देहरादून: उत्तराखंड में सरकारें बिना काम के भी करोड़ों खर्च कर देती हैं. यह बात सुनने में जरूर अजीब लग रही होगी, लेकिन लोकायुक्त कार्यालय (Uttarakhand Lokayukta Office) के मामले में ये बात बिल्कुल सच है. खुद सरकारी दस्तावेज और आंकड़े भी इस तस्दीक कर रहे हैं. आपको जानकर हैरानी होगी कि जिस राज्य में सालों से लोकायुक्त ही नहीं वहां एक साल में 2 करोड़ से ज्यादा का खर्चा लोकायुक्त कार्यालय (Two crore spent on Uttarakhand Lokayukta office) पर हो रहा है. ऐसा क्यों हैं?
उत्तराखंड में सरकारें यूं तो आम आदमी को मूलभूत सुविधाएं देने के लिए अक्सर बजट का रोना रोती हैं, लेकिन फिजूलखर्ची पर कैसे सरकारों का रवैया बदल जाता है, इसका सबसे बड़ा उदाहरण उत्तराखंड का लोकायुक्त कार्यालय है. उत्तराखंड लोकायुक्त कार्यालय में बिना काम के ही एक साल में दो करोड़ से ज्यादा की रकम खर्च कर दी जाती है. इस खर्चे का राज्य को क्या लाभ हुआ, इसका हिसाब भी नहीं है. चौंकाने वाली बात यह है की यह बात सिर्फ एक साल की नहीं बल्कि पिछले कई सालों से करोड़ों खर्च का यह सिलसिला जारी है. सरकार और नौकरशाह यह सब देख कर भी आंखें मूंदे हुए हैं.
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मामला लोकायुक्त कार्यालय में कर्मचारियों की तनख्वाह और कार्यालय के दूसरे खर्चों से जुड़ा है. 2013 के बाद से लोकायुक्त की नियुक्ति (No Lokayukta in Uttarakhand since 2013) ही नहीं की गई है. बिना लोकायुक्त की नियुक्ति के यह कार्यालय बिना काम सफेद हाथी बनकर रह गया है. सूचना के अधिकार से मिली जानकारी के अनुसार सरकार इस कार्यालय पर बिना काम के ही करोडों रुपए बहा रही है. आरटीआई एक्टिविस्ट और एडवोकेट विकेश नेगी ने कहा लोकायुक्त कार्यालय में खर्च हो रही बड़ी रकम की सुध लेने वाला कोई नहीं है.
ऐसा नहीं कि उत्तराखंड में लोकायुक्त के गठन (Lokayukta in Uttarakhand) को लेकर प्रयास ना हुए हो, लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण सालों साल से लटके हुए इस मुद्दे पर आज तक प्रयास नतीजे तक नहीं पहुंचे. उत्तराखंड में लोकायुक्त गठन को लेकर अब तक क्या हुआ जानिए.
राज्य गठन के बाद साल 2002 में लोकायुक्त का गठन हुआ. सैयद रजा अब्बास प्रदेश के पहले लोकायुक्त बने. साल 2004 में लोकायुक्त सम्मेलन के दौरान उत्तराखंड में पहली बार लोकायुक्त को और अधिक अधिकार देने की जरूरत महसूस की गई. साल 2008 में एमएम घिल्डियाल दूसरे लोकायुक्त के रूप में कुर्सी पर बैठे और उन्होंने 2013 तक सेवाएं दी. इसके बाद 2013 से अब तक लोकायुक्त का यह पद खाली चल रहा है. साल 2011 में तत्कालीन भुवन चंद्र खंडूड़ी की सरकार ने पहली बार लोकायुक्त विधेयक विधानसभा में पारित किया. इसके तहत मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री और अफसर तक लोकायुक्त के दायरे में लाने की कोशिश की गई. लोकायुक्त को राष्ट्रपति की भी मंजूरी मिली. जिसके बाद प्रदेश में सत्ता बदल गई. कांग्रेस सरकार में तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने विधानसभा में नया लोकायुक्त विधेयक 2014 पारित करवा दिया.
