ETV Bharat / state

ग्लेशियर के पास पहुंचा ब्लैक कार्बन, स्पेशल रिपोर्ट में जानिए हिमालयन इको सिस्टम को खतरा

वाडिया के वैज्ञानिकों की ताजा रिसर्च के अनुसार, ब्लैक कार्बन की वजह से ग्लेशियर रेखा पीछे की ओर खिसक रही है. क्या है ब्लैक कार्बन और इससे ग्लेशियर को किस तरह नुकसान हो रहा है. साथ ही हम ये भी जानेंगे कि इसे नियंत्रित करने का उपाय क्या है, इस स्पेशल रिपोर्ट में.

black-carbon
black-carbon
author img

By

Published : Feb 26, 2021, 9:07 PM IST

देहरादूनः दुनिया भर में क्लाइमेट चेंज एक गंभीर समस्या बनती जा रही है. पर्यावरण में हो रहे इस बदलाव को लेकर वैज्ञानिक लगातार अपना तर्क दे रहे हैं. बावजूद इसके क्लाइमेट चेंज को रोकने के लिए कोई भी पहल कारागार साबित नहीं हो पाई है. वहीं, क्लाइमेट चेंज होने की वजह में ग्रीन हाउस गैसों के बाद ब्लैक कार्बन बड़ी भूमिका निभा रहा है. जिससे न सिर्फ जलवायु परिवर्तन की समस्या उत्पन्न हो रही है, बल्कि पर्वतीय क्षेत्रों में पाए जाने वाली जड़ी-बूटियों और वनस्पतियों को भी नुकसान हो रहा है. इसके साथ ही इसका सीधा असर ग्लेशियर पर भी पड़ रहा है.

ग्लेशियर के पास पहुंचा ब्लैक कार्बन

हिमालयी क्षेत्रों में मौजूद ग्लेशियर मानव जीवन समेत जीव जंतुओं के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है. क्योंकि, यह ग्लेशियर एक तरह से रिजर्व वाटर है, जो नदियों को जीवित रखने में अहम भूमिका निभाते हैं. हालांकि, ग्लेशियर का पिघलना और ग्लेशियर का बढ़ना एक नेचुरल प्रक्रिया है. लेकिन इससे अलग ग्लेशियरों के पिघलने के भी कई कारण हैं. जिसमें मुख्य वजह क्लाइमेंट चेंज है. वहीं, वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी द्वारा की रिसर्च के अनुसार, ब्लैक कार्बन की वजह से ग्लेशियर पीछे की ओर खिसक रहे हैं, जो एक बहुत गंभीर समस्या बन रही है.

सबसे पहले जानतें है ब्लैक कार्बन

black-carbon
ब्लैक कार्बन क्या है.

पढ़ेंः सर्दियों में ग्लेशियर फटना खतरनाक संकेत, तत्काल अध्ययन की आवश्यकता


ब्लैक कार्बन का ग्लेशियर पर असर

black-carbon
ग्लेशियरों पर ब्लैक कार्बन का असर.


ब्लैक कार्बन की वजह से बीमारियां

black-carbon
ब्लैक कार्बन से बीमारियों का खतरा.

ब्लैक कार्बन और इसके सह-प्रदूषक सूक्ष्म कणिकीय पदार्थ (PM2.5) वायु प्रदूषण के प्रमुख घटक हैं. यह न सिर्फ ग्लेशियर, बर्फ, वनस्पति समेत जड़ी-बूटियों को प्रभावित करता है, बल्कि किसी ना किसी रूप में मानव जीवन के स्वास्थ्य पर भी बड़ा असर डालता है. ब्लैक कार्बन की वजह से हृदय और फेफड़ों के रोग के साथ ही स्ट्रोक, हार्टअटैक, सांस संबंधी समस्या के साथ ही तमाम बीमारी होने के आसार रहते हैं. यानी कुल मिलाकर देखें तो अगर ब्लैक कार्बन मानव शरीर के अंदर जाता है तो वह कई तरह की बीमारियां उत्पन्न कर सकता है.

