ETV Bharat / state

जल-जंगल-जमीन: हेलंग में गर्माया चारा पत्ती विवाद, पहाड़ से लेकर मैदान तक हुआ विरोध

चमोली के हेलंग घाटी में घास काटकर ले जाती महिलाओं के चालान के मामले ने तूल पकड़ लिया है. लेखक राजीव नयन बहुगुणा ने इसको उत्तराखंड के लिए दुर्भाग्य बताया है. तो वहीं, वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत ने भी अपनी प्रतिक्रिया दी है. हालांकि, मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने जांच के आदेश दे दिए हैं.

dehradun
देहरादून
author img

By

Published : Jul 24, 2022, 12:07 PM IST

Updated : Jul 25, 2022, 3:41 PM IST

देहरादून: उत्तराखंड की हेलंग घाटी में घसियारी महिलाओं से हुआ दुर्व्यवहार और हिरासत में लेने की घटना लगातार तूल पकड़ती जा रही है. 14 जुलाई को हुई इस घटना को भले ही आज 1 हफ्ते से ज्यादा का वक्त बीत गया हो लेकिन विपक्षी दल सहित तमाम आंदोलनकारी इसे उत्तराखंड की मातृशक्ति का अपमान बता रहे हैं. लोगों का कहना है कि अगर उत्तराखंड के लोग अपने पशुओं के लिए घास तक नहीं काट सकते तो फिर लोगों के बलिदान और उनके संघर्ष का क्या फायदा? लोग बाहर से आई कंपनियों पर निशाना साधते हुए सरकार को भी कटघरे में खड़ा कर रहे हैं.

दरअसल, चमोली की हेलंग घाटी में घास ले जाती दो महिलाओं से सीआईएसएफ और पुलिस जवानों की नोकझोंक हुई थी, जिसका वीडियो सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुआ. ये घटना ना केवल उत्तराखंड बल्कि देश विदेश में रह रहे उत्तराखंड के लोगों तक जब ये पहुंची तो सभी ने अपने अपने स्तर से इसका विरोध किया. हद तो तब हो गयी जब महिलाओं के खिलाफ ना केवल पुलिस ने मुकदमा दर्ज किया, बल्कि उनका चालान काट कर उन्हें हिरासत में भी ले लिया.

हेलंग में गर्माया चारा पत्ती विवाद.

उत्तराखंड की सीधी-साधी महिलाओं को भी नहीं मालूम था कि उन्हें घास काटने और ले जाने की ये कीमत चुकानी पड़ेगी. भले ही पुलिस ने सभी महिलाओं से 250 रुपए का चालान भरवा कर छोड़ दिया हो, लेकिन ये घटना पहाड़ में किसी भी लिहाज से सही नहीं ठहराई जा सकती है.

महिलाओं के साथ इस तरह की घटना और व्यवहार का मुख्य कारण उस कंपनी को माना जा रहा है, जो यहां पर विष्णु घाट पर योजना बना रही है. इस योजना के तहत हेलंग में एक सुरंग बनाई जा रही है और सुरंग बनाने वाली कंपनी यहां पर एक खेल मैदान बनाना चाहती है. इस पूरे जंगल को हरा-भरा करने में अगर किसी का सबसे अधिक सहयोग है. तो वह है यहां के ग्रामीणों का. ग्रामीणों ने सालों से इस जंगल को इस तरह से सजाया और संवारा है, ताकि वह आने वाले समय में अपने जानवरों के लिए यहां से घास ले जा सकें. लेकिन कंपनी के यहां पर आ जाने के बाद से इन को जंगल में जाने की इजाजत नहीं है.
पढ़ें- ITBP और पुलिस से भिड़ गईं पहाड़ की महिलाएं, घास काटने को लेकर हुआ विवाद, मामले ने पकड़ा तूल

इससे पहले भी इस पूरे क्षेत्र में इस तरह की तस्वीरें और घटनाएं सामने आ चुकी है कि कंपनी ने हरे भरे पेड़ों को काट कर के वहां पर डंपिंग जोन बनाया है. इसका लगातार इस इलाके में विरोध होता रहा है. इस बार यह विरोध महिलाओं के हिरासत में लिए जाने के बाद अधिक पनप गया. कंपनी का कहना है कि वह यहां पर खेल का मैदान बनाना चाहती है, इसीलिए किसी भी तरह से घास या किसी अन्य चीज को बाहर ले जाने की इजाजत नहीं है.

