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उत्तराखंड में बर्फबारी होने की संभावना बेहद कम, स्नोफॉल नहीं हुआ तो तेजी से पिघलेंगे ग्लेशियर

उत्तराखंड में बर्फबारी के लिहाज से यह सीजन तकरीबन ड्राई रहने वाला है. आमतौर पर इनदिनों पहाड़ी इलाके बर्फ से लकदक होते थे, लेकिन इस बार मौसम मेहरबान नजर नहीं आ रहा है. जिसका असर कई चीजों पर पड़ने वाला है. अगर ऐसे ही हालात अगर भविष्य में रहे तो पहले से पिघल रहे ग्लेशियर तेजी से पिघलेंगे. जिससे हिमालय के अस्तित्व पर खतरा मंडरा सकता है. आखिर क्या है इसके पीछे की असल वजह और आने वाले समय में क्या होगी स्थिति? पढ़िए खास रिपोर्ट...

Glacier melting in Uttarakhand
उत्तराखंड में बर्फबारी
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Published : Jan 9, 2023, 5:00 PM IST

Updated : Jan 9, 2023, 8:58 PM IST

उत्तराखंड में बर्फबारी होने की संभावना बेहद कम.

देहरादूनः उत्तराखंड में ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ उच्च हिमालयी क्षेत्रों में बर्फबारी न के बराबर होती नजर आ रही है. वर्तमान हालात ये हैं कि जहां जनवरी महीने की शुरुआत तक उच्च हिमालयी क्षेत्रों में 10 से 12 फीट तक बर्फ जम जाती थी, वहां वर्तमान समय में कुछ फीट बर्फ भी जमा नहीं हो पाई है. जिसके चलते ग्लेशियर की स्थिति जस की तस बनी हुई है, क्योंकि बर्फबारी न होने के चलते ग्लेशियर के पिघलने का सिलसिला लगातार जारी है. अगर ऐसा ही कुछ सालों तक सामान्य रूप से बर्फबारी नहीं होती है तो आने वाले समय में ग्लेशियर के पिघलने की रफ्तार तेज हो जाएगी. जिसे लेकर विशेषज्ञों ने आगाह किया है.

दरअसल, कुदरत सब कुछ बैलेंस करके चलती आई है, लेकिन वर्तमान समय में इंसानों की वजह से जलवायु परिवर्तन (Climate change) एक गंभीर समस्या बनती जा रही है. जिसके चलते मौसम चक्र में बदलाव देखा जा रहा है. पहले दिसंबर महीने तक प्रदेश के उच्च हिमालयी क्षेत्रों पर अच्छी खासी बर्फबारी देखी जाती थी, लेकिन इस बार जनवरी महीने का एक हफ्ता बीत जाने के बाद भी बर्फबारी के कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं. हालांकि, उत्तराखंड मौसम विभाग की मानें तो 12 जनवरी के बाद उच्च हिमालयी क्षेत्रों में हल्की-फुल्की बर्फबारी होने की आशंका जताई गई है. ऐसे में यह स्पष्ट है कि इस सीजन प्रदेश के उच्च हिमालयी क्षेत्रों पर बर्फबारी काफी कम ही रहने वाली है.

हर एक मौसम का अपना एक अलग महत्व है, क्योंकि शीतकाल के दौरान जब उच्च हिमालयी क्षेत्रों पर बर्फबारी होती है तो उसी बर्फ के पिघलने से नदियां, गदेरे के साथ ही जल स्रोत रिचार्ज होते हैं. लिहाजा, ग्लेशियर के पिघलने की प्रक्रिया काफी कम होती है, लेकिन जब बर्फबारी कम होती है तो ग्लेशियर के पिघलने का सिलसिला शुरू होता है. वहीं, वैज्ञानिकों की मानें तो जलवायु परिवर्तन होने की वजह से मौसम के चक्र में काफी बदलाव देखा जा रहा है. जिसके चलते जहां पहले दिसंबर महीने में ठीक ठाक बर्फबारी होती थी, वहां अभी तक अच्छी बर्फबारी देखने को नहीं मिली है.