ब्लैक कार्बन को नियंत्रित करने के उपाय

मुख्य रूप से देखें तो ब्लैक कार्बन लकड़ी जलाने, जंगलों में आग लगने, इंडस्ट्री से निकलने वाला धुंआ, ईट भट्ठों, खेतों में पराली जलाने, कूड़ा करकट को जलाने, वाहनों से निकलने वाला धुंआ आदि से उत्पन्न होता है. ऐसे में खाना बनाने के लिए लकड़ियों की जगह बॉयोमास स्टोव, एलपीजी का इस्तेमाल करना चाहिए. इसके अतिरिक्त उद्योगों में सॉफ्ट ईंट भट्टों का प्रयोग किया जाना चाहिए. कार्बन उत्सर्जन मुक्त बसों और ट्रकों को भी अनुमति देनी चाहिए. खेतों में पराली जलाए जाने की परंपरा पर प्रतिबंध लगाना जरूरी है. नगरपालिका द्वारा अवशिष्ट को खुले में जलाए जाने पर प्रतिबंध लगाना भी आवश्यक है. जंगलों में आग लगने की घटना को रोकने के साथ ही वैज्ञानिकों द्वारा समय-समय पर तमाम सुझाव भी दिए जाते रहे हैं, जिन्हें मुख्य रूप से पालन करने की आवश्यकता है.

black-carbon
ब्लैक कार्बन है मोस्ट इंर्पोटेंट एंथ्रोजेनिक एजेंट.
मोस्ट इंंपोर्टेंट एंथ्रोजेनिक एजेंट है ब्लैक कार्बन

ज्यादा जानकारी देते हुए वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिक डॉ. पीएस नेगी ने बताया कि ब्लैक कार्बन वातावरण के तापमान को बढ़ाता है. क्योंकि ब्लैक कार्बन सूर्य की ऊष्मा को अवशोषित कर लेता है. जिससे आसपास के वातावरण के तापमान में बढ़ोत्तरी होती है. पूरे विश्व में जलवायु परिवर्तन करने में सेकंड मोस्ट इंपोर्टेंट एंथ्रोजेनिक एजेंट है. हालांकि, जलवायु परिवर्तन करने में ग्रीन हाउस गैस पहले नंबर पर आती है. वातावरण गर्म होने की वजह से हिमालयन ईको सिस्टम पर सीधा असर पड़ता है. वातावरण का तापमान बढ़ने के कई अन्य वजह भी हैं, लेकिन मुख्य वजह ब्लैक कार्बन ही है. हिमालयन ईको सिस्टम प्रभावित होने से हिमालयी क्षेत्रों में पाए जाने वाले पेड़-पौधों के साथ ही बर्फ और ग्लेशियर सीधे तौर से प्रभावित हो रहे हैं.

पढ़ेंः हिमालय में यहां दिखा दुर्लभ स्नो लेपर्ड और भूरा भालू


हिमालयी क्षेत्रों तक पहुंचा ब्लैक कार्बन

वैज्ञानिक पीएस नेगी ने बताया कि वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी ने पहली बार हिमालयी क्षेत्रों में ब्लैक कार्बन की स्थिति को जानने के लिए गंगोत्री ग्लेशियर के पास दो उपकरण लगाए. पहला भोजवासा और दूसरा चीड़वासा में मॉनीटरिंग स्टेशनों में स्थापित किया गया. हालांकि इससे पहले ग्लेशियर के आसपास ब्लैक कार्बन का क्या कंसंट्रेशन है, किसी को पता नहीं था. ग्लेशियर के समीप उपकरण स्थापित करने के बाद यह पता चला कि ग्लेशियर के समीप तक ब्लैक कार्बन पहुंच चुका है. जिसमें 0.01 माइक्रोग्राम से लेकर 4.62 माइक्रोग्राम तक वेरिएशन पाया गया है. हालांकि, जो इंस्ट्रूमेंट लगाए गए हैं वो वातावरण से सैंपल कलेक्ट कर वातावरण में मौजूद ब्लैक कार्बन की स्थिति को बताते हैं.

