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उत्तराखंड में मौजूदा पावर प्रोजेक्ट हैं नुकसानदायक, जानिए क्या करने की है जरूरत - Power project latest news in Uttarakhand

उत्तराखंड के रैणी गांव में 7 फरवरी को आई आपदा से जहां ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट पूरी तरह से तबाह हो गया. वहीं, तपोवन स्थित एनटीपीसी के पावर प्रोजेक्ट के अलावा 520 मेगावाट के तपोवन-विष्णुगाड़ हाईड्रो प्रोजेक्ट के भी कुछ हिस्से को नुकसान पंहुचा है. इस आपदा के आने के बाद से ही राज्य की तमाम नदियों पर बन रही सुरंग आधारित परियोजनाओं से सैकड़ों गांव मौत के साये में जी रहे हैं.

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प्रदेश मे मौजूद पावर प्रोजेक्ट कितने नुकसानदायक
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Published : Feb 16, 2021, 9:40 PM IST

Updated : Feb 17, 2021, 1:16 PM IST

देहरादून: चमोली के तपोवन और रैणी गांव की आपदा के बाद एक बार फिर से उत्तराखंड में बन रहे पावर प्रोजेक्ट्स पर सवाल उठने शुरू हो गये हैं. एक बार फिर से इसके फायदे और नुकसान से ज्यादा इसकी जरूरत पर सवाल उठने लगे हैं. पहाड़ की नदियों को सुरंगों और कंक्रीट की दीवारों में बांध कर बनाये जा रहे प्रोजेक्ट यहां के रहवासियों के लिए टाइम बम साबित हो रहे हैं. जिसके कारण एक बार फिर आम लोगों से लेकर सरकार और शासन तक इस पर बात की जा रही है. जहां आम लोग प्रदेश में मौजूद इन पावर प्रोजेक्ट्स को देवभूमि के लिए खतरा बता रहे हैं. वहीं, सरकारें और वैज्ञानिक इसे विकास और आधुनिकता से जोड़ते हुए इसमें सुरक्षा संंबंधी एहतियात बरतने के साथ सजगता की बात कह रहे हैं.

उत्तराखंड में मौजूदा पावर प्रोजेक्ट हैं नुकसानदायक

हाल ही में जोशीमठ में आई आपदा के दौरान न लोगों की मौत हुई, बल्कि इससे तीन पावर प्रोजक्ट भी तबाह हो गये. जिसके बाद से ही प्रदेश में मौजूद बांध और विद्युत परियोजनाओं को लेकर सवाल खड़े होने लगे हैं. उत्तराखंड में कोई भी पावर प्रोजेक्ट शुरू होने से पहले अब वैज्ञानिक, पर्यावरण स्टडी के साथ ही ग्लेशियर स्टडी को भी शामिल करने की बात कह रहे हैं. यही नहीं, वैज्ञानिक इस बात पर भी जोर दे रहें हैं कि हिमालयी क्षेत्रों में जो भी पावर प्रोजेक्ट हैं वह नुकसानदायक तो नहीं? वही, पर्यावरणविदों के अनुसार पावर प्रोजेक्ट जितने फायदेमंद हैं, उतने ही नुकसानदेह भी हैं.

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उत्तराखंड में पावर प्रोजेक्ट

पढ़ें- जोशीमठ आपदा: वैज्ञानिकों ने सौंपी सरकार को रिपोर्ट, जानिए आपदा के पीछे की मुख्य वजह

उत्तराखंड राज्य की विषम भौगोलिक परिस्थितियों के चलते उत्तराखंड राज्य में आपदा आना और आपदा जैसी स्थिति बनना आम बात है. यही वजह है कि अभी तक उत्तराखंड राज्य ने कई बड़ी आपदाओं के दंश झेले हैं. इन आपदाओं में से सबसे बड़ा आपदा साल 2013 में केदारघाटी में आई थी. जिसने हजारों जिंदगियां लील ली थी. हाल ही में कुछ दिनों पहले जोशीमठ में आई आपदा ने भी काफी तबाही मचाई. हालांकि, यह आपदा सीमित रही. लेकिन इसमें जानमाल का काफी नुकसान हुआ है. यही नहीं, इस आपदा की वजह से दो पावर प्रोजेक्ट पूरी तरह है बर्बाद हो गए. वहीं, एक पावर प्रोजेक्ट को आंशिक नुकसान पहुंचा है.

