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अब नहीं दिखाई देते कुम्हार की चाक पर बने दीये, दम तोड़ रहा पारंपरिक रोजगार

दीपावली दीयों का त्यौहार है. भगवान राम जब बुराई के उपासक रावण का अंत कर अयोध्या नगरी पहुंचे तो अयोध्या वासियों ने भगवान राम के आने की खुशी में पूरे शहर को दीयों से जगमग किया था. तब से लेकर आज तक यह परंपरा चलती आ रही है, लेकिन उस परंपरा को अब विकास ने पीछे छोड़ दिया है. लोग मिट्टी के पारंपरिक दीयों को छोड़ अब चाइनीजा लाइट्स को तवज्जो दे रहे हैं.

अब नहीं दिखाई देते कुम्हार की चाक पर बने दीये.
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Published : Oct 17, 2019, 1:29 PM IST

Updated : Oct 18, 2019, 10:17 AM IST

ऋषिकेश: 'कहां तो तय था चरागा हर एक घर के लिए, कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए' हिंदी के मशहूर कवि दुष्यंत कुमार की यह पंक्तियां शायद चिराग बनाने वाले कुम्हार पर सटीक बैठती है. महंगाई और चाइना बाजार की व्यापकता में हाथ की पारंपरिक कारीगरी अब दम तोड़ने पर मजबूर है. प्लास्टिक के मकड़ जाल में मिट्टी के सामान उलझ से गए हैं. यही कारण है कि कुम्हार अब इस काम से पीछा छुड़ाने की तैयारी में हैं.

अब नहीं दिखाई देते कुम्हार की चाक पर बने दीये.

बता दें कि, दीपावली दीयों का त्यौहार है. भगवान राम जब बुराई के उपासक रावण का अंत कर अयोध्या नगरी पहुंचे तो अयोध्या वासियों ने भगवान राम के आने की ख़ुशी में पूरे शहर को दीयों से जगमग किया था. तब से लेकर आज तक यह परंपरा चलती आ रही है, लेकिन उस परंपरा को अब विकास ने पीछे छोड़ दिया है. लोग मिट्टी के पारंपरिक दीयों को छोड़ अब चाइना के लाइटिंग वाले दिए लेना पसंद कर रहे हैं.

मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हार ने बताया कि अब इस धंधे में उनकी आखरी पीढ़ी ही काम कर रही है. अब उनके बच्चे इस काम में नहीं आना चाहते हैं. ईटीवी भारत से खास बातचीत में उन्होंने बताया कि पहले के समय में हर कोई अपनी परंपरा को संजोकर चलते थे, पर अब विकास के पथ पर अग्रसर होने की होड़ में लोग परंपराओं से किनारा कर रहे हैं. उनका कहना है कि पहले वह महीनों पहले से दीपावली और करवा चौथ जैसे त्योहारों पर मिट्टी दिए बनाने में जुट जाते थे, लेकिन अब लोग मिट्टी के दीयों के बदले चाइनीज लाइट्स को तवज्जो दे रहे हैं.

कुम्हार पहल सिंह ने बताया कि वह पिछले 30 साल से मिट्टी के बरतन बनाने का काम कर रहे हैं. पहले इस काम में अच्छी आमदनी होता थी और घर का खर्चा भी चलता था, लेकिन अब उन्हें इस काम से दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होगी है. उनका कहना है कि उनके बच्चे अब इस काम से अब दूर हो चुके हैं.

ऋषिकेश: 'कहां तो तय था चरागा हर एक घर के लिए, कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए' हिंदी के मशहूर कवि दुष्यंत कुमार की यह पंक्तियां शायद चिराग बनाने वाले कुम्हार पर सटीक बैठती है. महंगाई और चाइना बाजार की व्यापकता में हाथ की पारंपरिक कारीगरी अब दम तोड़ने पर मजबूर है. प्लास्टिक के मकड़ जाल में मिट्टी के सामान उलझ से गए हैं. यही कारण है कि कुम्हार अब इस काम से पीछा छुड़ाने की तैयारी में हैं.

अब नहीं दिखाई देते कुम्हार की चाक पर बने दीये.

बता दें कि, दीपावली दीयों का त्यौहार है. भगवान राम जब बुराई के उपासक रावण का अंत कर अयोध्या नगरी पहुंचे तो अयोध्या वासियों ने भगवान राम के आने की ख़ुशी में पूरे शहर को दीयों से जगमग किया था. तब से लेकर आज तक यह परंपरा चलती आ रही है, लेकिन उस परंपरा को अब विकास ने पीछे छोड़ दिया है. लोग मिट्टी के पारंपरिक दीयों को छोड़ अब चाइना के लाइटिंग वाले दिए लेना पसंद कर रहे हैं.

मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हार ने बताया कि अब इस धंधे में उनकी आखरी पीढ़ी ही काम कर रही है. अब उनके बच्चे इस काम में नहीं आना चाहते हैं. ईटीवी भारत से खास बातचीत में उन्होंने बताया कि पहले के समय में हर कोई अपनी परंपरा को संजोकर चलते थे, पर अब विकास के पथ पर अग्रसर होने की होड़ में लोग परंपराओं से किनारा कर रहे हैं. उनका कहना है कि पहले वह महीनों पहले से दीपावली और करवा चौथ जैसे त्योहारों पर मिट्टी दिए बनाने में जुट जाते थे, लेकिन अब लोग मिट्टी के दीयों के बदले चाइनीज लाइट्स को तवज्जो दे रहे हैं.

