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Baby Deer Rescue: गुलदार से हिरन के बच्चे को बचा लाई ये दादी, सब कर रहे बहादुरी को सलाम

1966 में एक फिल्म आई थी 'छोटा भाई'. इस फिल्म का एक बहुत ही प्यारा गीत था- 'मां मुझे अपने आंचल में छुपा ले, गले से लगा ले, कि और मेरा कोई नहीं'...चमोली के जंगल में गुलदार ने जब हिरन के बच्चे पर हमला किया होगा तो उसकी भावनाएं भी कुछ ऐसी ही रही होंगी. उसकी मां जान बचाकर भागी तो दूसरी मां उसे बचाने आ गई. वाण गांव की धामती देवी ने एक हिरन के बच्चे को न केवल गुलदार के चंगुल से बचाया, बल्कि उसे नया जीवन भी दिया है.

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चमोली हिरन समाचार
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Published : Feb 7, 2023, 8:24 AM IST

Updated : Feb 7, 2023, 1:05 PM IST

घायल हिरन के बच्चे को गुलदार से बचाया

चमोली: जनपद के देवाल ब्लॉक के वाण गांव की धामती देवी जंगल में चारापत्ती लेने के लिए गयी थीं. वहां उन्होंने देखा कि एक गुलदार हिरन के बच्चे पर हमला कर रहा है. धामती देवी ने शोर मचाकर गुलदार को भगा दिया. हिरन के बच्चे देखकर उनकी ममता पिघल पड़ी. हिरन का बच्चा दर्द से कराह रहा था. घायल हिरन के बच्चे को देखकर धामती देवी से नहीं रहा गया. धामती देवी चारापत्ती को छोड़कर हिरन के बच्चे को घर ले आईं. हिरन का घायल बच्चा चम्मच से दूध नहीं पी पा रहा था.

अपने बच्चे की तरह हिरन के बच्चे को बचा लाईं धामती देवी: धामती देवी ने हिरन के बच्चे को दूध पिलाने के लिए बाजार से एक बोतल खरीदी. हिरन के बच्चे को घर लाकर दूध पिलाया. जिसके बाद उन्होंने इसकी सूचना सामाजिक कार्यकर्ता हीरा सिंह गढ़वाली को दी. हीरा सिंह गढ़वाली ने वन विभाग को सूचित किया. वन कर्मी धामती देवी के घर आए और हिरन के बच्चे को निकटवर्ती पशु चिकित्सालय वाण ले गये. पशु चिकित्सालय वाण में पशु चिकित्सा फार्मासिस्ट मनीष कुमार पांडेय द्वारा हिरन के घायल बच्चे का उपचार किया गया. जिसके बाद इसे वन विभाग को सौंपा गया.

धामती देवी ने पेश की मिसाल: वन विभाग के वन दारोगा गबर सिंह बिष्ट ने धामती देवी का आभार व्यक्त किया. उन्होंने कहा कि धामती देवी ने मानवता की मिसाल पेश की है. सामाजिक कार्यकर्ता हीरा सिंह गढ़वाली ने कहा कि आज के इस युग में धामती देवी जैसी महिलायें भी हैं जिन्होंने एक बेजुबान जानवर की जान बचा कर लोगों के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है. वन विभाग को ऐसी महिलाओं को सम्मानित करना चाहिए. इस अवसर पर रंजीत बिष्ट, कुशल कनियाल, हुकुम सिंह, कृष्णा सिंह, मोहन सिंह, संतोष सिंह सहित अन्य ग्रामीण मौजूद थे.

वन और वन्य जीवों को बचाने का रहा है उत्तराखंड का इतिहास: वन और वन्य जीवों को बचाने का उत्तराखंड का बहुत पुराना इतिहास रहा है. चिपको आंदोलन की नायिका गौरा देवी उत्तराखंड के इसी चमोली जिले से थीं जहां से धामती देवी हैं. चिपको आंदोलन के मार्गदर्शक चंडी प्रसाद को पर्यावरण सुरक्षा के लिए रेमन मैग्सेसे अवॉर्ड मिला. पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा का नाम कौन नहीं जानता. बहुगुणा ने अपना पूरा जीवन बड़े बांधों के विरोध और पर्यावरण सुरक्षा के लिए समर्पित कर दिया.

उत्तराखंड में हुए प्रमुख वन आंदोलन
रंवाई आंदोलन: आजादी से पहले टिहरी रियासत में राजा नरेंद्र शाह के समय एक वन कानून लागू हुआ था. इस कानून के तहत किसानों की भूमि को भी वन भूमि में शामिल किया जा सकता था. इस कानून के खिलाफ रंवाई के लोगों ने आजाद पंचायत की घोषणा की थी. यानी टिहरी रियासत के खिलाफ सीधे विद्रोह शुरू कर दिया था. जब ये आंदोलन जोर पकड़ने लगा तो 30 मई 1930 को टिहरी रियासत के दीवान चक्रधर जुयाल के आदेश पर टिहरी की सेना ने रंवाई के आंदोलनकारियों पर गोलियां चला दीं. बताया जाता है कि गोलियां लगने से सैकड़ों किसान शहीद हो गए थे. रंवाई इलाके में 30 मई के दिन शहीद दिवस आज भी मनाया जाता है.

जंगल बचाने के लिए चिपको आंदोलन: 1970 के दशक में चमोली जिले में वनों का अंधाधुंध कटान हो रहा था. तब चमोली की महिलाओं ने 'हिम पुत्रियों की ललकार, वन नीति बदले सरकार' नारा दिया था. रैणी गांव ने वन बचाने के लिए सबसे जोरशोर से आवाज उठाई थी. 23 साल की गौरा देवी ने चिपको आंदोलन के लिए महिलाओं के इकट्ठा किया. महिलाएं जंगल में जाकर पेड़ों से लिपट गईं और ठेकेदार के लोगों को पेड़ नहीं काटने दिए. ये आंदोलन दुनिया भर में प्रसिद्ध हुआ.