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उत्तराखंड में पावर प्रोजेक्ट

पढ़ें- जोशीमठ आपदा में अब तक 54 शव बरामद, चमोली पुलिस ने जारी की मृतकों की सूची

रैणी गांव में आयी आपदा से इन प्रोजेक्ट पर पड़ा असर
उत्तराखंड के रैणी गांव में 7 फरवरी को आयी आपदा से जहां ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट पूरी तरह से तबाह हो गया. वहीं, तपोवन स्थित एनटीपीसी के पावर प्रोजेक्ट के अलावा 520 मेगावाट के तपोवन-विष्णुगाड़ हाईड्रो प्रोजेक्ट के भी कुछ हिस्से को नुकसान पहुंचा है. इस आपदा के आने के बाद से ही राज्य की तमाम नदियों पर बन रही सुरंग आधारित परियोजनाओं से सैकड़ों गांव मौत के साये में जी रहे हैं.

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उत्तराखंड में पावर प्रोजेक्ट

पढ़ें-- शूटिंग के लिए उत्तराखंड पहुंची नेपाली सिंगर स्मिता दहल, साझा की बातें

मात्र 8 महीने चली ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट की टरबाइन
ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट का निर्माण कार्य साल 2008 में शुरू हुआ था. जिसकी 13.2 मेगावाट बिजली उत्पादन की क्षमता थी. हालांकि, तय समय के भीतर यह परियोजना तैयार हो गई थी. साल 2011 में इस प्रोजेक्ट से बिजली का उत्पादन भी शुरू हो गया था, लेकिन साल 2016 में मशीनों में खराबी आने के चलते बिजली का उत्पादन ठप हो गया. साल 2018 में दूसरी कंपनी ने प्रोजेक्ट को खरीद कर, मशीनों को ठीक कराया. फिर जून 2020 में एक बार फिर प्रोजेक्ट में काम शुरू हुआ. हलाकि, मात्र 8 महीने बाद ही तबाही में यहां सब तहस नहस हो गया. अब इस प्रोजेक्ट के दोबरा शुरू होने की उम्मीद ना के बराबर है.

Power projects of private companies
निजी कंपनियों के पावर प्रोजेक्ट.

24 परियोजनाओं पर सुप्रीम कोर्ट की रोक

उत्तराखंड राज्य गठन के बाद से प्रदेश के भीतर तमाम विद्युत परियोजनाएं शुरू हुई. यही नहीं, साल 2005 से 2010 के दौरान उत्तराखंड सरकार ने 24 से अधिक जलविद्युत परियोजनाओं को मंजूरी दी. छोटी-बड़ी एक-एक कर 24 जलविद्युत परियोजनाओं का मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा.

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उत्तराखंड में पावर प्रोजेक्ट

जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने विशेषज्ञों की 12 सदस्यीय समिति गठित की. जिसकी रिपोर्ट सुप्रीम में सौंपे जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इन 24 परियोजनाओं पर रोक लगा दी. ये सभी परियोजनाएं, तीस हजार करोड़ की लागत से बननी थी. जिससे 2944.80 मेगावॉट बिजली का उत्पादन होता.

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उत्तराखंड में पावर प्रोजेक्ट
प्रदेश की 12 नदियों पर बनी हैं 32 बांध और परियोजनाएंउत्तराखंड राज्य के सभी जिलों में दर्जनों नदियां बहती हैं. इन सभी नदियों में से 12 प्रमुख नदियों पर 32 छोटे-बड़े बांध और विधुत परियोजनाएं संचालित हो रही हैं. जिसमें भागीरथ नदी पर 6, अलकनंदा नदी पर 5, गंगा नदी पर 3, रामगंगा नदी पर 3, काली नदी पर एक, कोसी नदी पर एक, पिंडर नदी पर दो, धौलीगंगा नदी पर तीन, यमुना नदी पर 3, टोंस नदी पर तीन परियोजनाओं के साथ ही शारदा नदी पर दो बांध एवं परियोजना के साथ ही अन्य नदियों पर भी छोटे-छोटे डैम बनाए गए हैं.

