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चिपको आंदोलन वर्षगांठ: गौरा देवी के बुलंद हौसलों को बंदूकें भी नहीं डिगा सकी, पूरी रात पेड़ों से चिपकी रही महिलाएं

आज भी चिपको आंदोलन प्रदेशवासियों को अपने वनों के संरक्षण के लिए प्रेरित करता रहता है. चिपको आंदोलन साल 1973 में चमोली जिले के रैणी गांव से हरे-भरे पेड़ों को कटने से बचाने के लिए किया गया था. साल 1973 में प्रदेश के पहाड़ी जिलों में जंगलों की अंधाधुंध कटाई से आहत होकर गौरा देवी के नेतृत्व में ग्रामीणों ने बंदूकों की परवाह किए बिना ही पेड़ों को घेर लिया था. वहीं, उस समय आंदोलन को मुखर होते देख केंद्र सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम बनाया था.

chipko movement
गौरा देवी
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Published : Mar 26, 2022, 11:39 AM IST

Updated : Mar 26, 2022, 11:48 AM IST

देहरादून: उत्तराखंड का एक ऐसा आंदोलन जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता है. समय के साथ जिसकी महत्ता को आज पूरा विश्व समझ रहा है. हम बात कर रहे हैं चिपको आंदोलन की, जो उत्तराखंड के मुख्य आंदोलनों में से एक है. गौरा देवी ने चिपको आंदोलन साल 1973 में चमोली जिले के रैणी गांव से हरे-भरे पेड़ों को कटने से बचाने के लिए किया गया था. आज इस आंदोलन के 49 साल पूरे हो गए. आज भी चिपको आंदोलन प्रदेशवासियों को अपने वनों के संरक्षण के लिए प्रेरित करता है. वहीं, उस समय आंदोलन को मुखर होते देख केंद्र सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम बनाया था.

पेड़ों के अंधाधुंध कटाई का विरोध: आज इस आंदोलन के 49 साल पूरे हो गए. चिपको आंदोलन साल 1973 में चमोली जिले के रैणी गांव से हरे-भरे पेड़ों को कटने से बचाने के लिए किया गया था. उस दौरान महिलाएं वनों को बचाने के लिए पेड़ों से चिपक गईं थी. इस आंदोलन का नेतृत्व गौरा देवी ने किया था. वहीं, आंदोलन को मुखर होते देख केंद्र सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम बनाया था. बता दें कि कि यह आंदोलन तत्कालीन उत्तर प्रदेश के चमोली जिले के छोटे से रैणी गांव से 26 मार्च यानि आज ही के दिन से साल 1973 में शुरू हुया था. साल 1972 में प्रदेश के पहाड़ी जिलों में जंगलों की अंधाधुंध कटाई का सिलसिला शुरू हो चुका था.

पढ़ें- सौरभ बहुगुणा के लिए राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाना सबसे बड़ी चुनौती, पिता और दादा रह चुके सीएम

पेड़ों से लिपट गई थी महिलाएं: लगातार पेड़ों के अवैध कटाई से आहत होकर गौरा देवी के नेतृत्व में ग्रामीणों ने आंदोलन तेज कर दिया था. बंदूकों की परवाह किए बिना ही उन्होंने पेड़ों को घेर लिया और पूरी रात पेड़ों से चिपकी रहीं. अगले दिन यह खबर आग की तरह फैल गई और आसपास के गांवों में पेड़ों को बचाने के लिए लोग पेड़ों से चिपकने लगे. चार दिन के टकराव के बाद पेड़ काटने वालों को अपने कदम पीछे खींचने पड़े. इस आंदोलन में महिला, बच्चे और पुरुषों ने पेड़ों से लिपटकर अवैध कटान का पुरजोर विरोध किया था. गौरा देवी वो शख्सियत हैं, जिनके प्रयासों से ही चिपको आंदोलन को विश्व पटल पर जगह मिल पाई. इस आंदोलन में प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा, गोविंद सिंह रावत, चंडीप्रसाद भट्ट समेत कई लोग भी शामिल थे.