ईको सिस्टम हो रहा प्रभावित

पीएस नेगी ने बताया कि गंगोत्री ग्लेशियर के पास स्थापित किए गए उपकरण की रिपोर्ट दो बार ही कलेक्ट की जा सकती है. यही वजह है कि वाडिया के वैज्ञानिक साल में दो बार अक्टूबर और मई-जून में रिपोर्ट कलेक्ट करने जाते हैं. क्योंकि, इससे पहले और बाद में पूरा क्षेत्र बर्फ से ढका रहता है. जिस वजह से वहां जाना नामुमकिन है. साथ ही बताया कि हाल ही में जो रिपोर्ट मिली है, उसके अनुसार 0.01 माइक्रोग्राम से लेकर 4.62 माइक्रोग्राम तक वेरिएशन पाया गया है. लेकिन उसका कितना प्रभाव पड़ रहा है यह एक शोध का विषय है. लेकिन यह निश्चित है कि ग्लेशियर के पास ब्लैक कार्बन मौजूद है. जिस वजह से वातावरण गर्म हो रहा है. इस वजह से ईको सिस्टम पर सीधा असर पड़ रहा है.

वातावरण में 7 दिन तक सक्रिय रहता है ब्लैक कार्बन

वैज्ञानिक पीएस नेगी ने बताया कि ब्लैक कार्बन एक पार्टिकुलेट मैटर है. जिस वजह से पेड़-पौधे इसे अवशोषित नहीं कर पाते हैं. लेकिन ब्लैक कार्बन की सबसे बड़ी बात यह है कि यह वातावरण में एक सप्ताह तक सक्रिय रहता है. इसके बाद वह फिर प्रिस्पिटेट (नष्ट) हो जाता है. लेकिन विश्व के अन्य क्षेत्रों और देश के तमाम जगहों से ब्लैक कार्बन हवा के माध्यम से उड़कर हिमालय क्षेत्र में पहुंच जाता है. यही नहीं, जब मानसून 'अरेबियन सी' और 'वे ऑफ बंगाल' से आता है तो उसके साथ भी ब्लैक कार्बन के कुछ पार्टिकुलेट मैटर भी आ जाते हैं, जो फिर अपना प्रभाव डालता है. लेकिन अगर ब्लैक कार्बन लिविंग कंडीशन में किसी बर्फ या फिर ग्लेशियर के अंदर दब जाता है तो वह लंबे समय तक लिविंग कंडीशन में ही रहता है. फिर ब्लैक कार्बन आसपास के वातावरण को गर्म करना शुरू कर देता है, जिससे बर्फ और ग्लेशियर के पिघलने की प्रक्रिया तेज हो जाती है.

देहरादूनः दुनिया भर में क्लाइमेट चेंज एक गंभीर समस्या बनती जा रही है. पर्यावरण में हो रहे इस बदलाव को लेकर वैज्ञानिक लगातार अपना तर्क दे रहे हैं. बावजूद इसके क्लाइमेट चेंज को रोकने के लिए कोई भी पहल कारागार साबित नहीं हो पाई है. वहीं, क्लाइमेट चेंज होने की वजह में ग्रीन हाउस गैसों के बाद ब्लैक कार्बन बड़ी भूमिका निभा रहा है. जिससे न सिर्फ जलवायु परिवर्तन की समस्या उत्पन्न हो रही है, बल्कि पर्वतीय क्षेत्रों में पाए जाने वाली जड़ी-बूटियों और वनस्पतियों को भी नुकसान हो रहा है. इसके साथ ही इसका सीधा असर ग्लेशियर पर भी पड़ रहा है.

ग्लेशियर के पास पहुंचा ब्लैक कार्बन

हिमालयी क्षेत्रों में मौजूद ग्लेशियर मानव जीवन समेत जीव जंतुओं के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है. क्योंकि, यह ग्लेशियर एक तरह से रिजर्व वाटर है, जो नदियों को जीवित रखने में अहम भूमिका निभाते हैं. हालांकि, ग्लेशियर का पिघलना और ग्लेशियर का बढ़ना एक नेचुरल प्रक्रिया है. लेकिन इससे अलग ग्लेशियरों के पिघलने के भी कई कारण हैं. जिसमें मुख्य वजह क्लाइमेंट चेंज है. वहीं, वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी द्वारा की रिसर्च के अनुसार, ब्लैक कार्बन की वजह से ग्लेशियर पीछे की ओर खिसक रहे हैं, जो एक बहुत गंभीर समस्या बन रही है.

