देहरादून: उत्तराखंड में स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली किसी से छिपी नहीं है. कई बार प्रसूता हॉस्पिटल तक नहीं पहुंच पाती और उसे बीच रास्ते में ही बच्चे को जन्म देना पड़ता है. ऐसे हालात में कई बार जच्चा-बच्चा की मौत हो जाती है. यही कारण है कि उत्तराखंड में इलाज के अभाव में गर्भवती और नवजात की मौत का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है. सूचना का अधिकार कानून (आरटीआई) के तहत जो जानकारी मिली है, जो बेहद ही चौंकाने वाली है.
देश के अधिकतर राज्यों में जहां मातृ-मृत्यु दर में कमी आ रही है, वहीं उत्तराखंड में इसमें बढ़ोत्तरी हो रही है. आरटीआई से मिली जानकारी के मुताबिक, राज्य के सभी 13 जिलों में 2016-17 से 2020-21 तक मातृ मृत्यु दर में 122.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और इसी अवधि में नवजात मृत्यु दर में 238 प्रतिशत की वृद्धि हुई.
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उत्तराखंड में प्रसव के दौरान हुई करीब 21 प्रतिशत मौतें उत्तराखंड की जनसंख्या में कुल 35 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखने वाले देहरादून और हरिद्वार जिले में हुई है. वर्ष 2016-17 से 2020-21 के बीच प्रसव के दौरान सबसे अधिक 230 महिलाओं की मौत हरिद्वार जिले में हुई है, जबकि पांच सालों में नैनीताल जिले में सबसे ज्यादा 910 नवजातों ने दम तोड़ा है. राज्य की जनसंख्या में करीब 20 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाले चंपावत, पिथौरागढ़, पौड़ी गढ़वाल, उत्तरकाशी और रुद्रप्रयाग जिले में 28 फीसदी नवजातों की मौत हुई है.
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आंकड़ों के अनुसार, इस अवधि में उत्तराखंड में कुल 798 महिलाओं की गर्भावस्था संबंधी जटिलताओं के कारण मौत हो गई. राज्य में 2016-17 में 84 महिलाओं की मौत गर्भावस्था संबंधी जटिलताओं के कारण हुई और यह संख्या 2020-21 में बढ़कर 187 हो गई. बता दें कि जन्म के 28 दिन के भीतर शिशु की मृत्यु को नवजात मृत्यु में गिना जाता है.
आरटीआई कार्यकर्ता शिवम ने बताया कि राज्य में 2016-2017 में 228 नवजात की मौत हुई थी और 2020-21 में यह संख्या बढ़कर 772 हो गई. आरटीआई के अनुसार, 2016 से 2021 तक राज्य में कुल 3,295 शिशुओं की मौत हुई, जिनमें से नैनीताल में सर्वाधिक 402 शिशुओं की मौत हुई. इसके अलावा इस अवधि में गर्भावस्था संबंधी जटिलताओं के कारण सर्वाधिक 230 महिलाओं की मौत हरिद्वार जिले में हुई.