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देहरादून में बनने वाली खुखरी बनी भारतीय सेना की शान, इसके वार से दुश्मनों का बचना नामुमकिन

भारतीय सेना के 4 रेजीमेंट्स युद्ध के मैदान में धूल चटाने के लिए खुखरी का इस्तेमाल करते हैं. गोरखा, कुमाऊं, गढ़वाल और असम राइफल्स गोला बारूद और असलाह कम पड़ने पर खुखरी का ही इस्तेमाल करते हैं. इसके एक वार से भारतीय सेना दुश्मनों को मौत की नींद सुला देते हैं. वहीं, इस खुखरी का निर्माण देहरादून में ब्रिटिश काल से होता आ रहा है. देहरादून में बनने वाले इस खुखरी का इस्तेमाल ना सिर्फ भारतीय सेना करते हैं, बल्कि कई देश की आर्मी भी युद्ध में इसका इस्तेमाल करते हैं.

Khukhri made in Dehradun
खुखरी बनी भारतीय सेना की शान
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Published : Nov 6, 2022, 5:51 PM IST

Updated : Nov 6, 2022, 10:39 PM IST

देहरादून: ब्रिटिश शासन काल से वर्तमान समय तक भारतीय सेना के चार रेजीमेंट (Four Regiments of the Indian Army) में जवान के पास आउट से लेकर युद्ध के मैदान तक अटूट हथियार के रूप में पहचान रखने वाली 'खुखरी' (वेपन) निर्माण का इतिहास देहरादून गढ़ी कैंट की लोहार गली (Dehradun Garhi Cantt Lohar Gali) हस्तकला से जुड़ा है. भारतीय सेना में गोरखा राइफल (Gurkha Rifle in Indian Army) से लेकर गढ़वाल और कुमाऊं राइफल्स और असम रेजीमेंट जैसे पलटन में खुखरी रखने की अनिवार्यता है.

देहरादून में बनता है खुखरी: यह एक ऐसी पहचान हैं, जिसको गार्ड ड्यूटी से लेकर जंग के मैदान तक उपयोग में लाया जाता हैं. सेना के चार रेजीमेंट में गौरव का प्रतीक कहलाने वाली खुखरी बनाने का कार्य पिछले 100 साल से देहरादून गढ़ी कैंट डाकरा बाजार से सटे लोहार गली के गोविंद हैडक्राफ्ट 5 दिनों पीढ़ियों के खानदानी कारीगरी से जुड़ा है.

देहरादून में बनने वाली खुखरी बनी भारतीय सेना की शान.

ब्रिटिशकाल से हो रहा खुखरी का इस्तेमाल: वर्ष 1920 अंग्रेजी हुकूमत के अधीन गोरखा रेजीमेंट को गोविंद के दादा मनवीर थापा ने अपने हस्तकला के हुनर से सेना को खुखरी वैपन सप्लाई करने का कार्य शुरू किया. 1976 में मनवीर थापा के देहांत के बाद उनके बेटे धनपति थापा ने यह कार्य संभाला और 1984 में अपने बेटे गोविंद को यह खानदानी काम सौंप दिया. तब से गोविंद अपने साथ-साथ अपने बेटे अरुण और पांचवी पीढ़ी में पौते शौर्य थापा को शामिल कर इस खानदानी हस्तकला कार्य से भारतीय सेना की सेवा कर रहे हैं. वर्तमान समय में गोविंद हैंड क्राफ्ट ऐतिहासिक खुखरी से लेकर सेना के तमाम मोमेंटो (स्टेचू), कई निशान चिन्ह वाले सम्मान और उपहार आइटम तैयार करते हैं. जिनका सेना में खूब डिमांड हैं.
ये भी पढ़ें: साइकिल से दिल्ली के आदित्य लोगों को दे रहे प्रदूषण मुक्त यात्रा का संदेश

खुखरी निर्माता गोविंद थापा से बातचीत: ईटीवी भारत से हस्तकला कारीगर गोविंद थापा ने बताया कि गोरखा राइफल से लेकर गढ़वाल, कुमाऊं और असम रेजीमेंट तक की ड्यूटी हथियार खुखरी से लेकर सैनिक सम्मान वाले तमाम आइटम तैयार करने में गर्व महसूस होता हैं. आज इस काम में उनको पहले के मुकाबले सैन्य अधिकारियों सम्मान के साथ सराहना मिलती है.

आमने-सामने की लड़ाई में कारगर खुखरी: पूर्व में जब युद्ध के दौरान भारतीय सेना के इन रेजीमेंट्स के पास गोला बारूद और असलाह कम पड़ गया था. तब इसी खुखरी के दम पर आमने-सामने की लड़ाई में गोरखा रेजीमेंट के जवानों ने दुश्मनों को मैदान छोड़ने को मजबूर कर दिया था. तभी से खुखरी का महत्व इन चार पहाड़ी सेनाओं के लिए गौरव बन गया. गोविंद थापा आज खुखरी से लेकर तरह-तरह के सैन्य सम्मान और उपहार बनाते हैं, जिसकी डिमांड काफी बढ़ गई है, लेकिन हाथ कारीगरों की कमी है. नई पीढ़ी के लोग इस मेहनत वाले काम से बचते है. यही वजह हैं कि काफी काम अब मशीनों से भी होता है.

खुखरी पर महंगाई का असर: पिछले 100 साल से खानदानी पेशे से जुड़े गोविंद बताते हैं कि समय के मुताबिक खुखरी बनाने में महंगाई का भी खासा असर पड़ा है. जो खुखरी 100 से 150 रुपए में कभी तैयार होती थी. वह अब ₹500 से शुरू होकर 6000 तक पहुंच गई है. हालांकि, क्वालिटी को देखते हुए जिन 4 पलटनों में डिमांड अनुसार खुखरी जाती है. वहां इस मेहनत के हिसाब से दाम मिलते हैं.