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2014 का यह विधेयक भुवन चंद्र खंडूड़ी के समय आए विधायक से कमजोर बताया गया. इस विधेयक में मुख्यमंत्री को लोकायुक्त के दायरे से बाहर रखा गया. विजय बहुगुणा सरकार वाले लोकायुक्त विधेयक को भी लागू नहीं कराया जा सका. इसके बाद त्रिवेंद्र सरकार में 2017 के दौरान विधानसभा में विधेयक लाया गया. तब से यह विधेयक विधानसभा में अटका हुआ है. साल 2013 से अब तक 15 करोड़ से ज्यादा का खर्चा लोकायुक्त कार्यालय पर हुए. इसमें कर्मचारियों के वेतन और कंप्यूटर वाहन आदि के लिए किया जा चुका है. लोकायुक्त कार्यालय में करीब 1600 शिकायतें आ चुकी हैं. लोकायुक्त न होने के कारण शिकायतों पर कोई फैसला नहीं हो पा रहा है.
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उत्तराखंड में भ्रष्टाचार हमेशा एक बड़ा मुद्दा रहा है. साल 2002 के पहले चुनाव से लेकर 2022 तक के चुनाव में भ्रष्टाचार को राजनीतिक दलों की तरफ से मुद्दा बनाया जाता रहा है. हैरानी इस बात की है कि सरकार आने पर ना तो कांग्रेस और ना ही भाजपा मजबूत लोकायुक्त का गठन कर पाई है. इस मामले पर पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत कहते हैं कि उन्होंने अपनी सरकार के दौरान लोकायुक्त पारित होने के बाद राजभवन तक पहुंचाया, लेकिन भाजपा के दबाव में राज्यपाल ने इस पर मुहर नहीं लगाई. उधर जनता ने भी ऐसी ही पार्टी को सत्ता देकर इस पर कुछ भी कहने का हक खो दिया है.
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राजनीतिक रूप से भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा होने के बावजूद भी लोकायुक्त पर जनता का बेवकूफ राजनीतिक दल बनाते रहे. उत्तराखंड में पहले विधानसभा चुनाव के दौरान ही भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा बनकर सामने आया. इस दौरान कांग्रेस ने भाजपा की अंतरिम सरकार पर गलत नियुक्तियों के साथ वित्तीय अनियमितताओं के आरोप लगाए. कांग्रेस की सरकार आने पर दूसरे विधानसभा चुनाव 2007 में 56 घोटालों का जिक्र करते हुए भाजपा ने भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया और चुनाव जीता.
विधानसभा चुनाव 2012 में फिर कांग्रेस ने भाजपा की सरकार में निशंक के मुख्यमंत्री रहते हुए स्टर्डिया घोटाले, 56 जल विद्युत परियोजना घोटाले, खंडूरी सरकार में ढेंचा बीज घोटाले होने की बात कहकर चुनाव लड़ा और जीता. साल 2017 में भाजपा ने विधायकों की खरीद-फरोख्त और आबकारी घोटाले की बात कहकर चुनाव मैदान में कांग्रेस को पटखनी दी. इस बार भाजपा ने सरकार आने पर 100 दिन के भीतर लोकायुक्त गठन करने का जनता से वादा भी किया, जो अब तक पूरा नहीं किया.
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भाजपा सरकार आने के बाद त्रिवेंद्र सिंह रावत के नेतृत्व में जीरो टॉलरेंस की बात कही जाती रही. धामी सरकार ने भी इस स्लोगन को आगे बढ़ाया गया. इसके बाद भी आज तक लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं की गई. सबसे बड़ा मजाक तो यह है कि जिस भाजपा सरकार ने 100 दिन के भीतर लोकायुक्त की बात कही थी वह अब लोकायुक्त की जरूरत ही प्रदेश में महसूस नहीं करती. इसके पीछे भाजपा का तर्क है कि उनकी सरकार भ्रष्टाचार मुक्त काम कर रही है, लिहाजा इसकी जरूरत ही नहीं.