हर सीजन विंटर रेन में दिख रहा है बदलावः मौसम विज्ञान केंद्र के निदेशक विक्रम सिंह ने ईटीवी भारत को बताया कि विंटर रेन में कमी देखने को मिल रही है. हालांकि, अक्टूबर के पहले हफ्ते में जब मानसून की रवानगी होती है, उस दौरान भी विंटर रेन थोड़ी बहुत देखने को मिलती है, लेकिन पोस्ट मानसून सीजन के बाद यानी अक्टूबर से लेकर दिसंबर तक बेहद कम बर्फबारी ही देखी जाती है. लिहाजा नवंबर, दिसंबर में होने वाली बर्फबारी में कमी का बदलाव हर साल देखा जाता रहा है, लेकिन इस साल बदलाव काफी ज्यादा देखा जा रहा है. यही वजह है कि इस सीजन नवंबर और दिसंबर में न के बराबर ही बर्फबारी देखी गई है.

जनवरी-फरवरी में बेहद कम बर्फबारी होने की संभावनाः जनवरी और फरवरी के दौरान विंटर रेन की एक्टिविटी में काफी ज्यादा बदलाव देखा जाता है. क्योंकि, जनवरी और फरवरी के दौरान काफी ज्यादा बर्फबारी होती है, लेकिन वर्तमान समय में मौसम जो संकेत दे रहा है उसके अनुसार जनवरी महीने में भी न के बराबर ही बर्फबारी होने की संभावना है. साथ ही फरवरी महीने में नार्मल बर्फबारी होने की संभावना है. विक्रम सिंह बताते हैं कि साल दर साल जो विंटर रेन में वेरिएशन होती रही है, उससे अलग इस साल यह स्थिति बनती हुई दिखाई दी है. यानी विंटर रेन में बदलाव काफी ज्यादा देखा जा रहा है. साथ ही कहा की क्लाइमेट चेंज की वजह से विंटर रेन में कमी देखी जा रही हैं.
ये भी पढ़ेंः उत्तराखंड में हिमालय के अस्तित्व पर मंडराया खतरा!, काले साए ने बढ़ाई वैज्ञानिकों की चिंता

नहीं हुई बर्फबारी तो फरवरी से ही जलने लगेंगे जंगलः वहीं, जियोलॉजिस्ट एसपी सती (Geologist SP Sati) ने ईटीवी भारत से बातचीत करते हुए कहा कि मौसम का यह नॉर्मल फिनोमिना है कि किसी साल ज्यादा बर्फबारी होती है तो किसी साल कम बर्फबारी. लेकिन इसे क्लाइमेट चेंज नहीं बल्कि क्लाइमेट वैरायबिलिटी (Climate variability) कहते हैं. ऐसा पहले से होता आ रहा है. ऐसे में इसके प्रभाव को मात्र एक साल में नहीं देखा जा सकता, बल्कि जब दशकों तक ऐसा होता रहता है, तब इसका प्रभाव पड़ता है. हालांकि, यह सच है कि इस साल विंटर रेन काफी कम हुई है और तापमान भी ज्यादा डाउन नहीं गया है. अगर ऐसी ही स्थिति रही तो फरवरी महीने से ही जंगलों में आग लगने का सिलसिला शुरू हो जाएगा.

एक साल बर्फ न पड़ने से ग्लेशियर पर नहीं पड़ेगा कोई फर्कः जियोलॉजिस्ट एसपी सती का कहना है कि हिमालय के ग्लेशियर की एक विचित्र स्थिति है, क्योंकि गर्मियों के समय होने वाली बर्फबारी से ही हिमालय के ग्लेशियर हेल्दी होते हैं और गर्मियों के दौरान ग्लेशियर ज्यादा पिघलते भी हैं. लिहाजा, शीतकाल के दौरान ग्लेशियर बेहद कम पिघलते हैं. क्योंकि इस दौरान ग्लेशियर का टेंपरेचर काफी कम होता है. लिहाजा गर्मियों में पड़ने वाला बर्फ स्टोर होता है और वही बर्फ पिघलता भी है. लिहाजा, किसी एक साल बर्फ न पड़ने से ग्लेशियर के पिघलने की गति पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा.

क्लाइमेट चेंज होने की वजह से कम हो रही है बर्फबारीः वहीं, वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी देहरादून (Wadia Institute of Himalayan Geology Dehradun) से रिटायर्ड हिमनद वैज्ञानिक डॉ डीपी डोभाल ने बताया कि पिछले कुछ सालों से अक्टूबर, नवंबर में काफी कम बर्फबारी हो रही है. जो एक ग्लेशियर के लिए एक खतरनाक पहलू है. हालांकि, ये क्लाइमेट चेंज होने की वजह से बर्फबारी कम हो रही है. साथ ही कहा कि इसके बाद जब दिसंबर या जनवरी में जो बर्फबारी होती है, वो टिकती नहीं है. यानी वो जल्दी मेल्ट हो जाती है. इतना ही नहीं, डॉ. डोभाल ने कहा कि क्लाइमेट चेंज होने की वजह से कई चीजों में बदलाव हो रहा है. हालांकि, बर्फबारी, ऑस्ट्रेलिया की ओर से प्रदेश में आती है, लेकिन वर्तमान समय में जलवायु परिवर्तन के चलते नहीं आ पा रही है.