पढ़ें-उत्तराखंड में आज से कोरोना की सभी पाबंदियां खत्म, सोशल डिस्टेंसिंग के साथ मास्क पहनना अभी जरूरी

केन्द्र सरकार तक पहुंची आंदोलन की गूंज: वहीं, 1973 में शुरू हुए इस आंदोलन की गूंज केंद्र सरकार तक पहुंच गई थी. इस आंदोलन का असर उस दौर में केंद्र की राजनीति में पर्यावरण का एक एजेंडा बना. आंदोलन को देखते हुए केंद्र सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम बनाया. इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य वन की रक्षा करना और पर्यावरण को जीवित करना था. चिपको आंदोलन के चलते ही साल 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक विधेयक बनाया था. जिसके तहत देश के सभी हिमालयी क्षेत्रों में वनों के काटने पर 15 सालों का प्रतिबंध लगा दिया गया था. इस आंदोलन के बलबूते महिलाओं को एक अलग पहचान मिल पाई थी. महिलाओं और पुरुषों ने पेड़ों को बचाने के लिए अपनी जान तक की परवाह नहीं की थी.

देहरादून: उत्तराखंड का एक ऐसा आंदोलन जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता है. समय के साथ जिसकी महत्ता को आज पूरा विश्व समझ रहा है. हम बात कर रहे हैं चिपको आंदोलन की, जो उत्तराखंड के मुख्य आंदोलनों में से एक है. गौरा देवी ने चिपको आंदोलन साल 1973 में चमोली जिले के रैणी गांव से हरे-भरे पेड़ों को कटने से बचाने के लिए किया गया था. आज इस आंदोलन के 49 साल पूरे हो गए. आज भी चिपको आंदोलन प्रदेशवासियों को अपने वनों के संरक्षण के लिए प्रेरित करता है. वहीं, उस समय आंदोलन को मुखर होते देख केंद्र सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम बनाया था.

पेड़ों के अंधाधुंध कटाई का विरोध: आज इस आंदोलन के 49 साल पूरे हो गए. चिपको आंदोलन साल 1973 में चमोली जिले के रैणी गांव से हरे-भरे पेड़ों को कटने से बचाने के लिए किया गया था. उस दौरान महिलाएं वनों को बचाने के लिए पेड़ों से चिपक गईं थी. इस आंदोलन का नेतृत्व गौरा देवी ने किया था. वहीं, आंदोलन को मुखर होते देख केंद्र सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम बनाया था. बता दें कि कि यह आंदोलन तत्कालीन उत्तर प्रदेश के चमोली जिले के छोटे से रैणी गांव से 26 मार्च यानि आज ही के दिन से साल 1973 में शुरू हुया था. साल 1972 में प्रदेश के पहाड़ी जिलों में जंगलों की अंधाधुंध कटाई का सिलसिला शुरू हो चुका था.

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पेड़ों से लिपट गई थी महिलाएं: लगातार पेड़ों के अवैध कटाई से आहत होकर गौरा देवी के नेतृत्व में ग्रामीणों ने आंदोलन तेज कर दिया था. बंदूकों की परवाह किए बिना ही उन्होंने पेड़ों को घेर लिया और पूरी रात पेड़ों से चिपकी रहीं. अगले दिन यह खबर आग की तरह फैल गई और आसपास के गांवों में पेड़ों को बचाने के लिए लोग पेड़ों से चिपकने लगे. चार दिन के टकराव के बाद पेड़ काटने वालों को अपने कदम पीछे खींचने पड़े. इस आंदोलन में महिला, बच्चे और पुरुषों ने पेड़ों से लिपटकर अवैध कटान का पुरजोर विरोध किया था. गौरा देवी वो शख्सियत हैं, जिनके प्रयासों से ही चिपको आंदोलन को विश्व पटल पर जगह मिल पाई. इस आंदोलन में प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा, गोविंद सिंह रावत, चंडीप्रसाद भट्ट समेत कई लोग भी शामिल थे.

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केन्द्र सरकार तक पहुंची आंदोलन की गूंज: वहीं, 1973 में शुरू हुए इस आंदोलन की गूंज केंद्र सरकार तक पहुंच गई थी. इस आंदोलन का असर उस दौर में केंद्र की राजनीति में पर्यावरण का एक एजेंडा बना. आंदोलन को देखते हुए केंद्र सरकार ने वन संरक्षण अधिनियम बनाया. इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य वन की रक्षा करना और पर्यावरण को जीवित करना था. चिपको आंदोलन के चलते ही साल 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक विधेयक बनाया था. जिसके तहत देश के सभी हिमालयी क्षेत्रों में वनों के काटने पर 15 सालों का प्रतिबंध लगा दिया गया था. इस आंदोलन के बलबूते महिलाओं को एक अलग पहचान मिल पाई थी. महिलाओं और पुरुषों ने पेड़ों को बचाने के लिए अपनी जान तक की परवाह नहीं की थी.

Last Updated : Mar 26, 2022, 11:48 AM IST
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