देहरादून: उत्तराखंड में राजनेताओं का विधानसभा सीटों से पलायन का सिलसिला जारी है. कभी यह नेता राजनीतिक परिस्थितियों के कारण सीटों से पलायन कर रहे हैं तो कभी हार का डर भी नेताओं को सीट छोड़ने पर मजबूर कर रहा है. हर बार नेताओं के लिए पलायन करना फायदे का सौदा साबित नहीं होता, बावजूद इसके उत्तराखंड में न सिर्फ ऐसे कई नेता हैं जिन्होंने बार-बार सीटें बदली है, बल्कि सीट बदलकर जीत का परचम भी लहराया है.
उत्तराखंड में ऐसे कई दिग्गज नेता हैं जिन्होंने अपनी ही सीट से पलायन कर जनता को जोर का झटका दिया है. कुछ नेता हैं जो पहाड़ छोड़कर मैदानों की तरफ दौड़े तो कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने पहाड़ में ही एक सीट छोड़कर दूसरी विधानसभा को चुना. उत्तराखंड में ऐसे नेताओं की लंबी फेहरिस्त है. इन नेताओं के विधानसभा छोड़ने के अपने अलग-अलग कारण हैं. प्रदेश में विधानसभा सीटों को छोड़ने वाले विधायकों की सूची में ऐसे दर्जनभर नेताओं का नाम शुमार है. आइये उन सभी पर नजर डालते हैं.
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हरक सिंह साबित हुए हीरो: हरक सिंह रावत ऐसे नेता हैं जो इस मामले में सबसे आगे दिखाई देते हैं. उन्होंने प्रदेश की पौड़ी, रुद्रप्रयाग जिले में कई विधानसभाओं में अपने भाग्य आजमाया है. हरक सिंह रावत ने पौड़ी विधानसभा, लैंसडौन विधानसभा, कोटद्वार और रुद्रप्रयाग विधानसभा से चुनाव लड़े. हर बार उन्होंने जीत हासिल की है.
यशपाल आर्य ने कई सीटों पर आजमाई किस्मत: यशपाल आर्य ने कई विधानसभा सीट बदल चुके हैं. उन्होंने भी उन सीटों पर चुनाव भी जीता है. यशपाल आर्य ने खटीमा सीट पर चुनाव लड़ा और जीते. इसके बाद मुक्तेश्वर, बाजपुर सीट पर भी भाग्य आजमाया. जहां भी उन्होंने जीत हासिल की.
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हरदा से लिए नुकसान का सौदा हुआ सीट बदलना: हरीश रावत ने भी कई बार अपनी विधानसभा और लोकसभा सीटों से पलायन किया. लोकसभा सीट की बात करें तो उन्होंने तीन बार अल्मोड़ा लोकसभा सीट से जीत हासिल की. जबकि 4 बार इस सीट पर वे चुनाव हारे हैं. इसके अलावा हरिद्वार लोकसभा सीट से उन्होंने जीत हासिल की. नैनीताल लोकसभा सीट पर हरीश रावत को हार का मुंह देखना पड़ा. विधानसभा सीट पर हरीश रावत ने धारचूला विधानसभा सीट पर उप चुनाव जीता. इसके बाद हरिद्वार ग्रामीण विधानसभा में चुनाव हारा. इसके साथ ही किच्छा विधानसभा सीट पर भी हरीश रावत ने चुनाव हारा.
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खड़ूंडी की हार से बीजेपी को झटका: भुवन चंद्र खड़ूंडी ने भी अपनी विधानसभा सीटों को बदला है. इसमें उन्हें सफलता भी हासिल हुई. पहले उन्होंने धुमाकोट विधानसभा सीट से जीत हासिल की. इसके बाद उन्होंने कोटद्वार सीट से किस्मत आजमाई. जहां से वे चुनाव हार गये. उनकी ये हार पार्टी को भी बहुत महंगी पड़ी. तब कांग्रेस ने राज्य में सरकार बनाई थी.
विस सीट बदलने के कारण: विधानसभा सीटों के आरक्षित होने या परिसीमन से उनका सामाजिक, जनसांख्यिक और क्षेत्रीय स्वरूप बदलने की वजह से पारंपरिक प्रत्याशी को दूसरे विधानसभा के लिए पलायन करना पड़ा. यही नहीं कई बार कई विधायकों ने अपने क्षेत्र में काम न करने के चलते दूसरी विधानसभाओं की ओर रुख किया. कई बार राजनीतिक दलों ने अपने नेताओं को सीट बदलने के लिए मजबूर किया.
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बीजेपी-कांग्रेस दोनों ने अपनाया सीट बदलने का फॉर्मूला: इसमें यशपाल आर्य, हरक सिंह रावत ,हरीश रावत ,बीसी खंडूरी , सतपाल महाराज , अमृता रावत , त्रिवेंद्र रावत , राजकुमार , प्रीतम सिंह पंवार ,किशोर उपाध्यय ,खजानदास, गणेश जोशी,रमेश पोखरियाल निशंक, हीरा सिंह बिष्ट ऐसे नेता हैं. खासकर उत्तराखंड की बात करें तो सीट बदलने का फार्मूला बीजेपी और कांग्रेस के नेताओं ने अपनाया है. ऐसा नहीं है कि सभी इस में कामयाब हुए हैं. उत्तराखंड कांग्रेस की प्रदेश महिला कांग्रेस अध्यक्ष और पूर्व विधायक सरिता आर्य के मुताबिक सीट बदलने की वजह साफ है कि नेता अपनी विधानसभा में न तो सक्रिय रहते हैं, न ही जनता के काम कर पाते हैं. यही वजह है कि वह उस सीट को छोड़ दूसरी सीट पर चुनाव लड़ने जाते हैं.
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अपने विधानसभा क्षेत्र को छोड़कर दूसरे विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ने पर कई दिग्गज खासकर पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत और पूर्व मुख्यमंत्री जनरल बीसी खंडूरी चुनाव हार का सामना कर चुके हैं. इसके साथ उत्तराखंड कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय भी अपनी सीट छोड़कर चुनाव हारे. नेताओं के अपनी विधानसभा सीट को बदलने के फार्मूले की वजह लोगों की नाराजगी और सत्ता विरोधी रुझान भी झेले. भाजपा भी इस बात को मानती है कि नेताओं को अपनी सीट नहीं बदलनी चाहिए.
बहरहाल, उत्तराखंड के चुनावी समर में सीट बदलने की परंपरा पुरानी है. अभी देखना होगा कि इस बार भी 2022 में होने वाले विधानसभा चुनावों में कौन नेता अपने विधानसभा क्षेत्र को छोड़कर दूसरे विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ता है.