प्रदेश में निर्माणाधीन परियोजनाएं

प्रदेश में 58 छोटे और बड़े बांध प्रस्तावित हैं. जिनमें बनने वाली या बन रही सुरंगों का दायरा करीब 1500 किमी है. ये परियोजनाएं 28 लाख की आबादी को प्रभावित करती हैं. इन प्रस्तावित निर्माणाधीन परियोजनाओं में ये प्रमुख हैं.

इन सबके अलावा पांच अन्य पावर प्रोजेक्ट भी इनमें शामिल हैं.

प्रदेश में निर्माणाधीन प्राइवेट कंपनियों के प्रोजेक्ट
उत्तराखंड राज्य में निजी कंपनियों के भी तमाम पावर प्रोजेक्ट निर्माणाधीन हैं. जिनमें ये प्रमुख रूप से शामिल हैं.

देश में मौजूद हैं करीब 3600 बड़े बांध
भारत बांध बनाने के मामले में दुनिया में तीसरे स्थान पर है. क्योंकि वर्तमान समय में देश में करीब 3600 बड़े बांध मौजूद हैं. इन बड़े बांधों में से करीब 3300 बांध, देश की आजादी के बाद बनाये गए हैं. हालही में अमेरिका के कैलिफोर्निया में मौजूद 8 बड़े बांधों में 4 बांधों को तोड़ने पर करार भी हो चुका हैं. यही नहीं, मिली जानकारी के अनुसार अमेरिका में साल 1976 से अभी तक 1700 छोटे बड़े बांध और परियोजनाएं तोड़े जा चुके हैं.

उत्तराखंड में बने बांध है 'वॉटर बम'
ETV भारत से बातचीत के दौरान पर्यावरणविद् अनिल जोशी ने बताया कि उत्तराखंड में बांध 'वाटर बम' हैं. जिनके टूटने से बड़ी तबाही आएगी. ऐसे में हिमालयी क्षेत्रों में बांध बनाने के लिए, सरकारों को नए सिरे से सोचने की आवश्यकता है. इसके साथ ही राज्य सरकारों को चाहिए कि छोटे छोटे बांध बनाये जायें, जिससे भविष्य में आने वाले खतरे को कम किया जा सके. यही नहीं, उच्च हिमालयी क्षेत्रों या फिर ग्लेशियरों के मुहाने पर बांध का निर्माण करना पर्यावरण और प्राकृतिक दृष्टिकोण से सही नहीं है. लिहाजा, बांध बनाने और अधिक बांधों के निर्माण से पहले सरकार को नए सिरे से सोचने की जरुरत है.

परियोजनाओं में ग्लेशियरों की स्टडी जरूरी
वहीं, हिमनद वैज्ञानिक डीपी डोभाल ने बताया कि उत्तराखंड राज्य में जो भी पावर प्रोजेक्ट मौजूद हैं, उनमें से कुछ बांध को छोड़कर सभी पावर प्रोजेक्ट रन ऑफ द रिवर पर बने हुये हैं. जिसमें पानी को स्टोर नहीं किया जाता है. हालांकि, इन पावर प्रोजेक्ट से कुछ खास नुकसान नहीं है. लेकिन अगर कोई आपदा आती है तो इन पावर प्रोजेक्ट को नुकसान पहुंच सकता है. जिससे पावर प्रोजेक्ट के आसपास के क्षेत्र पर असर पड़ेगा. साथ ही उन्होंने कहा कि प्रदेश की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार अगर पर्वतीय क्षेत्रों में कोई बांध या फिर पावर प्रोजेक्ट बनाए जाते हैं तो उस दौरान उच्च हिमालई क्षेत्रों पर मौजूद ग्लेशियर की स्टडी करनी जरूरी है.

भूकंप की संभावनाओं में आता है बदलाव
पर्यावरणविद अजय कुमार बियानी ने बताया कि पहाड़ी प्रदेशों में बड़े-बड़े डैम बनाए जाने के कई बड़े फायदे हैं, क्योंकि डैम मुख्य रूप से पानी का स्टोर हाउस है. जिसका कई मदों में इस्तेमाल किया जा सकता है. मगर डैम बनाने की वजह से जो पानी जमा होता है उससे उस जगह की भूमि पर वजन बढ़ जाता है. जिससे भूकंप की संभावनाएं बढ़ जाती हैं, लेकिन भूकंप की संभावना उस क्षेत्र में ही बढ़ती है जहां की भूमि में तनाव होता है.