हलाकि, जो तस्वीरें उस क्षेत्र की सामने आई हैं वो कुछ और ही बयां कर रही है. इस मामले हमने भूविज्ञान प्रोफेसर एसके सती से बात की. प्रोफेसर एसके सती कहते हैं कि "जो मेने उस वक्त कहा है वो आज भी कहता हूं. डैम निर्माण का मलबा डंप कर जिस जगह पर खेल का मैदान बनाने की बात की जा रही है, वह कई कारणों से असंभव है. ढलान पर डाले गए मलबे से अस्थाई तौर पर डंप के ऊपर कुछ समतल जमीन दिखती जरूर है, परंतु वह कभी टिक ही नहीं सकती. बरसात के दिनों में सारा मलबा नदी में समा जाता है और वो नदी के निचले क्षेत्रों में ज्यादा तबाही का सबब बनता है." पढ़ें- हेलंग घाटी से घास ले जाती ग्रामीण महिलाओं का चालान, वन मंत्री ने दिए जांच के आदेश

साल 2013 की आपदा में गढ़वाल विश्वविद्यालय के चौरास स्टेडियम के पार्श्व में डाला गया मलबा आपदा के दौरान भयानक तबाही का कारण बना था. इससे पूरा स्टेडलियम ही क्षतिग्रस्त हो गया था. डंप मलबे की टो यानी जड़ सीधे नदी की सतह तक होगी, जो नियम विरुद्ध भी होगा.

मैं इस मामले में इतना आश्वस्त हूं कि अगले 10 साल के भीतर भीतर मेरी बात सच न हुई तो मुझ पर आपराधिक मामला चलाया जाए. पर एक गारंटी वो भी दें कि अगर अगले दस साल में मेरी बात सच हुई तो नीति निर्धारक अधिकारी जिसने इस जगह डंप से खेल का मैदान बनाने की बात फिक्स की, उस पर आपराधिक मुकदमा दर्ज हो और उसकी सारी डिपॉजिट छीन ली जाए. "

सरकार कर रही है लगातार विरोध: इस पूरे मामले को लेकर विपक्षी दल और उत्तराखंड के पर्यावरणविद् भी विरोध में है. कांग्रेस प्रवक्ता गरिमा दसौनी कहती है कि ये उत्तराखंड महिलाओं का और यहां के लोगों का अपमान है. अगर यहां के लोग अपने पशु के लिए चारा ही नहीं ला सकते हैं तो पहाड़ों में रहने और उत्तराखंड के जंगलों को बचाने का क्या फायदा? गरिमा ने सरकार पर भी आरोप लगाते हुए कहा कि ये सब हुआ और सरकार सोती रही. कांग्रेस इस मामले में लगातार विरोध में है.

बुग्यालों में रईसों को शादी इजाजत, स्थानीय लोगों को घास ले जाने की नहीं: मशहूर पर्यावरणविद् स्वर्गीय सुन्दरलाल बहुगुणा के बेटे और लेखक राजीव नयन बहुगुणा तो इसे बेहद गंभीर मानते हुए कहते हैं कि ये उत्तराखंड को हथियाने और यहां के लोगों को बाहर करने की साजिश है. उन्होंने कहा ये घास के रूप में हमसे यहां के संसाधनों को छीनने की साजिश है.

उन्होंने सरकार और प्रशासन पर सवाल खड़े करते हुए कहा कि औली में लोगों को जानवर चराने की इजाजत नहीं है, जबकि उसी जगह पर एक बड़े घराने के लोगो को शादी करने और गंदगी फैलाने की इजाजत सरकार देती है, ये सब बताता है कि हमसे हमारे साधन छीने जा रहे है. उन्होंने कहा है की आज प्रशासन बांध बनाने वाली कम्पनियों की जेब में है. इसलिए ये सब हो रहा है.

सीएम ने दिए जांच के आदेश: मामला बढ़ा तो सरकार के मुखिया के पास तीन दिन बाद पहुंचा. ऐसे में महिलाओं के चालान के बाद सीएम पुष्कर सिंह धामी ने जांच के आदेश दिए हैं. मुख्यमंत्री ने ट्वीट करके ये जानकारी दी कि इस मामले में कमिश्नर को जांच करके रिपोर्ट सौंपने के लिए कहा गया है. सवाल ये खड़ा होता है कि अगर पहाड़ों में इस तरह से पुलिस और सीआरपीएफ कंपनियां लोगों के साथ ऐसा बर्ताव करेगी तो भला जिन लोगों से आज पहाड़ थोड़े बहुत आबाद हैं, तो ये लोग भी यहां क्यों रुकेंगे ? क्योंकि ना तो ये जानवर के लिए चारा ला सकते हैं और ना ही जिस जंगल का बच्चों की तरह ध्यान रखा उनके पास जा सकेंगे.

