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भू-कानून के लिए नुक्कड़ नाटक से जागरूकता भी और प्रदर्शन भी, देखें वीडियो - भू-कानून के लिए नुक्कड़ नाटक

मसूरी में उत्तराखंड भू-कानून को लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं ने लोगों को नुक्कड़ नाटक के जरिए जागरूक किया. इस दौरान सरकार की मंशा पर सवाल भी उठाए.

Mussoorie
मसूरी
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Published : Jul 21, 2021, 4:39 PM IST

मसूरीः उत्तराखंड में भू-कानून बनाए जाने की मांग बढ़ती जा रही है. इसी के मद्देनजर मसूरी में स्थानीय युवकों के साथ शहीद स्थल पर उत्तराखंड भू-कानून की मांग को लेकर सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया.

मसूरी में सामाजिक कार्यकर्ताओं ने नुक्कड़ नाटक के जरिए लोगों को भू-कानून के बारे में जागरूक करते हुए सरकार की मंशा पर सवाल भी उठाए. उन्होंने मांग करते हुए कहा कि हिमाचल प्रदेश की तर्ज पर उत्तराखंड में भू-अध्यादेश कानून लाया जाए, जिससे कि प्रदेश की जनता को लाभ मिल सके. साथ ही भू-माफियाओं के चुंगल से प्रदेश को आजाद कराया जा सके.

सामाजिक कार्यकर्ता मनीष गौनियाल ने कहा कि पूर्व सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत के कार्यकाल में भू-कानून एवं चकबंदी विभाग को खत्म कर प्रदेश को माफियाओं के हवाले कर दिया गया है. उन्होंने कहा कि जब तक मजबूत भू-कानून लागू नहीं बनाया जाता यह आंदोलन जारी रहेगा. उन्होंने आरोप लगाया कि प्रदेश की दोनों ही पार्टी भू-माफियाओं के साथ मिली हुई है.

भू-कानून के लिए नुक्कड़ नाटक से जागरूकता भी और प्रदर्शन भी

ये भी पढ़ेंः त्तराखंड में बेशकीमती जमीनों को बचाने की जद्दोजहद, हिमाचल की तर्ज पर भू-कानून की मांग तेज

क्यों चाहिए हिमाचल जैसा कानूनः पहचान का संकट सभ्यता का सबसे बड़ा संकट होता है. उत्तराखंड की पहाड़ी संस्कृति भी अपनी पहचान बनाए रखना चाहती है. देश के विभिन्न हिस्सों से आए लोग यदि उत्तराखंड में बेरोट-टोक जमीन खरीदते रहेंगे तो यहां के सीमांत एवं छोटे किसान भूमिहीन हो सकते हैं. हिमाचल ने इस संकट को अपने अस्तित्व में आने पर ही पहचान लिया था. प्रदेश निर्माता और पहले मुख्यमंत्री डॉ. वाईएस परमार ने ऐसे कानूनों की नींव रखी कि हिमाचल की भूमि बाहरी लोग न ले पाएं. यहां बाहरी राज्यों के लोग जमीन नहीं खरीद सकते.

यदि किसी को जमीन खरीदनी हो तो उसे भू-सुधार कानून की धारा-118 के तहत सरकार से अनुमति लेनी होती है. यही कारण हैं कि हिमाचल में बाहरी राज्यों के धन्नासेठ या फिर प्रभावशाली लोग न के बराबर जमीन खरीद पाए हैं. प्रियंका वाड्रा जैसे केस न के बराबर हैं. ऐसे प्रभावशाली लोगों को धारा-118 के तहत अनुमति मिलने में खास रुकावट नहीं आती. फिर भी प्रभावशाली से प्रभावशाली व्यक्ति को भी हिमाचल में कृषि योग्य जमीन खरीदने की अनुमति नहीं मिलती.

ये भी पढ़ेंः सोशल मीडिया से सड़कों पर उतरा भू-कानून का आंदोलन, युवाओं ने संभाला मोर्चा

इंडस्ट्री के लिए चाहते हैं मनमानी जमीनः उत्तराखंड में उद्योग स्थापित करने वाले मनमानी जमीन चाहते हैं. वहां जमीन आवंटन में कोई खास पचड़े नहीं हैं. ऐसे में सरकार और स्थानीय प्रशासन का जमीन लेने वालों पर कोई खास नियंत्रण नहीं होता है. इस मनमानी के कारण कई तरह की समस्याएं पैदा हो रही हैं. उत्तराखंड में अब युवाओं की आवाज हिमाचल जैसे कानून के लिए उठ रही है.

हिमाचल में गठन के बाद ही लागू हो गए भू-सुधार कानूनः हिमाचल को 1971 में पूर्ण राज्य का दर्जा मिला और यहां अगले ही साल भूमि सुधार कानून लागू हो गया. कानून की धारा 118 के तहत कोई भी बाहरी व्यक्ति कृषि की जमीन निजी उपयोग के लिए नहीं खरीद सकता. फिर लैंड सीलिंग एक्ट में कोई भी व्यक्ति 150 बीघा जमीन से अधिक नहीं रख सकता. हिमाचल में बागवानी और खेती के कारण यहां की प्रति व्यक्ति आय देश में टॉप के राज्यों पर है. ये बात अलग है कि उद्योगों के लिए सरकार जमीन देती है.

