार में आने पर 9 नए जिले बनाने का वादा किया. आम आदमी पार्टी ने वादा किया है कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आई तो 6 नए जिले बनाएंगे. वहीं सत्तारुढ़ बीजेपी का कहना है कि नए जिलों के गठन के लिए बनाए गए आयोग की रिपोर्ट के आधार पर ही कोई फैसला लिया जाएगा. बात अगर चुनावी मुद्दे की करें तो इन चुनावों में नये जिलों के गठन को लेकर कोई खास चर्चा नहीं हुई.
पलायन नहीं रहा मुद्दा: रोजगार के अवसर नहीं होने के कारण पहाड़ी इलाकों से लोगों का पलायन भी उत्तराखंड में शुरूआत से चुनाव का बड़ा मुद्दा रहा. पलायन यहां इतना बड़ा मुद्दा है कि सरकार ने इसके लिए पलायन आयोग तक गठित किया है. आयोग की रिपोर्ट में दावा किया गया है कि अलग राज्य बनने के बाद उत्तराखंड से करीब 60 प्रतिशत आबादी घर छोड़ चुकी है. इतने गंभीर आंकड़े सामने आने के बाद भी पलायन इन चुनावों में मुद्दों से दूर रहा.
बदहाल स्वास्थ्य सेवाएं: राज्य में बदहाल स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर भी आवाज बुलंद की गई. कोरोनाकाल हो या उससे पहले का समय, प्रदेश में बड़ी संख्या में लोग स्वास्थ्य सेवाओं की कमी से जूझते रहे हैं. तमाम अस्पतालों में डॉक्टर नहीं हैं, जिससे लोगों को इलाज के लिए भटकना पड़ता है.
पर्यावरण मुद्दों से बाहर: राज्य में आजतक हुये चुनावों में राजनीतिक दलों के एजेंडे में कभी पर्यावरण मुद्दा रहा ही नहीं. जबकि नैसर्गिक सुंदरता से परिपूर्ण उत्तराखंड देश के पर्यावरण को संजोये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. जिसके कारण इसकी भूमिका यहां ज्यादा हो जाती है. राज्य के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 71.05 प्रतिशत वन भू-भाग है. प्रकृति की ओर से वन रूपी अमूल्य निधि यहां की सभ्यता, संस्कृति व समृद्धि का प्रतीक है. राज्य में पर्यावरण का मतलब पर्यटन के जरिये यहां की आर्थिकी से भी जुड़ा है. दूसरा पहलू ये भी है कि पर्यावरण और विकास के मध्य सामंजस्य का अभाव प्रदेश पर भारी पड़ रहा है. इस परिदृश्य के बीच राजनीतिक दलों के बीच पर्यावरण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे की अनदेखी को किसी भी दशा में ठीक नहीं कहा जा सकता.
देवस्थानम बोर्ड, चारधाम यात्रा, प्राकृतिक आपदा से निपटने की तैयारी, नए उद्योग लगाने और मैदानी इलाकों में खेती वगैरह के स्थानीय मुद्दे भी चुनाव से पहले प्रदेश की सियासत को खूब गर्माते रहे, मगर चुनाव आते-आते ये सभी मुद्दे ठंडे बस्ते में डाल दिये गये, या फिर इन्हें मैनेज कर लिया गया. जिसके कारण इन मुद्दों का शोर चुनावों में नहीं सुनाई दिया
पर्वतीय क्षेत्र की जरूरतें: उत्तराखंड के सैकड़ों गांव ऐसे हैं, जहां मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं. मूलभूत सुविधाओं की बात करें तो सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सुविधाएं जो उन्हें मिलनी चाहिए, यहां हमेशा ही उनका अभाव रहा है. आए दिन स्वास्थ्य की लचर व्यवस्था का असर पर्वतीय क्षेत्रों में देखा जा सकता है. इसके अलावा पलायन, रोजगार भी उत्तराखंड में बड़े चुनावी मुद्दे हैं. पेयजल, ट्रैफिक, भ्रष्टाचार, विकास ये सभी मुद्दे चुनावों में छाये रहते हैं. मगर चुनावी साल से ठीक पहले प्रदेश की सियासी फिजाओं में फ्री बिजली के वादों की गूंज सुनाई दी, जिसके कारण आने वाले समय में भी असल मुद्दों को 'झटका' लग सकता है.