क्या कहता है वन कानून: वरिष्ठ पत्रकार और उत्तराखंड की भौगोलिक स्थिति से वाकिफ रखने वाले जय सिंह रावत कहते हैं कि साल 1893 में हतबंदी हुई थी, जिसके तहत यह फैसला लिया गया था कि कौन सी जमीन जंगल होगा और कहां पर आबादी को बसाया जा सकता है. इसके तहत पहाड़ों पर रहने वाले लोग जंगल के हक-हकूकधारी हुआ करते थे. स्वभाविक है कि पहाड़ों में रहने वाला व्यक्ति जानवर तो पालता ही है. अब चारा घर में तो बनेगा नहीं, ऐसे में उनको इजाजत थी कि वह जंगलों से चारा और एक पैमाना के अनुसार लकड़ियों को भी ला सकता है लेकिन समय के साथ यह चीजें जो बदल रही है. यह उत्तराखंड के लिए सही नहीं है.

जय सिंह रावत कहते हैं कि साल 1930 में वन पंचायत बनने के बाद अब लोगों के सामने यह संकट है कि वह राजाजी टाइगर रिजर्व पार्क नहीं जा सकते. कॉर्बेट नेशनल रिजर्व पार्क नहीं जाता जा सकते. उत्तरकाशी के लोग गंगोत्री नेशनल पार्क नहीं जा सकते. चमोली के लोग फूलों की घाटी और रिजर्व फॉरेस्ट एरिया में नहीं जा सकते. दूसरा बचा जंगल तो वहां पर भी घास काटने नहीं जा सकते. ऐसे में उत्तराखंड के लोगों के आगे यह दोहरा संकट आ गया है कि वह अपने जानवरों को कैसे पालें ?

वह कहते हैं कि भूटिया समाज के लोगों के पास 500 से ज्यादा भेड़ बकरियां होती हैं. अब वह उनको लिए चारा कहां से चलाएगा. कल के दिन उनको भी जंगल में जाने की इजाजत नहीं होगी. यह उत्तराखंड के लोगों के लिए नई बात है और यह हजम करने वाली बात नहीं है.

देहरादून: उत्तराखंड की हेलंग घाटी में घसियारी महिलाओं से हुआ दुर्व्यवहार और हिरासत में लेने की घटना लगातार तूल पकड़ती जा रही है. 14 जुलाई को हुई इस घटना को भले ही आज 1 हफ्ते से ज्यादा का वक्त बीत गया हो लेकिन विपक्षी दल सहित तमाम आंदोलनकारी इसे उत्तराखंड की मातृशक्ति का अपमान बता रहे हैं. लोगों का कहना है कि अगर उत्तराखंड के लोग अपने पशुओं के लिए घास तक नहीं काट सकते तो फिर लोगों के बलिदान और उनके संघर्ष का क्या फायदा? लोग बाहर से आई कंपनियों पर निशाना साधते हुए सरकार को भी कटघरे में खड़ा कर रहे हैं.

दरअसल, चमोली की हेलंग घाटी में घास ले जाती दो महिलाओं से सीआईएसएफ और पुलिस जवानों की नोकझोंक हुई थी, जिसका वीडियो सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुआ. ये घटना ना केवल उत्तराखंड बल्कि देश विदेश में रह रहे उत्तराखंड के लोगों तक जब ये पहुंची तो सभी ने अपने अपने स्तर से इसका विरोध किया. हद तो तब हो गयी जब महिलाओं के खिलाफ ना केवल पुलिस ने मुकदमा दर्ज किया, बल्कि उनका चालान काट कर उन्हें हिरासत में भी ले लिया.

हेलंग में गर्माया चारा पत्ती विवाद.

उत्तराखंड की सीधी-साधी महिलाओं को भी नहीं मालूम था कि उन्हें घास काटने और ले जाने की ये कीमत चुकानी पड़ेगी. भले ही पुलिस ने सभी महिलाओं से 250 रुपए का चालान भरवा कर छोड़ दिया हो, लेकिन ये घटना पहाड़ में किसी भी लिहाज से सही नहीं ठहराई जा सकती है.