इस बार अप्रैल महीने तक उच्च हिमालयी क्षेत्रों पर बर्फबारी की संभावनाः ऐसे में उम्मीद है कि अप्रैल महीने तक प्रदेश के उच्च हिमालयी क्षेत्रों पर बर्फबारी हो सकती है. मौसम साइकिल में जो बदलाव हुआ है, उसका हिमालय पर इंपैक्ट पड़ रहा है. डोभाल ने बताया कि अभी फिलहाल दिन में ही ग्लेशियर मेल्ट हो रहे हैं, क्योंकि जब बर्फबारी ज्यादा होगी तो ग्लेशियर मोटे होंगे, लेकिन जब ग्लेशियर पिघलेंगे तो ग्लेशियर में मूवमेंट ज्यादा होगी. वर्तमान समय में जो नदियों और गदेरे में पानी आ रहा है, वो ग्लेशियर के पिघलने से आ रहा है. क्योंकि वर्तमान समय में अभी ग्लेशियर पर बर्फ नहीं है. लिहाजा, टेंपरेचर बढ़ने की वजह से ग्लेशियर मेल्ट हो रहे हैं.

नहीं हुआ स्नोफॉल तो तेजी से पिघलेंगे ग्लेशियरः डॉ डीपी डोभाल ने कहा कि अगर ऐसे ही आगे स्नोफॉल नहीं हुआ तो आने वाले समय में ग्लेशियर के पिघलने का सिलसिला और तेज हो जाएगा. क्योंकि, ग्लेशियर के पिघलने से ग्लेशियर का कूलिंग इंपैक्ट कम हो जाएगा. ऐसे ही अगले कुछ सालों तक चलता रहा तो ग्लेशियर के अस्तित्व पर भी खतरा मंडराने लग जाएगा. जिसे नदियां, गदेरे भी सूखने लग जाएगी. लिहाजा, कुल मिलाकर क्लाइमेट चेंज होने की वजह से ही यह सभी स्थितियां उत्पन्न हो रही है. क्योंकि, क्लाइमेट चेंज होने की वजह से बर्फबारी कम हो रही है. जिससे ग्लेशियर मोटे होने के बजाय मेल्ट हो रहे हैं.
ये भी पढ़ेंः पिछले 40 सालों में 700 मीटर पीछे खिसका पिंडारी ग्लेशियर, बुग्यालों में भूस्खलन ने बढ़ाई चिंता

उत्तराखंड में बर्फबारी होने की संभावना बेहद कम.

देहरादूनः उत्तराखंड में ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ उच्च हिमालयी क्षेत्रों में बर्फबारी न के बराबर होती नजर आ रही है. वर्तमान हालात ये हैं कि जहां जनवरी महीने की शुरुआत तक उच्च हिमालयी क्षेत्रों में 10 से 12 फीट तक बर्फ जम जाती थी, वहां वर्तमान समय में कुछ फीट बर्फ भी जमा नहीं हो पाई है. जिसके चलते ग्लेशियर की स्थिति जस की तस बनी हुई है, क्योंकि बर्फबारी न होने के चलते ग्लेशियर के पिघलने का सिलसिला लगातार जारी है. अगर ऐसा ही कुछ सालों तक सामान्य रूप से बर्फबारी नहीं होती है तो आने वाले समय में ग्लेशियर के पिघलने की रफ्तार तेज हो जाएगी. जिसे लेकर विशेषज्ञों ने आगाह किया है.

दरअसल, कुदरत सब कुछ बैलेंस करके चलती आई है, लेकिन वर्तमान समय में इंसानों की वजह से जलवायु परिवर्तन (Climate change) एक गंभीर समस्या बनती जा रही है. जिसके चलते मौसम चक्र में बदलाव देखा जा रहा है. पहले दिसंबर महीने तक प्रदेश के उच्च हिमालयी क्षेत्रों पर अच्छी खासी बर्फबारी देखी जाती थी, लेकिन इस बार जनवरी महीने का एक हफ्ता बीत जाने के बाद भी बर्फबारी के कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं. हालांकि, उत्तराखंड मौसम विभाग की मानें तो 12 जनवरी के बाद उच्च हिमालयी क्षेत्रों में हल्की-फुल्की बर्फबारी होने की आशंका जताई गई है. ऐसे में यह स्पष्ट है कि इस सीजन प्रदेश के उच्च हिमालयी क्षेत्रों पर बर्फबारी काफी कम ही रहने वाली है.