डैम क्षेत्र के पर्यावरण में होते हैं कई बदलाव

अजय कुमार बियानी ने बताया कि डैम बनाए जाने के बाद जो पानी जमीन के अंदर जाता है, वह भूमि के ज्वाइंट्स को खोलने का भी काम करता है. जिसके चलते लैंडस्लाइड की फ्रीक्वेंसी बढ़ जाती है. इसको स्थिर स्थिति में आने में काफी समय लग जाता है. साथ ही उन्होंने बताया कि डैम बनाने से पर्यावरण में काफी बदलाव देखा जाता है. जिस क्षेत्र में डैम बनाए जाते हैं उस क्षेत्र में बिन बारिश बरसात होना और हवा के बहाव में बदलाव होना आम बात है.

एडवाइजरी जारी कर सरकार, परियोजना में काम करने वाले कर्मचारियों का ले ब्यौरा

वहीं, इस मामले में कांग्रेस के उपाध्यक्ष सूर्यकांत धस्माना का कहना है कि प्रदेश में जितने भी जल विद्युत परियोजनाएं चल रही हैं उन सभी में काम करने वाले श्रमिकों की संख्या का आंकड़ा मौजूद नहीं है. यही, नहीं, प्रदेश के श्रम विभाग के पास भी इसकी जानकारी उपलब्ध नहीं है. ऐसे में सरकार को चाहिए कि वह तत्काल एक एडवाइजरी जारी करे, ताकि प्रदेश में चल रही विद्युत परियोजनाओं के साथ ही निर्माणाधीन विद्युत परियोजनाओं में कितने कर्मचारी काम कर रहे हैं उनका ब्यौरा मिल सके.

पढ़ें- - शूटिंग के लिए उत्तराखंड पहुंची नेपाली सिंगर स्मिता दहल, साझा की बातें

कुल मिलाकर कहा जाये तो जलविद्युत परियोजनाओं के पक्ष में दिए जाने वाले दावे महज दावे होते हैं, जलविद्युत परियोजनाओं की जद में आने वाली आबादी इसे बखूबी समझती है, उन्हें इससे फायदा शायद ही मिलता हो पर नुकसान 100 प्रतिशत उन्हीं का होता है, इसलिए सरकारों को हिमालयी क्षेत्रों में बांध बनाने के लिए नये सिरे से सोचने की जरूरत हैं, जिसमें स्थानीय लोगों की सुरक्षा, पर्यावरण, ग्लेशियरर्स के अध्यन को जरूरी तौर पर शामिन करना चाहिए, जिससे भविष्य में आने वाले खतरे को कम किया जा सके.

देहरादून: चमोली के तपोवन और रैणी गांव की आपदा के बाद एक बार फिर से उत्तराखंड में बन रहे पावर प्रोजेक्ट्स पर सवाल उठने शुरू हो गये हैं. एक बार फिर से इसके फायदे और नुकसान से ज्यादा इसकी जरूरत पर सवाल उठने लगे हैं. पहाड़ की नदियों को सुरंगों और कंक्रीट की दीवारों में बांध कर बनाये जा रहे प्रोजेक्ट यहां के रहवासियों के लिए टाइम बम साबित हो रहे हैं. जिसके कारण एक बार फिर आम लोगों से लेकर सरकार और शासन तक इस पर बात की जा रही है. जहां आम लोग प्रदेश में मौजूद इन पावर प्रोजेक्ट्स को देवभूमि के लिए खतरा बता रहे हैं. वहीं, सरकारें और वैज्ञानिक इसे विकास और आधुनिकता से जोड़ते हुए इसमें सुरक्षा संंबंधी एहतियात बरतने के साथ सजगता की बात कह रहे हैं.

उत्तराखंड में मौजूदा पावर प्रोजेक्ट हैं नुकसानदायक

हाल ही में जोशीमठ में आई आपदा के दौरान न लोगों की मौत हुई, बल्कि इससे तीन पावर प्रोजक्ट भी तबाह हो गये. जिसके बाद से ही प्रदेश में मौजूद बांध और विद्युत परियोजनाओं को लेकर सवाल खड़े होने लगे हैं. उत्तराखंड में कोई भी पावर प्रोजेक्ट शुरू होने से पहले अब वैज्ञानिक, पर्यावरण स्टडी के साथ ही ग्लेशियर स्टडी को भी शामिल करने की बात कह रहे हैं. यही नहीं, वैज्ञानिक इस बात पर भी जोर दे रहें हैं कि हिमालयी क्षेत्रों में जो भी पावर प्रोजेक्ट हैं वह नुकसानदायक तो नहीं? वही, पर्यावरणविदों के अनुसार पावर प्रोजेक्ट जितने फायदेमंद हैं, उतने ही नुकसानदेह भी हैं.