महिलाओं के साथ इस तरह की घटना और व्यवहार का मुख्य कारण उस कंपनी को माना जा रहा है, जो यहां पर विष्णु घाट पर योजना बना रही है. इस योजना के तहत हेलंग में एक सुरंग बनाई जा रही है और सुरंग बनाने वाली कंपनी यहां पर एक खेल मैदान बनाना चाहती है. इस पूरे जंगल को हरा-भरा करने में अगर किसी का सबसे अधिक सहयोग है. तो वह है यहां के ग्रामीणों का. ग्रामीणों ने सालों से इस जंगल को इस तरह से सजाया और संवारा है, ताकि वह आने वाले समय में अपने जानवरों के लिए यहां से घास ले जा सकें. लेकिन कंपनी के यहां पर आ जाने के बाद से इन को जंगल में जाने की इजाजत नहीं है.
पढ़ें- ITBP और पुलिस से भिड़ गईं पहाड़ की महिलाएं, घास काटने को लेकर हुआ विवाद, मामले ने पकड़ा तूल

इससे पहले भी इस पूरे क्षेत्र में इस तरह की तस्वीरें और घटनाएं सामने आ चुकी है कि कंपनी ने हरे भरे पेड़ों को काट कर के वहां पर डंपिंग जोन बनाया है. इसका लगातार इस इलाके में विरोध होता रहा है. इस बार यह विरोध महिलाओं के हिरासत में लिए जाने के बाद अधिक पनप गया. कंपनी का कहना है कि वह यहां पर खेल का मैदान बनाना चाहती है, इसीलिए किसी भी तरह से घास या किसी अन्य चीज को बाहर ले जाने की इजाजत नहीं है.

हलाकि, जो तस्वीरें उस क्षेत्र की सामने आई हैं वो कुछ और ही बयां कर रही है. इस मामले हमने भूविज्ञान प्रोफेसर एसके सती से बात की. प्रोफेसर एसके सती कहते हैं कि "जो मेने उस वक्त कहा है वो आज भी कहता हूं. डैम निर्माण का मलबा डंप कर जिस जगह पर खेल का मैदान बनाने की बात की जा रही है, वह कई कारणों से असंभव है. ढलान पर डाले गए मलबे से अस्थाई तौर पर डंप के ऊपर कुछ समतल जमीन दिखती जरूर है, परंतु वह कभी टिक ही नहीं सकती. बरसात के दिनों में सारा मलबा नदी में समा जाता है और वो नदी के निचले क्षेत्रों में ज्यादा तबाही का सबब बनता है." पढ़ें- हेलंग घाटी से घास ले जाती ग्रामीण महिलाओं का चालान, वन मंत्री ने दिए जांच के आदेश

साल 2013 की आपदा में गढ़वाल विश्वविद्यालय के चौरास स्टेडियम के पार्श्व में डाला गया मलबा आपदा के दौरान भयानक तबाही का कारण बना था. इससे पूरा स्टेडलियम ही क्षतिग्रस्त हो गया था. डंप मलबे की टो यानी जड़ सीधे नदी की सतह तक होगी, जो नियम विरुद्ध भी होगा.

मैं इस मामले में इतना आश्वस्त हूं कि अगले 10 साल के भीतर भीतर मेरी बात सच न हुई तो मुझ पर आपराधिक मामला चलाया जाए. पर एक गारंटी वो भी दें कि अगर अगले दस साल में मेरी बात सच हुई तो नीति निर्धारक अधिकारी जिसने इस जगह डंप से खेल का मैदान बनाने की बात फिक्स की, उस पर आपराधिक मुकदमा दर्ज हो और उसकी सारी डिपॉजिट छीन ली जाए. "

सरकार कर रही है लगातार विरोध: इस पूरे मामले को लेकर विपक्षी दल और उत्तराखंड के पर्यावरणविद् भी विरोध में है. कांग्रेस प्रवक्ता गरिमा दसौनी कहती है कि ये उत्तराखंड महिलाओं का और यहां के लोगों का अपमान है. अगर यहां के लोग अपने पशु के लिए चारा ही नहीं ला सकते हैं तो पहाड़ों में रहने और उत्तराखंड के जंगलों को बचाने का क्या फायदा? गरिमा ने सरकार पर भी आरोप लगाते हुए कहा कि ये सब हुआ और सरकार सोती रही. कांग्रेस इस मामले में लगातार विरोध में है.

