डोईवाला: नगर पालिका परिषद की पहल से डोईवाला चौक पर शहीद मेजर दुर्गा मल्ल की घोड़े पर सवार मूर्ति स्थापित की गई. वहीं, 100 फिट ऊंचा तिरंगा का शहरी विकास मंत्री प्रेमचंद अग्रवाल ने विधिवत पूजन के बाद अनावरण किया. इस मौके पर प्रेमचंद अग्रवाल ने कहा शहीद मेजर दुर्गामल्ल डोईवाला के रहने वाले थे. दुर्गामल्ल ने देश को आजाद कराने के लिए अपने प्राणों की आहुती दी थी, पूरा देश उनको नमन करता है.
अग्रवाल ने कहा मैं डोईवाला नगरपालिका को धन्यवाद देता हूं. जिन्होंने ऐसे बलिदानी शहीद मेजर दुर्गा मल्ल को याद करने के लिए डोईवाला चौक पर उनकी मूर्ति स्थापित की है. साथ ही देश की आन-बान-शान का प्रतीक 100 फीट ऊंचा तिरंगा भी सभी को आकर्षित करेगा. दुर्गा चौक पर शहीद दुर्गा मल्ल की जीवनी भी लिखी गई है, जो सभी को उनके बलिदान की याद दिलाएगी और प्रेरणा देने का काम करेगी.
डोईवाला नगर पालिका के अधिशासी अधिकारी उत्तम सिंह नेगी ने कहा पालिका बोर्ड ने निर्णय लिया था कि डोईवाला चौक का सौंदर्यीकरण करते हुए शहीद मेजर दुर्गामल्ल की मूर्ति और 100 फिट उंचा तिरंगा लगाया जाए. इसी के तहत डोईवाला चौक पर 18 लाख 35 हजार रुपए की लागत से मूर्ति और ध्वज स्थापित किए गए हैं. शहरी विकास मंत्री प्रेमचंद अग्रवाल ने मूर्ति और तिरंगा का अनावरण किया है.
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उत्तम सिंह नेगी ने बताया शहीद दुर्गामल्ल की इस तरह की मूर्ति पार्लियामेंट हाउस में लगी है, लेकिन उनकी जन्मस्थली डोईवाला होने के नाते पालिका ने डोईवाला चौक पर उनकी मूर्ति स्थापित करने की योजना बनाई. गोरखाली समाज की मांग पर शहीद मेजर दुर्गामल्ल को घोड़े पर सवार होकर उनके हाथ में ओरिजिनल खुकरी रखी गई है.
कौन थे शहीद मेजर दुर्गामल्ल: दुर्गामल्ल आजाद हिंद फौज के प्रथम गोरखा सैनिक थे. जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपना बलिदान दिया था. शहीद मेजर दुर्गामल्ल का जन्म 1 जुलाई 1913 को डोईवाला में हुआ था. उनके पिताजी गंगाराम गोरखा राइफल में नायब सूबेदार थे. मेजर दुर्गामल्ल अपने देश को आजादी दिलाने के लिए मात्र 18 साल की आयु में गोरखा राइफल में भर्ती हुए.
1 दिसंबर 1942 को सिंगापुर में आजाद हिंद फौज का गठन हुआ, जिसमें दुर्गामल्ल की बड़ी भूमिका रही. इसके लिए दुर्गामल्ल को मेजर के रूप में प्रोन्नत किया गया और गुप्तचर का काम दुर्गामल्ल को दिया गया. 27 मार्च 1944 को सूचनाएं एकत्र करते समय दुर्गामल्ल को शत्रु सेना ने मणिपुर में कोहिमा के पास पकड़ लिया. उन्हें युद्ध बंदी बनाने और उनपर मुकदमे के बाद बहुत यातनाएं दी गई. 15 अगस्त 1944 को उन्हें लाल किले की सेंट्रल जेल भेजा गया और 25 अगस्त 1944 को उन्हें फांसी के फंदे पर चढ़ा दिया गया.