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उत्तराखंड में पावर प्रोजेक्ट

पढ़ें- जोशीमठ आपदा: वैज्ञानिकों ने सौंपी सरकार को रिपोर्ट, जानिए आपदा के पीछे की मुख्य वजह

उत्तराखंड राज्य की विषम भौगोलिक परिस्थितियों के चलते उत्तराखंड राज्य में आपदा आना और आपदा जैसी स्थिति बनना आम बात है. यही वजह है कि अभी तक उत्तराखंड राज्य ने कई बड़ी आपदाओं के दंश झेले हैं. इन आपदाओं में से सबसे बड़ा आपदा साल 2013 में केदारघाटी में आई थी. जिसने हजारों जिंदगियां लील ली थी. हाल ही में कुछ दिनों पहले जोशीमठ में आई आपदा ने भी काफी तबाही मचाई. हालांकि, यह आपदा सीमित रही. लेकिन इसमें जानमाल का काफी नुकसान हुआ है. यही नहीं, इस आपदा की वजह से दो पावर प्रोजेक्ट पूरी तरह है बर्बाद हो गए. वहीं, एक पावर प्रोजेक्ट को आंशिक नुकसान पहुंचा है.

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उत्तराखंड में पावर प्रोजेक्ट

पढ़ें- जोशीमठ आपदा में अब तक 54 शव बरामद, चमोली पुलिस ने जारी की मृतकों की सूची

रैणी गांव में आयी आपदा से इन प्रोजेक्ट पर पड़ा असर
उत्तराखंड के रैणी गांव में 7 फरवरी को आयी आपदा से जहां ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट पूरी तरह से तबाह हो गया. वहीं, तपोवन स्थित एनटीपीसी के पावर प्रोजेक्ट के अलावा 520 मेगावाट के तपोवन-विष्णुगाड़ हाईड्रो प्रोजेक्ट के भी कुछ हिस्से को नुकसान पहुंचा है. इस आपदा के आने के बाद से ही राज्य की तमाम नदियों पर बन रही सुरंग आधारित परियोजनाओं से सैकड़ों गांव मौत के साये में जी रहे हैं.

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उत्तराखंड में पावर प्रोजेक्ट

पढ़ें-- शूटिंग के लिए उत्तराखंड पहुंची नेपाली सिंगर स्मिता दहल, साझा की बातें

मात्र 8 महीने चली ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट की टरबाइन
ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट का निर्माण कार्य साल 2008 में शुरू हुआ था. जिसकी 13.2 मेगावाट बिजली उत्पादन की क्षमता थी. हालांकि, तय समय के भीतर यह परियोजना तैयार हो गई थी. साल 2011 में इस प्रोजेक्ट से बिजली का उत्पादन भी शुरू हो गया था, लेकिन साल 2016 में मशीनों में खराबी आने के चलते बिजली का उत्पादन ठप हो गया. साल 2018 में दूसरी कंपनी ने प्रोजेक्ट को खरीद कर, मशीनों को ठीक कराया. फिर जून 2020 में एक बार फिर प्रोजेक्ट में काम शुरू हुआ. हलाकि, मात्र 8 महीने बाद ही तबाही में यहां सब तहस नहस हो गया. अब इस प्रोजेक्ट के दोबरा शुरू होने की उम्मीद ना के बराबर है.

Power projects of private companies
निजी कंपनियों के पावर प्रोजेक्ट.

24 परियोजनाओं पर सुप्रीम कोर्ट की रोक

उत्तराखंड राज्य गठन के बाद से प्रदेश के भीतर तमाम विद्युत परियोजनाएं शुरू हुई. यही नहीं, साल 2005 से 2010 के दौरान उत्तराखंड सरकार ने 24 से अधिक जलविद्युत परियोजनाओं को मंजूरी दी. छोटी-बड़ी एक-एक कर 24 जलविद्युत परियोजनाओं का मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा.

