देहरादून: यूं तो उत्तराखंड राज्य बनने के बाद से ही छोटी-छोटी प्रशासनिक इकाइओं के गठन की मांग समय-समय पर उठती रही है. बावजूद इसके 19 साल का लम्बा समय बीत जाने के बाद भी धरातल पर कोई काम नहीं हो पाया. तो क्या मान लिया जाये कि विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले इस पहाड़ी प्रदेश के नए जिलों के गठन का मामला सियासत की भेंट चढ़ गया है या फिर बीजेपी सरकार इसको अमली जमा पहनाकर एक एतिहासिक मिसाल कायम करेगी. आखिर क्या है प्रदेश में नए जिले बनाये जाने की वास्तविक तस्वीर?
नए जिले के गठन की मांग के पीछे की मुख्य वजह यह है कि प्रदेश के 10 पर्वतीय जिलों में विकास और मूलभूत जरूरतों की अलग-अलग मांग रही है. दरअसल सूबे में कोटद्वार सहित रानीखेत, प्रतापनगर, नरेन्द्र नगर, चकराता, डीडीहाट, खटीमा, रुड़की और पुरोला ऐसे क्षेत्र हैं, जिन्हें जिला बनाये जाने की मांग की जा रही है. ऐसा हम नहीं कह रहे हैं, बल्कि कई सामाजिक संगठनों के साथ ही राजनीतिक दलों ने भी इस आवाज को बुलंद किया है.
हालांकि, तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल "निशंक" के शासनकाल में 4 जिले बनाये जाने की घोषणा तक कर दी गयी थी, जिसके बाद राज्य में कांग्रेस की सरकार आते ही इस मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया था. तो वहीं, हरीश रावत के कार्यकाल में एक बार फिर 11 नए जिले बनाने की कवायद शुरू कर एक सियासी दांव खेला गया और करीब नए 9 जिलों को बनाने का खाका भी तैयार कर लिया गया था. अब राज्य की वर्तमान की बीजेपी सरकार नए जिलों के गठन को लेकर चिंतन-मनन करने की बात कह रही है. तो वहीं, कांग्रेस भी इस मांग को वाजिब मानते हुए सही समय पर फैसला लिए की बात कह रही है.
करोड़ों का अतिरिक्त भार बढ़ेगा
अगर नए जिले बनाए जाते हैं तो उसमें जिलाधिकारी, कप्तान साथ ही इनका पूरा तंत्र और ऑफिस, गाड़ी समेत तमाम खर्चे का व्यय बढ़ जाएगा. यही नहीं जिलास्तर के सभी विभागों में पद भी सृजित किये जाएंगे. जिसके बाद उनके कार्यालय समेत अन्य खर्चे का अतिरिक्त भार सरकार को झेलना पड़ेगा. अगर वर्तमान राज्य की हालात देखें तो सरकारी कर्मचारियों को वेतन देने के लिए बाजार से खर्च उठाना पड़ रहा है. अगर कर्ज लेकर घी पीने जैसी नीति रही तो यह भविष्य में नुकसानदेह भी साबित हो सकती है. लिहाजा, उम्मीद की जानी चाहिए कि कल्याणकारी सरकार इसकी वायबिलिटी जरूर देखेगी.
राज्य हित में होगा फैसला- भसीन
बीजेपी मीडिया प्रभारी देवेद्र भसीन का कहना है कि उत्तराखंड राज्य में नए जिले बनाना एक गहन चिंतन का विषय रहा है, क्योंकि इस पर्वतीय राज्य में अभी 13 जिले हैं. अगर राज्य में जिलों की संख्या बढ़ती है तो प्रदेश सरकार पर आर्थिक व्यय भार भी बढ़ेगा. ऐसे में अगर राज्य सरकार नए जिले बनाने के मामले को गंभीरता से लेती है तो आर्थिक स्थिति को भी ध्यान में रखना पड़ेगा कि क्या राज्य सरकार इस व्यय को वहन कर पाएगी ? उन्होंने कहा कि क्या नए जिले के गठन का कोई औचित्य होगा ? इन विषयों पर सरकार और संगठन में चर्चा होती रही है. लिहाजा, राज्य सरकार मंथन करने के बाद ही नए जिले गठन पर निर्णय लेगी और जो भी निर्णय लिया जाएगा वह प्रदेश के हित में होगा.
9 जिलों का खाका तैयार- हरदा
नए जिलों के गठन के मामले पर पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत की मानें तो चार नहीं बल्कि ग्यारह जिलों की जरूरत है. हरीश रावत ने बताया कि उन्होंने अपने कार्यकाल में 9 नए जिले बनाने का खाका तैयार कर दिया था, लेकिन कुछ जगह विवाद होने के चलते इस मामले को बेहतर समय के लिए रोक दिया था. हरीश रावत कार्यकाल में नए जिले बनाने को लेकर राज्य के कई तहसीलों और उप-तहसीलों के तादात में भी इजाफा भी किया गया था. अभी भी 9 नए जिलों का ढांचा पूरी तरह तैयार है, वर्तमान सरकार जब भी चाहे जिले बढ़ा सकती है.
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हरीश रावत ने प्रदेश सरकार पर शायराना अंदाज में तंज कसते हुए कहा कि उड़ान हौसलों से होती है. संसाधनों से पैसा कहीं पहले हो तब जाकर काम नहीं होता, बल्कि अगर सही सोच हो तो संसाधन अपने आप ही जुट जाते हैं. उन्होंने कहा कि प्रदेश में छोटी इकाइयां होनी चाहिए, क्योंकि छोटे राज्य में छोटी इकाइयां डेवलपमेंट को गतिशील बनाती हैं.
जब पृथक प्रशासनिक इकाई बनेगी तो वह राजस्व से जुड़ेगी और खर्चे भी बढ़ेंगे. ऐसे में देखना होगा कि जब अलग से जिले बनाए जाएंगे, तो क्या उससे राजस्व भी बढ़ पाएंगा या नहीं. लिहाजा जो 4 जिले बनाने की मांग उठी थी. पिछली बीजेपी सरकार में यह मामला राजस्व परिषद भी को सौंप दिया गया था कि इस मामले का परीक्षण कर लिया जाए कि क्या प्रदेश में वास्तव में छोटी प्रशासनिक इकाई के गठन की जरूरत है लेकिन इस मामले के मौजूदा हालात ठंडे बस्ते में नजर आ रहा हैं.