हर एक मौसम का अपना एक अलग महत्व है, क्योंकि शीतकाल के दौरान जब उच्च हिमालयी क्षेत्रों पर बर्फबारी होती है तो उसी बर्फ के पिघलने से नदियां, गदेरे के साथ ही जल स्रोत रिचार्ज होते हैं. लिहाजा, ग्लेशियर के पिघलने की प्रक्रिया काफी कम होती है, लेकिन जब बर्फबारी कम होती है तो ग्लेशियर के पिघलने का सिलसिला शुरू होता है. वहीं, वैज्ञानिकों की मानें तो जलवायु परिवर्तन होने की वजह से मौसम के चक्र में काफी बदलाव देखा जा रहा है. जिसके चलते जहां पहले दिसंबर महीने में ठीक ठाक बर्फबारी होती थी, वहां अभी तक अच्छी बर्फबारी देखने को नहीं मिली है.

हर सीजन विंटर रेन में दिख रहा है बदलावः मौसम विज्ञान केंद्र के निदेशक विक्रम सिंह ने ईटीवी भारत को बताया कि विंटर रेन में कमी देखने को मिल रही है. हालांकि, अक्टूबर के पहले हफ्ते में जब मानसून की रवानगी होती है, उस दौरान भी विंटर रेन थोड़ी बहुत देखने को मिलती है, लेकिन पोस्ट मानसून सीजन के बाद यानी अक्टूबर से लेकर दिसंबर तक बेहद कम बर्फबारी ही देखी जाती है. लिहाजा नवंबर, दिसंबर में होने वाली बर्फबारी में कमी का बदलाव हर साल देखा जाता रहा है, लेकिन इस साल बदलाव काफी ज्यादा देखा जा रहा है. यही वजह है कि इस सीजन नवंबर और दिसंबर में न के बराबर ही बर्फबारी देखी गई है.

जनवरी-फरवरी में बेहद कम बर्फबारी होने की संभावनाः जनवरी और फरवरी के दौरान विंटर रेन की एक्टिविटी में काफी ज्यादा बदलाव देखा जाता है. क्योंकि, जनवरी और फरवरी के दौरान काफी ज्यादा बर्फबारी होती है, लेकिन वर्तमान समय में मौसम जो संकेत दे रहा है उसके अनुसार जनवरी महीने में भी न के बराबर ही बर्फबारी होने की संभावना है. साथ ही फरवरी महीने में नार्मल बर्फबारी होने की संभावना है. विक्रम सिंह बताते हैं कि साल दर साल जो विंटर रेन में वेरिएशन होती रही है, उससे अलग इस साल यह स्थिति बनती हुई दिखाई दी है. यानी विंटर रेन में बदलाव काफी ज्यादा देखा जा रहा है. साथ ही कहा की क्लाइमेट चेंज की वजह से विंटर रेन में कमी देखी जा रही हैं.
ये भी पढ़ेंः उत्तराखंड में हिमालय के अस्तित्व पर मंडराया खतरा!, काले साए ने बढ़ाई वैज्ञानिकों की चिंता

नहीं हुई बर्फबारी तो फरवरी से ही जलने लगेंगे जंगलः वहीं, जियोलॉजिस्ट एसपी सती (Geologist SP Sati) ने ईटीवी भारत से बातचीत करते हुए कहा कि मौसम का यह नॉर्मल फिनोमिना है कि किसी साल ज्यादा बर्फबारी होती है तो किसी साल कम बर्फबारी. लेकिन इसे क्लाइमेट चेंज नहीं बल्कि क्लाइमेट वैरायबिलिटी (Climate variability) कहते हैं. ऐसा पहले से होता आ रहा है. ऐसे में इसके प्रभाव को मात्र एक साल में नहीं देखा जा सकता, बल्कि जब दशकों तक ऐसा होता रहता है, तब इसका प्रभाव पड़ता है. हालांकि, यह सच है कि इस साल विंटर रेन काफी कम हुई है और तापमान भी ज्यादा डाउन नहीं गया है. अगर ऐसी ही स्थिति रही तो फरवरी महीने से ही जंगलों में आग लगने का सिलसिला शुरू हो जाएगा.