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उत्तराखंड में पावर प्रोजेक्ट

जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने विशेषज्ञों की 12 सदस्यीय समिति गठित की. जिसकी रिपोर्ट सुप्रीम में सौंपे जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इन 24 परियोजनाओं पर रोक लगा दी. ये सभी परियोजनाएं, तीस हजार करोड़ की लागत से बननी थी. जिससे 2944.80 मेगावॉट बिजली का उत्पादन होता.

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उत्तराखंड में पावर प्रोजेक्ट
प्रदेश की 12 नदियों पर बनी हैं 32 बांध और परियोजनाएंउत्तराखंड राज्य के सभी जिलों में दर्जनों नदियां बहती हैं. इन सभी नदियों में से 12 प्रमुख नदियों पर 32 छोटे-बड़े बांध और विधुत परियोजनाएं संचालित हो रही हैं. जिसमें भागीरथ नदी पर 6, अलकनंदा नदी पर 5, गंगा नदी पर 3, रामगंगा नदी पर 3, काली नदी पर एक, कोसी नदी पर एक, पिंडर नदी पर दो, धौलीगंगा नदी पर तीन, यमुना नदी पर 3, टोंस नदी पर तीन परियोजनाओं के साथ ही शारदा नदी पर दो बांध एवं परियोजना के साथ ही अन्य नदियों पर भी छोटे-छोटे डैम बनाए गए हैं.

प्रदेश में निर्माणाधीन परियोजनाएं

प्रदेश में 58 छोटे और बड़े बांध प्रस्तावित हैं. जिनमें बनने वाली या बन रही सुरंगों का दायरा करीब 1500 किमी है. ये परियोजनाएं 28 लाख की आबादी को प्रभावित करती हैं. इन प्रस्तावित निर्माणाधीन परियोजनाओं में ये प्रमुख हैं.

इन सबके अलावा पांच अन्य पावर प्रोजेक्ट भी इनमें शामिल हैं.

प्रदेश में निर्माणाधीन प्राइवेट कंपनियों के प्रोजेक्ट
उत्तराखंड राज्य में निजी कंपनियों के भी तमाम पावर प्रोजेक्ट निर्माणाधीन हैं. जिनमें ये प्रमुख रूप से शामिल हैं.

देश में मौजूद हैं करीब 3600 बड़े बांध
भारत बांध बनाने के मामले में दुनिया में तीसरे स्थान पर है. क्योंकि वर्तमान समय में देश में करीब 3600 बड़े बांध मौजूद हैं. इन बड़े बांधों में से करीब 3300 बांध, देश की आजादी के बाद बनाये गए हैं. हालही में अमेरिका के कैलिफोर्निया में मौजूद 8 बड़े बांधों में 4 बांधों को तोड़ने पर करार भी हो चुका हैं. यही नहीं, मिली जानकारी के अनुसार अमेरिका में साल 1976 से अभी तक 1700 छोटे बड़े बांध और परियोजनाएं तोड़े जा चुके हैं.

उत्तराखंड में बने बांध है 'वॉटर बम'
ETV भारत से बातचीत के दौरान पर्यावरणविद् अनिल जोशी ने बताया कि उत्तराखंड में बांध 'वाटर बम' हैं. जिनके टूटने से बड़ी तबाही आएगी. ऐसे में हिमालयी क्षेत्रों में बांध बनाने के लिए, सरकारों को नए सिरे से सोचने की आवश्यकता है. इसके साथ ही राज्य सरकारों को चाहिए कि छोटे छोटे बांध बनाये जायें, जिससे भविष्य में आने वाले खतरे को कम किया जा सके. यही नहीं, उच्च हिमालयी क्षेत्रों या फिर ग्लेशियरों के मुहाने पर बांध का निर्माण करना पर्यावरण और प्राकृतिक दृष्टिकोण से सही नहीं है. लिहाजा, बांध बनाने और अधिक बांधों के निर्माण से पहले सरकार को नए सिरे से सोचने की जरुरत है.