सख्त भूमि कानून के अभाव में उत्तराखंड के जंगल भी खतरे में हैं. पलायन का कारण भी उत्तराखंड में यही रहा कि खेती से वहां रोजगार के खास प्रयास नहीं हुए. उत्तराखंड में इन्हीं कारणों से गांव बचाओ यात्रा जैसे आंदोलन भी हो रहे हैं.

मसूरीः उत्तराखंड में भू-कानून बनाए जाने की मांग बढ़ती जा रही है. इसी के मद्देनजर मसूरी में स्थानीय युवकों के साथ शहीद स्थल पर उत्तराखंड भू-कानून की मांग को लेकर सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया.

मसूरी में सामाजिक कार्यकर्ताओं ने नुक्कड़ नाटक के जरिए लोगों को भू-कानून के बारे में जागरूक करते हुए सरकार की मंशा पर सवाल भी उठाए. उन्होंने मांग करते हुए कहा कि हिमाचल प्रदेश की तर्ज पर उत्तराखंड में भू-अध्यादेश कानून लाया जाए, जिससे कि प्रदेश की जनता को लाभ मिल सके. साथ ही भू-माफियाओं के चुंगल से प्रदेश को आजाद कराया जा सके.

सामाजिक कार्यकर्ता मनीष गौनियाल ने कहा कि पूर्व सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत के कार्यकाल में भू-कानून एवं चकबंदी विभाग को खत्म कर प्रदेश को माफियाओं के हवाले कर दिया गया है. उन्होंने कहा कि जब तक मजबूत भू-कानून लागू नहीं बनाया जाता यह आंदोलन जारी रहेगा. उन्होंने आरोप लगाया कि प्रदेश की दोनों ही पार्टी भू-माफियाओं के साथ मिली हुई है.

भू-कानून के लिए नुक्कड़ नाटक से जागरूकता भी और प्रदर्शन भी

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क्यों चाहिए हिमाचल जैसा कानूनः पहचान का संकट सभ्यता का सबसे बड़ा संकट होता है. उत्तराखंड की पहाड़ी संस्कृति भी अपनी पहचान बनाए रखना चाहती है. देश के विभिन्न हिस्सों से आए लोग यदि उत्तराखंड में बेरोट-टोक जमीन खरीदते रहेंगे तो यहां के सीमांत एवं छोटे किसान भूमिहीन हो सकते हैं. हिमाचल ने इस संकट को अपने अस्तित्व में आने पर ही पहचान लिया था. प्रदेश निर्माता और पहले मुख्यमंत्री डॉ. वाईएस परमार ने ऐसे कानूनों की नींव रखी कि हिमाचल की भूमि बाहरी लोग न ले पाएं. यहां बाहरी राज्यों के लोग जमीन नहीं खरीद सकते.

यदि किसी को जमीन खरीदनी हो तो उसे भू-सुधार कानून की धारा-118 के तहत सरकार से अनुमति लेनी होती है. यही कारण हैं कि हिमाचल में बाहरी राज्यों के धन्नासेठ या फिर प्रभावशाली लोग न के बराबर जमीन खरीद पाए हैं. प्रियंका वाड्रा जैसे केस न के बराबर हैं. ऐसे प्रभावशाली लोगों को धारा-118 के तहत अनुमति मिलने में खास रुकावट नहीं आती. फिर भी प्रभावशाली से प्रभावशाली व्यक्ति को भी हिमाचल में कृषि योग्य जमीन खरीदने की अनुमति नहीं मिलती.

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इंडस्ट्री के लिए चाहते हैं मनमानी जमीनः उत्तराखंड में उद्योग स्थापित करने वाले मनमानी जमीन चाहते हैं. वहां जमीन आवंटन में कोई खास पचड़े नहीं हैं. ऐसे में सरकार और स्थानीय प्रशासन का जमीन लेने वालों पर कोई खास नियंत्रण नहीं होता है. इस मनमानी के कारण कई तरह की समस्याएं पैदा हो रही हैं. उत्तराखंड में अब युवाओं की आवाज हिमाचल जैसे कानून के लिए उठ रही है.

हिमाचल में गठन के बाद ही लागू हो गए भू-सुधार कानूनः हिमाचल को 1971 में पूर्ण राज्य का दर्जा मिला और यहां अगले ही साल भूमि सुधार कानून लागू हो गया. कानून की धारा 118 के तहत कोई भी बाहरी व्यक्ति कृषि की जमीन निजी उपयोग के लिए नहीं खरीद सकता. फिर लैंड सीलिंग एक्ट में कोई भी व्यक्ति 150 बीघा जमीन से अधिक नहीं रख सकता. हिमाचल में बागवानी और खेती के कारण यहां की प्रति व्यक्ति आय देश में टॉप के राज्यों पर है. ये बात अलग है कि उद्योगों के लिए सरकार जमीन देती है.

सख्त भूमि कानून के अभाव में उत्तराखंड के जंगल भी खतरे में हैं. पलायन का कारण भी उत्तराखंड में यही रहा कि खेती से वहां रोजगार के खास प्रयास नहीं हुए. उत्तराखंड में इन्हीं कारणों से गांव बचाओ यात्रा जैसे आंदोलन भी हो रहे हैं.

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