बुग्यालों में रईसों को शादी इजाजत, स्थानीय लोगों को घास ले जाने की नहीं: मशहूर पर्यावरणविद् स्वर्गीय सुन्दरलाल बहुगुणा के बेटे और लेखक राजीव नयन बहुगुणा तो इसे बेहद गंभीर मानते हुए कहते हैं कि ये उत्तराखंड को हथियाने और यहां के लोगों को बाहर करने की साजिश है. उन्होंने कहा ये घास के रूप में हमसे यहां के संसाधनों को छीनने की साजिश है.

उन्होंने सरकार और प्रशासन पर सवाल खड़े करते हुए कहा कि औली में लोगों को जानवर चराने की इजाजत नहीं है, जबकि उसी जगह पर एक बड़े घराने के लोगो को शादी करने और गंदगी फैलाने की इजाजत सरकार देती है, ये सब बताता है कि हमसे हमारे साधन छीने जा रहे है. उन्होंने कहा है की आज प्रशासन बांध बनाने वाली कम्पनियों की जेब में है. इसलिए ये सब हो रहा है.

सीएम ने दिए जांच के आदेश: मामला बढ़ा तो सरकार के मुखिया के पास तीन दिन बाद पहुंचा. ऐसे में महिलाओं के चालान के बाद सीएम पुष्कर सिंह धामी ने जांच के आदेश दिए हैं. मुख्यमंत्री ने ट्वीट करके ये जानकारी दी कि इस मामले में कमिश्नर को जांच करके रिपोर्ट सौंपने के लिए कहा गया है. सवाल ये खड़ा होता है कि अगर पहाड़ों में इस तरह से पुलिस और सीआरपीएफ कंपनियां लोगों के साथ ऐसा बर्ताव करेगी तो भला जिन लोगों से आज पहाड़ थोड़े बहुत आबाद हैं, तो ये लोग भी यहां क्यों रुकेंगे ? क्योंकि ना तो ये जानवर के लिए चारा ला सकते हैं और ना ही जिस जंगल का बच्चों की तरह ध्यान रखा उनके पास जा सकेंगे.

क्या कहता है वन कानून: वरिष्ठ पत्रकार और उत्तराखंड की भौगोलिक स्थिति से वाकिफ रखने वाले जय सिंह रावत कहते हैं कि साल 1893 में हतबंदी हुई थी, जिसके तहत यह फैसला लिया गया था कि कौन सी जमीन जंगल होगा और कहां पर आबादी को बसाया जा सकता है. इसके तहत पहाड़ों पर रहने वाले लोग जंगल के हक-हकूकधारी हुआ करते थे. स्वभाविक है कि पहाड़ों में रहने वाला व्यक्ति जानवर तो पालता ही है. अब चारा घर में तो बनेगा नहीं, ऐसे में उनको इजाजत थी कि वह जंगलों से चारा और एक पैमाना के अनुसार लकड़ियों को भी ला सकता है लेकिन समय के साथ यह चीजें जो बदल रही है. यह उत्तराखंड के लिए सही नहीं है.

जय सिंह रावत कहते हैं कि साल 1930 में वन पंचायत बनने के बाद अब लोगों के सामने यह संकट है कि वह राजाजी टाइगर रिजर्व पार्क नहीं जा सकते. कॉर्बेट नेशनल रिजर्व पार्क नहीं जाता जा सकते. उत्तरकाशी के लोग गंगोत्री नेशनल पार्क नहीं जा सकते. चमोली के लोग फूलों की घाटी और रिजर्व फॉरेस्ट एरिया में नहीं जा सकते. दूसरा बचा जंगल तो वहां पर भी घास काटने नहीं जा सकते. ऐसे में उत्तराखंड के लोगों के आगे यह दोहरा संकट आ गया है कि वह अपने जानवरों को कैसे पालें ?

वह कहते हैं कि भूटिया समाज के लोगों के पास 500 से ज्यादा भेड़ बकरियां होती हैं. अब वह उनको लिए चारा कहां से चलाएगा. कल के दिन उनको भी जंगल में जाने की इजाजत नहीं होगी. यह उत्तराखंड के लोगों के लिए नई बात है और यह हजम करने वाली बात नहीं है.

Last Updated : Jul 25, 2022, 3:41 PM IST
ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.