ऋषिकेश: उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में शादी समारोह से लेकर अंतिम संस्कार, पूजा पाठ, पांडव नृत्य के अवसर पर बजाए जाने वाले ढोल दमाऊ वाद्य यंत्रों की आवाज तो आपने जरूर सुनीं होगी. जिसकी थाप पर लोक जमकर नृत्य करते दिखाई देते हैं. लेकिन सरकार की बेरूखी के कारण अब ढोल दमाऊ बजाने का हुनर रखने वाले कलाकारों के आगे रोजी-रोटी का संकट गहरा रहा है. यही कारण है कि अब ढोल दमाऊ बजाने वाले कलाकार इस पेशे से मुंह मोड़ रहे हैं.
अगर हम देवभूमि उत्तराखंड के वाद्य-यंत्रों की बात करें तो उनमें मुख्य है 'ढोल-दमाऊं, मशकबाजा'. यह वाद्य यंत्र पहाड़ी समाज की लोककला को संजोए हुए हैं. इस कला का जन्म से लेकर मृत्यु तक, घर से जंगल तक प्रत्येक संस्कार और सामाजिक गतिविधियों में इनका प्रयोग होता आ रहा है. इनकी थाप के बिना यहां का कोई भी शुभकार्य पूरा नहीं माना जाता है. इसलिए कहा जाता है कि पहाड़ों पर मनाए जाने वाले त्योहारों की शुरुआत ढोल-दमाऊं की धुन से ही होती है.
देवी-देवताओं का आह्ववान: ढोल-दमाऊ को प्रमुख वाद्य यंत्रों में इसलिए शामिल किया गया, क्योंकि इनके माध्यम से ही देवी-देवताओं का आह्ववान किया जाता है. दंतकथाओं के अनुसार ऐसा माना जाता है कि इनकी उत्पत्ति भगवान शिव के डमरू से हुई है, जिसे सर्वप्रथम भगवान शिव ने माता पार्वती को सुनाया था. वहां मौजूद एक गण ने इन्हें सुनकर याद कर लिया. माना जाता है तब से लेकर आज तक यह परंपरा पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है, जिनमें हर कार्यक्रम के लिए विशेष धुनों का प्रयोग किया जाता है.
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ढोल-दमाऊ वादक को कई नामों से भी जाना जाता है. वहीं प्रत्येक भारतीय महीने के प्रारम्भ में ढोल वादक गांवों के प्रत्येक घर में यह वाद्य यंत्र बजाते हैं, जिससे वह यह सूचना देते हैं कि भारतीय वर्ष का नया महीना प्रारम्भ हो गया है.
बैंड बाजा ने ली ढोल दमाऊ की जगह: आजकल की दुनिया आधुनिक होती जा रही है. शादी व पार्टी आदि में डीजे अथवा बैंड प्रयोग होने लगा है, लेकिन उत्तराखंड की गढ़वाली संस्कृति में आज भी गढ़वाली लोग ढोल-दमाऊ का ही प्रयोग करते हैं और इसके ताल का आनन्द लेकर नृत्य करते हैं. देवभूमि उत्तराखंड में करोड़ों देवी-देवताओं का निवास स्थान माना गया है. यहां, प्रचलित कथाओं में दमाऊ को भगवान शिव का और ढोल को ऊर्जा का स्वरूप माना जाता है. ऊर्जा के अंदर शक्ति विद्यमान में यानी ढोल और दमाऊ का रिश्ता शिव-शक्ति जैसा माना गया है.
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उत्तराखंड की पर्वतीय क्षेत्र की संस्कृति में विभिन्न अवसरों पर ताल और सुर में ढोल और दमाऊ का वादन किया जाता है. आज उत्तराखंड की पर्वतीय संस्कृति पर पाश्चात्य देशों की संस्कृति का खासा असर पड़ा है. इसलिए आधुनिकता के दौर में पहाड़ के ही अधिकतर लोग ढोल-दमाऊ को भूलते जा रहे हैं और नई पीढ़ी इसे बजाना नहीं चाहती है. ढोल-दमाऊ के हुनरबाज इस कला के क्षेत्र में रोजगार के अवसर न के बराबर होने की वजह से खासे परेशान हैं और इसलिए इन हुनरबाजों की अगली पीढ़ी ढोल-दमाऊ की कला को अपनाने को तैयार नहीं है.
ढोल दमाऊ का उत्तराखंड की संस्कृति से गहरा रिश्ता रहा है. पारंपरिक वेशभूषा में महिलाओं और पुरुषों के सजने के बाद अगर ढोल दमाऊ की थाप न मिले तो उनका श्रृंगार अधूरा कहा जाता है. आज भी उत्तराखंड के सुदूरवर्ती क्षेत्रों में होने वाले विवाह व अन्य कार्यक्रमों में ढोल दमाऊ की थाप सुनीं जा सकती है. हालांकि, धीरे-धीरे ढोल दमाऊ का काम करने वाले कलाकारों का इस पेशे से मोह भंग होता जा रहा है. आज सरकार को इस लोक संस्कृति के बचाए रखने के लिए और कलाकारों के उत्थान के लिए सकारात्मक कदम उठाने की जरूरत है.