सबसे पहले जानतें है ब्लैक कार्बन

black-carbon
ब्लैक कार्बन क्या है.

पढ़ेंः सर्दियों में ग्लेशियर फटना खतरनाक संकेत, तत्काल अध्ययन की आवश्यकता


ब्लैक कार्बन का ग्लेशियर पर असर

black-carbon
ग्लेशियरों पर ब्लैक कार्बन का असर.


ब्लैक कार्बन की वजह से बीमारियां

black-carbon
ब्लैक कार्बन से बीमारियों का खतरा.

ब्लैक कार्बन और इसके सह-प्रदूषक सूक्ष्म कणिकीय पदार्थ (PM2.5) वायु प्रदूषण के प्रमुख घटक हैं. यह न सिर्फ ग्लेशियर, बर्फ, वनस्पति समेत जड़ी-बूटियों को प्रभावित करता है, बल्कि किसी ना किसी रूप में मानव जीवन के स्वास्थ्य पर भी बड़ा असर डालता है. ब्लैक कार्बन की वजह से हृदय और फेफड़ों के रोग के साथ ही स्ट्रोक, हार्टअटैक, सांस संबंधी समस्या के साथ ही तमाम बीमारी होने के आसार रहते हैं. यानी कुल मिलाकर देखें तो अगर ब्लैक कार्बन मानव शरीर के अंदर जाता है तो वह कई तरह की बीमारियां उत्पन्न कर सकता है.

ब्लैक कार्बन को नियंत्रित करने के उपाय

मुख्य रूप से देखें तो ब्लैक कार्बन लकड़ी जलाने, जंगलों में आग लगने, इंडस्ट्री से निकलने वाला धुंआ, ईट भट्ठों, खेतों में पराली जलाने, कूड़ा करकट को जलाने, वाहनों से निकलने वाला धुंआ आदि से उत्पन्न होता है. ऐसे में खाना बनाने के लिए लकड़ियों की जगह बॉयोमास स्टोव, एलपीजी का इस्तेमाल करना चाहिए. इसके अतिरिक्त उद्योगों में सॉफ्ट ईंट भट्टों का प्रयोग किया जाना चाहिए. कार्बन उत्सर्जन मुक्त बसों और ट्रकों को भी अनुमति देनी चाहिए. खेतों में पराली जलाए जाने की परंपरा पर प्रतिबंध लगाना जरूरी है. नगरपालिका द्वारा अवशिष्ट को खुले में जलाए जाने पर प्रतिबंध लगाना भी आवश्यक है. जंगलों में आग लगने की घटना को रोकने के साथ ही वैज्ञानिकों द्वारा समय-समय पर तमाम सुझाव भी दिए जाते रहे हैं, जिन्हें मुख्य रूप से पालन करने की आवश्यकता है.

black-carbon
ब्लैक कार्बन है मोस्ट इंर्पोटेंट एंथ्रोजेनिक एजेंट.
मोस्ट इंंपोर्टेंट एंथ्रोजेनिक एजेंट है ब्लैक कार्बन

ज्यादा जानकारी देते हुए वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिक डॉ. पीएस नेगी ने बताया कि ब्लैक कार्बन वातावरण के तापमान को बढ़ाता है. क्योंकि ब्लैक कार्बन सूर्य की ऊष्मा को अवशोषित कर लेता है. जिससे आसपास के वातावरण के तापमान में बढ़ोत्तरी होती है. पूरे विश्व में जलवायु परिवर्तन करने में सेकंड मोस्ट इंपोर्टेंट एंथ्रोजेनिक एजेंट है. हालांकि, जलवायु परिवर्तन करने में ग्रीन हाउस गैस पहले नंबर पर आती है. वातावरण गर्म होने की वजह से हिमालयन ईको सिस्टम पर सीधा असर पड़ता है. वातावरण का तापमान बढ़ने के कई अन्य वजह भी हैं, लेकिन मुख्य वजह ब्लैक कार्बन ही है. हिमालयन ईको सिस्टम प्रभावित होने से हिमालयी क्षेत्रों में पाए जाने वाले पेड़-पौधों के साथ ही बर्फ और ग्लेशियर सीधे तौर से प्रभावित हो रहे हैं.