कुम्हार पहल सिंह ने बताया कि वह पिछले 30 साल से मिट्टी के बरतन बनाने का काम कर रहे हैं. पहले इस काम में अच्छी आमदनी होता थी और घर का खर्चा भी चलता था, लेकिन अब उन्हें इस काम से दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होगी है. उनका कहना है कि उनके बच्चे अब इस काम से अब दूर हो चुके हैं.

Intro:Special

ऋषिकेश--"कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये, कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये"  हिन्दी के मशहूर कवि दुष्यंत कुमार की यह पंक्तियाँ शायद चिराग बनाने वाले कुम्हार पर सटीक बैठती है। महंगाई और चाइना बाज़ार की व्यापकता में हाथ की पारम्परिक कारीगरी अब दम तोड़ने पर मजबूर है।  प्लास्टिक के मकड़ जाल में मिटटी के सामान उलझ से गए है।  दीपावली पर सैकड़ों दिए खरीदने वाले अब सिर्फ धन की देवी लक्ष्मी के सामने ही दिए जलाते है।देखिए ईटीवे भारत की खास रिपोर्ट


Body:वी/ओ--मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हार बताते हैं कि अब इस धंधे में हमारी आखरी पीढ़ी काम कर रही है। अब हमारे घर के बच्चे इस धंधे में आना नहीं चाहते। यह कहना है ऋषिकेश के कुम्हार का है,अपने जीवन के कई बसंत देख चुके धर्मपाल का आज भी अपने दिनचर्या का आधा समय चाक पर बिताते है। कुम्हार ने ईटीवी भारत से खास बातचीत में बताया कि  पहले के ज़माने में  सभी लोग अपनी परंपरा को संजोकर चलते थे, पर अब विकास के पथ पर अग्रसर होने की होड़ में लोग परम्पराओं से किनारा करने लगे है।  जिसका खामियाज़ा हमें भुगतना पड़ रहा है।  पहले हम चार महीना पहले से दीपावली पर बिकने वाले दिए,करवा चौथ पर  मिट्टी के करवे और भैयादूज पर बिकने वाले खिलौनों को बनाने में जुट जाते थे अब वो बात नहीं रह गयी है,कुम्हारों का कहना है कि अब सरकार को भी इस ओर ध्यान देना चहिए ताकि पारम्परिक मिट्टी के बर्तन आउट चिराग का कार्य करने वाले कुम्हार इस काम से दूर न हों।

बाईट--धर्मपाल(कुम्हार)


वी/ओ - रेडीमेड साँचे से मिटटी का दिया गाढने में लगे कुम्हार पहल सिंह ने बताया कि हम पिछले 30 साल से इस काम में अपने परिवार के साथ यह कार्य रहे है।आमदनी होती थी की घर का खर्चा भी चलता था और हमारे बच्चे पढ़ते भी थे पर बाज़ार में चाइना के मालों की आमद से अब लोग रंग बिरंगी झालरों की तरफ भाग रहे है।  जिससे हमारे लिए मुश्किल खड़ी हो गयी है।पहल सिंह ने बताया कि इस धंधे से अपने बच्चों को पाल पोस कर बड़ा किया है वहीं इसी धंधे से अपना पूरा जीवन यापन किया है लेकिन अब कभी कभी ऐसा दिन भी आता है जब उनको दो जून की रोटी भी नसीब नहीं होती,वहीं एक कारण यह भी बताया कि आज कल मिट्टी भी काफी महंगी हो गई जिस कारण लागत भी नही निकल पाता है, पहल सिंह ने बताया कि उनके बच्चे इस काम से अब दूर हो चुके हैं अब वे इस काम को छोड़ दूसरा काम कर परिवार का भरण पोषण करते हैं।

बाईट--पहल सिंह(कुम्हार)



Conclusion:वी/ओ--दीपावली दियो का त्यौहार है भगवान राम जब बुराई के उपासक रावण का अंत करके अयोध्या नगरी पहुंचे तो अयोध्या वासियों ने भगवान राम के आने और विजय की ख़ुशी में पूरे शहर को दीयों से जगमग किया था।  तब से लेकर आज तक यह परम्परा चलती आ रही है। उस परम्परा को अब विकास ने पीछे छोड़ दिया है।  लोग  मिटटी के पारम्परिक दीयों को छोड़ अब चाइना के लाइटिंग वाले दिए लेना पसंद कर रहे है।  जिससे कुम्हार अब इस धंधे से पीछा छुड़ाने के लिए तैयार है।अब वो दिन दूर नहीं जब हमें मिटटी के कसोरे, कुल्हड़, दिये देखने के लिए म्यूज़ियम का सहारा लेना पड़ेगा।

पीटीसी--विनय पाण्डेय



Last Updated : Oct 18, 2019, 10:17 AM IST
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