एक साल बर्फ न पड़ने से ग्लेशियर पर नहीं पड़ेगा कोई फर्कः जियोलॉजिस्ट एसपी सती का कहना है कि हिमालय के ग्लेशियर की एक विचित्र स्थिति है, क्योंकि गर्मियों के समय होने वाली बर्फबारी से ही हिमालय के ग्लेशियर हेल्दी होते हैं और गर्मियों के दौरान ग्लेशियर ज्यादा पिघलते भी हैं. लिहाजा, शीतकाल के दौरान ग्लेशियर बेहद कम पिघलते हैं. क्योंकि इस दौरान ग्लेशियर का टेंपरेचर काफी कम होता है. लिहाजा गर्मियों में पड़ने वाला बर्फ स्टोर होता है और वही बर्फ पिघलता भी है. लिहाजा, किसी एक साल बर्फ न पड़ने से ग्लेशियर के पिघलने की गति पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा.

क्लाइमेट चेंज होने की वजह से कम हो रही है बर्फबारीः वहीं, वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी देहरादून (Wadia Institute of Himalayan Geology Dehradun) से रिटायर्ड हिमनद वैज्ञानिक डॉ डीपी डोभाल ने बताया कि पिछले कुछ सालों से अक्टूबर, नवंबर में काफी कम बर्फबारी हो रही है. जो एक ग्लेशियर के लिए एक खतरनाक पहलू है. हालांकि, ये क्लाइमेट चेंज होने की वजह से बर्फबारी कम हो रही है. साथ ही कहा कि इसके बाद जब दिसंबर या जनवरी में जो बर्फबारी होती है, वो टिकती नहीं है. यानी वो जल्दी मेल्ट हो जाती है. इतना ही नहीं, डॉ. डोभाल ने कहा कि क्लाइमेट चेंज होने की वजह से कई चीजों में बदलाव हो रहा है. हालांकि, बर्फबारी, ऑस्ट्रेलिया की ओर से प्रदेश में आती है, लेकिन वर्तमान समय में जलवायु परिवर्तन के चलते नहीं आ पा रही है.

इस बार अप्रैल महीने तक उच्च हिमालयी क्षेत्रों पर बर्फबारी की संभावनाः ऐसे में उम्मीद है कि अप्रैल महीने तक प्रदेश के उच्च हिमालयी क्षेत्रों पर बर्फबारी हो सकती है. मौसम साइकिल में जो बदलाव हुआ है, उसका हिमालय पर इंपैक्ट पड़ रहा है. डोभाल ने बताया कि अभी फिलहाल दिन में ही ग्लेशियर मेल्ट हो रहे हैं, क्योंकि जब बर्फबारी ज्यादा होगी तो ग्लेशियर मोटे होंगे, लेकिन जब ग्लेशियर पिघलेंगे तो ग्लेशियर में मूवमेंट ज्यादा होगी. वर्तमान समय में जो नदियों और गदेरे में पानी आ रहा है, वो ग्लेशियर के पिघलने से आ रहा है. क्योंकि वर्तमान समय में अभी ग्लेशियर पर बर्फ नहीं है. लिहाजा, टेंपरेचर बढ़ने की वजह से ग्लेशियर मेल्ट हो रहे हैं.

नहीं हुआ स्नोफॉल तो तेजी से पिघलेंगे ग्लेशियरः डॉ डीपी डोभाल ने कहा कि अगर ऐसे ही आगे स्नोफॉल नहीं हुआ तो आने वाले समय में ग्लेशियर के पिघलने का सिलसिला और तेज हो जाएगा. क्योंकि, ग्लेशियर के पिघलने से ग्लेशियर का कूलिंग इंपैक्ट कम हो जाएगा. ऐसे ही अगले कुछ सालों तक चलता रहा तो ग्लेशियर के अस्तित्व पर भी खतरा मंडराने लग जाएगा. जिसे नदियां, गदेरे भी सूखने लग जाएगी. लिहाजा, कुल मिलाकर क्लाइमेट चेंज होने की वजह से ही यह सभी स्थितियां उत्पन्न हो रही है. क्योंकि, क्लाइमेट चेंज होने की वजह से बर्फबारी कम हो रही है. जिससे ग्लेशियर मोटे होने के बजाय मेल्ट हो रहे हैं.
ये भी पढ़ेंः पिछले 40 सालों में 700 मीटर पीछे खिसका पिंडारी ग्लेशियर, बुग्यालों में भूस्खलन ने बढ़ाई चिंता

Last Updated : Jan 9, 2023, 8:58 PM IST
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