पढ़ेंः हिमालय में यहां दिखा दुर्लभ स्नो लेपर्ड और भूरा भालू


हिमालयी क्षेत्रों तक पहुंचा ब्लैक कार्बन

वैज्ञानिक पीएस नेगी ने बताया कि वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी ने पहली बार हिमालयी क्षेत्रों में ब्लैक कार्बन की स्थिति को जानने के लिए गंगोत्री ग्लेशियर के पास दो उपकरण लगाए. पहला भोजवासा और दूसरा चीड़वासा में मॉनीटरिंग स्टेशनों में स्थापित किया गया. हालांकि इससे पहले ग्लेशियर के आसपास ब्लैक कार्बन का क्या कंसंट्रेशन है, किसी को पता नहीं था. ग्लेशियर के समीप उपकरण स्थापित करने के बाद यह पता चला कि ग्लेशियर के समीप तक ब्लैक कार्बन पहुंच चुका है. जिसमें 0.01 माइक्रोग्राम से लेकर 4.62 माइक्रोग्राम तक वेरिएशन पाया गया है. हालांकि, जो इंस्ट्रूमेंट लगाए गए हैं वो वातावरण से सैंपल कलेक्ट कर वातावरण में मौजूद ब्लैक कार्बन की स्थिति को बताते हैं.

ईको सिस्टम हो रहा प्रभावित

पीएस नेगी ने बताया कि गंगोत्री ग्लेशियर के पास स्थापित किए गए उपकरण की रिपोर्ट दो बार ही कलेक्ट की जा सकती है. यही वजह है कि वाडिया के वैज्ञानिक साल में दो बार अक्टूबर और मई-जून में रिपोर्ट कलेक्ट करने जाते हैं. क्योंकि, इससे पहले और बाद में पूरा क्षेत्र बर्फ से ढका रहता है. जिस वजह से वहां जाना नामुमकिन है. साथ ही बताया कि हाल ही में जो रिपोर्ट मिली है, उसके अनुसार 0.01 माइक्रोग्राम से लेकर 4.62 माइक्रोग्राम तक वेरिएशन पाया गया है. लेकिन उसका कितना प्रभाव पड़ रहा है यह एक शोध का विषय है. लेकिन यह निश्चित है कि ग्लेशियर के पास ब्लैक कार्बन मौजूद है. जिस वजह से वातावरण गर्म हो रहा है. इस वजह से ईको सिस्टम पर सीधा असर पड़ रहा है.

वातावरण में 7 दिन तक सक्रिय रहता है ब्लैक कार्बन

वैज्ञानिक पीएस नेगी ने बताया कि ब्लैक कार्बन एक पार्टिकुलेट मैटर है. जिस वजह से पेड़-पौधे इसे अवशोषित नहीं कर पाते हैं. लेकिन ब्लैक कार्बन की सबसे बड़ी बात यह है कि यह वातावरण में एक सप्ताह तक सक्रिय रहता है. इसके बाद वह फिर प्रिस्पिटेट (नष्ट) हो जाता है. लेकिन विश्व के अन्य क्षेत्रों और देश के तमाम जगहों से ब्लैक कार्बन हवा के माध्यम से उड़कर हिमालय क्षेत्र में पहुंच जाता है. यही नहीं, जब मानसून 'अरेबियन सी' और 'वे ऑफ बंगाल' से आता है तो उसके साथ भी ब्लैक कार्बन के कुछ पार्टिकुलेट मैटर भी आ जाते हैं, जो फिर अपना प्रभाव डालता है. लेकिन अगर ब्लैक कार्बन लिविंग कंडीशन में किसी बर्फ या फिर ग्लेशियर के अंदर दब जाता है तो वह लंबे समय तक लिविंग कंडीशन में ही रहता है. फिर ब्लैक कार्बन आसपास के वातावरण को गर्म करना शुरू कर देता है, जिससे बर्फ और ग्लेशियर के पिघलने की प्रक्रिया तेज हो जाती है.

ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.