देश विदेश में खुखरी ने दिलाई पहचान: यही वजह है कि सैन्य भूमि से प्रसिद्ध उत्तराखंड को सेना के कई ऐतिहासिक हथियार और आइटम बनाने में के रूप में भी देश विदेश से पहचाना जाता है. देहरादून की लोहार गली आज देश दुनियां में हस्तकला के शानदार हुनर खुखरी बनाने के लिए खूब मशहूर हैं.

देहरादून: ब्रिटिश शासन काल से वर्तमान समय तक भारतीय सेना के चार रेजीमेंट (Four Regiments of the Indian Army) में जवान के पास आउट से लेकर युद्ध के मैदान तक अटूट हथियार के रूप में पहचान रखने वाली 'खुखरी' (वेपन) निर्माण का इतिहास देहरादून गढ़ी कैंट की लोहार गली (Dehradun Garhi Cantt Lohar Gali) हस्तकला से जुड़ा है. भारतीय सेना में गोरखा राइफल (Gurkha Rifle in Indian Army) से लेकर गढ़वाल और कुमाऊं राइफल्स और असम रेजीमेंट जैसे पलटन में खुखरी रखने की अनिवार्यता है.

देहरादून में बनता है खुखरी: यह एक ऐसी पहचान हैं, जिसको गार्ड ड्यूटी से लेकर जंग के मैदान तक उपयोग में लाया जाता हैं. सेना के चार रेजीमेंट में गौरव का प्रतीक कहलाने वाली खुखरी बनाने का कार्य पिछले 100 साल से देहरादून गढ़ी कैंट डाकरा बाजार से सटे लोहार गली के गोविंद हैडक्राफ्ट 5 दिनों पीढ़ियों के खानदानी कारीगरी से जुड़ा है.

देहरादून में बनने वाली खुखरी बनी भारतीय सेना की शान.

ब्रिटिशकाल से हो रहा खुखरी का इस्तेमाल: वर्ष 1920 अंग्रेजी हुकूमत के अधीन गोरखा रेजीमेंट को गोविंद के दादा मनवीर थापा ने अपने हस्तकला के हुनर से सेना को खुखरी वैपन सप्लाई करने का कार्य शुरू किया. 1976 में मनवीर थापा के देहांत के बाद उनके बेटे धनपति थापा ने यह कार्य संभाला और 1984 में अपने बेटे गोविंद को यह खानदानी काम सौंप दिया. तब से गोविंद अपने साथ-साथ अपने बेटे अरुण और पांचवी पीढ़ी में पौते शौर्य थापा को शामिल कर इस खानदानी हस्तकला कार्य से भारतीय सेना की सेवा कर रहे हैं. वर्तमान समय में गोविंद हैंड क्राफ्ट ऐतिहासिक खुखरी से लेकर सेना के तमाम मोमेंटो (स्टेचू), कई निशान चिन्ह वाले सम्मान और उपहार आइटम तैयार करते हैं. जिनका सेना में खूब डिमांड हैं.
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खुखरी निर्माता गोविंद थापा से बातचीत: ईटीवी भारत से हस्तकला कारीगर गोविंद थापा ने बताया कि गोरखा राइफल से लेकर गढ़वाल, कुमाऊं और असम रेजीमेंट तक की ड्यूटी हथियार खुखरी से लेकर सैनिक सम्मान वाले तमाम आइटम तैयार करने में गर्व महसूस होता हैं. आज इस काम में उनको पहले के मुकाबले सैन्य अधिकारियों सम्मान के साथ सराहना मिलती है.

आमने-सामने की लड़ाई में कारगर खुखरी: पूर्व में जब युद्ध के दौरान भारतीय सेना के इन रेजीमेंट्स के पास गोला बारूद और असलाह कम पड़ गया था. तब इसी खुखरी के दम पर आमने-सामने की लड़ाई में गोरखा रेजीमेंट के जवानों ने दुश्मनों को मैदान छोड़ने को मजबूर कर दिया था. तभी से खुखरी का महत्व इन चार पहाड़ी सेनाओं के लिए गौरव बन गया. गोविंद थापा आज खुखरी से लेकर तरह-तरह के सैन्य सम्मान और उपहार बनाते हैं, जिसकी डिमांड काफी बढ़ गई है, लेकिन हाथ कारीगरों की कमी है. नई पीढ़ी के लोग इस मेहनत वाले काम से बचते है. यही वजह हैं कि काफी काम अब मशीनों से भी होता है.

खुखरी पर महंगाई का असर: पिछले 100 साल से खानदानी पेशे से जुड़े गोविंद बताते हैं कि समय के मुताबिक खुखरी बनाने में महंगाई का भी खासा असर पड़ा है. जो खुखरी 100 से 150 रुपए में कभी तैयार होती थी. वह अब ₹500 से शुरू होकर 6000 तक पहुंच गई है. हालांकि, क्वालिटी को देखते हुए जिन 4 पलटनों में डिमांड अनुसार खुखरी जाती है. वहां इस मेहनत के हिसाब से दाम मिलते हैं.

देश विदेश में खुखरी ने दिलाई पहचान: यही वजह है कि सैन्य भूमि से प्रसिद्ध उत्तराखंड को सेना के कई ऐतिहासिक हथियार और आइटम बनाने में के रूप में भी देश विदेश से पहचाना जाता है. देहरादून की लोहार गली आज देश दुनियां में हस्तकला के शानदार हुनर खुखरी बनाने के लिए खूब मशहूर हैं.

Last Updated : Nov 6, 2022, 10:39 PM IST
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