परियोजनाओं में ग्लेशियरों की स्टडी जरूरी
वहीं, हिमनद वैज्ञानिक डीपी डोभाल ने बताया कि उत्तराखंड राज्य में जो भी पावर प्रोजेक्ट मौजूद हैं, उनमें से कुछ बांध को छोड़कर सभी पावर प्रोजेक्ट रन ऑफ द रिवर पर बने हुये हैं. जिसमें पानी को स्टोर नहीं किया जाता है. हालांकि, इन पावर प्रोजेक्ट से कुछ खास नुकसान नहीं है. लेकिन अगर कोई आपदा आती है तो इन पावर प्रोजेक्ट को नुकसान पहुंच सकता है. जिससे पावर प्रोजेक्ट के आसपास के क्षेत्र पर असर पड़ेगा. साथ ही उन्होंने कहा कि प्रदेश की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार अगर पर्वतीय क्षेत्रों में कोई बांध या फिर पावर प्रोजेक्ट बनाए जाते हैं तो उस दौरान उच्च हिमालई क्षेत्रों पर मौजूद ग्लेशियर की स्टडी करनी जरूरी है.

भूकंप की संभावनाओं में आता है बदलाव
पर्यावरणविद अजय कुमार बियानी ने बताया कि पहाड़ी प्रदेशों में बड़े-बड़े डैम बनाए जाने के कई बड़े फायदे हैं, क्योंकि डैम मुख्य रूप से पानी का स्टोर हाउस है. जिसका कई मदों में इस्तेमाल किया जा सकता है. मगर डैम बनाने की वजह से जो पानी जमा होता है उससे उस जगह की भूमि पर वजन बढ़ जाता है. जिससे भूकंप की संभावनाएं बढ़ जाती हैं, लेकिन भूकंप की संभावना उस क्षेत्र में ही बढ़ती है जहां की भूमि में तनाव होता है.

डैम क्षेत्र के पर्यावरण में होते हैं कई बदलाव

अजय कुमार बियानी ने बताया कि डैम बनाए जाने के बाद जो पानी जमीन के अंदर जाता है, वह भूमि के ज्वाइंट्स को खोलने का भी काम करता है. जिसके चलते लैंडस्लाइड की फ्रीक्वेंसी बढ़ जाती है. इसको स्थिर स्थिति में आने में काफी समय लग जाता है. साथ ही उन्होंने बताया कि डैम बनाने से पर्यावरण में काफी बदलाव देखा जाता है. जिस क्षेत्र में डैम बनाए जाते हैं उस क्षेत्र में बिन बारिश बरसात होना और हवा के बहाव में बदलाव होना आम बात है.

एडवाइजरी जारी कर सरकार, परियोजना में काम करने वाले कर्मचारियों का ले ब्यौरा

वहीं, इस मामले में कांग्रेस के उपाध्यक्ष सूर्यकांत धस्माना का कहना है कि प्रदेश में जितने भी जल विद्युत परियोजनाएं चल रही हैं उन सभी में काम करने वाले श्रमिकों की संख्या का आंकड़ा मौजूद नहीं है. यही, नहीं, प्रदेश के श्रम विभाग के पास भी इसकी जानकारी उपलब्ध नहीं है. ऐसे में सरकार को चाहिए कि वह तत्काल एक एडवाइजरी जारी करे, ताकि प्रदेश में चल रही विद्युत परियोजनाओं के साथ ही निर्माणाधीन विद्युत परियोजनाओं में कितने कर्मचारी काम कर रहे हैं उनका ब्यौरा मिल सके.

पढ़ें- - शूटिंग के लिए उत्तराखंड पहुंची नेपाली सिंगर स्मिता दहल, साझा की बातें

कुल मिलाकर कहा जाये तो जलविद्युत परियोजनाओं के पक्ष में दिए जाने वाले दावे महज दावे होते हैं, जलविद्युत परियोजनाओं की जद में आने वाली आबादी इसे बखूबी समझती है, उन्हें इससे फायदा शायद ही मिलता हो पर नुकसान 100 प्रतिशत उन्हीं का होता है, इसलिए सरकारों को हिमालयी क्षेत्रों में बांध बनाने के लिए नये सिरे से सोचने की जरूरत हैं, जिसमें स्थानीय लोगों की सुरक्षा, पर्यावरण, ग्लेशियरर्स के अध्यन को जरूरी तौर पर शामिन करना चाहिए, जिससे भविष्य में आने वाले खतरे को कम किया जा सके.

Last Updated : Feb 17, 2021, 1:16 PM IST
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