1977 का वन आंदोलन: 1977 में वनों की नीलामी के विरोध में तत्कालीन उत्तर प्रदेश के पहाड़ी इलाके उत्तराखंड में बड़ा आंदोलन हुआ. प्रदर्शनकारियों ने नैनीताल का शैले हॉल जला दिया. इस आंदोलन में छात्र शक्ति शामिल थी. अनेक छात्रों की गिरफ्तारी हुई. 1978 में उत्तराखंड बंद हुआ. द्वाराहाट के पास चोंचरी और बागेश्वर के पालड़ी में स्थानीय जनता ने वन में पेड़ों का कटान रुकवा दिया.

रक्षा सूत्र आंदोलन: 1994 में टिहरी के भिलंगना इलाके में वन बचाने के लिए रक्षा सूत्र आंदोलन शुरू हुआ. दरअसल तत्कालीन उत्तर प्रदेश के वन विभाग ने ऊंचाई पर स्थित वनों के कटान पर लगा प्रतिबंध हटा दिया था. ऐसे में करीब ढाई हजार बांज, देवदार और बुरांस जैसे कीमती पेड़ों का काटने की अनुमति मिल गई थी. इसके विरोध में स्थानीय महिलाओं ने बहुत बड़ा आंदोलन छेड़ दिया. जिन पेड़ों को काटे जाने के लिए निशान लगाया गया था, उन पेड़ों पर रक्षा सूत्र बांधे गए. जनता के आंदोलन के आगे वन विभाग को घुटने टेकने पड़े थे और ये ढाई हजार पेड़ बच गए.
ये भी पढ़ें: पद्मश्री कल्याण सिंह रावत ने चमोली आपदा को बताया दुर्भाग्यपूर्ण, कहा- ग्लोबल वार्मिंग जिम्मेदार

पर्यावरण संरक्षण का मैती आंदोलन: उत्तराखंड में मैती का अर्थ मायका होता है. इस आंदोलन के जनक कल्याण सिंह रावत थे. 1996 में इस आंदोलन ने बहुत प्रसिद्धि पाई थी. दरअसल कल्याण सिंह रावत ने चमोली जिले के ग्वालदम की छात्राओं को शैक्षिक भ्रमण के दौरान बुग्याल की देखभाल करते देखा था. तब कल्याण ने महसूस किया कि महिलाएं और युवतियां पर्यावरण संरक्षण के लिए ज्यादा समर्थ हैं. इसी से मैती आंदोलन का सूत्रपात हो गया. उत्तराखंड में आज भी विवाह समारोह के समय वर वधू पौधा रोपते हैं. इसके बाद मायके वाले इस पौधे की देखभाल करते हैं. दिलचस्प बात ये है कि शादी के निमंत्रण पत्र भी मैती कार्यक्रम छपवाया जाता है.

घायल हिरन के बच्चे को गुलदार से बचाया

चमोली: जनपद के देवाल ब्लॉक के वाण गांव की धामती देवी जंगल में चारापत्ती लेने के लिए गयी थीं. वहां उन्होंने देखा कि एक गुलदार हिरन के बच्चे पर हमला कर रहा है. धामती देवी ने शोर मचाकर गुलदार को भगा दिया. हिरन के बच्चे देखकर उनकी ममता पिघल पड़ी. हिरन का बच्चा दर्द से कराह रहा था. घायल हिरन के बच्चे को देखकर धामती देवी से नहीं रहा गया. धामती देवी चारापत्ती को छोड़कर हिरन के बच्चे को घर ले आईं. हिरन का घायल बच्चा चम्मच से दूध नहीं पी पा रहा था.

अपने बच्चे की तरह हिरन के बच्चे को बचा लाईं धामती देवी: धामती देवी ने हिरन के बच्चे को दूध पिलाने के लिए बाजार से एक बोतल खरीदी. हिरन के बच्चे को घर लाकर दूध पिलाया. जिसके बाद उन्होंने इसकी सूचना सामाजिक कार्यकर्ता हीरा सिंह गढ़वाली को दी. हीरा सिंह गढ़वाली ने वन विभाग को सूचित किया. वन कर्मी धामती देवी के घर आए और हिरन के बच्चे को निकटवर्ती पशु चिकित्सालय वाण ले गये. पशु चिकित्सालय वाण में पशु चिकित्सा फार्मासिस्ट मनीष कुमार पांडेय द्वारा हिरन के घायल बच्चे का उपचार किया गया. जिसके बाद इसे वन विभाग को सौंपा गया.

धामती देवी ने पेश की मिसाल: वन विभाग के वन दारोगा गबर सिंह बिष्ट ने धामती देवी का आभार व्यक्त किया. उन्होंने कहा कि धामती देवी ने मानवता की मिसाल पेश की है. सामाजिक कार्यकर्ता हीरा सिंह गढ़वाली ने कहा कि आज के इस युग में धामती देवी जैसी महिलायें भी हैं जिन्होंने एक बेजुबान जानवर की जान बचा कर लोगों के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है. वन विभाग को ऐसी महिलाओं को सम्मानित करना चाहिए. इस अवसर पर रंजीत बिष्ट, कुशल कनियाल, हुकुम सिंह, कृष्णा सिंह, मोहन सिंह, संतोष सिंह सहित अन्य ग्रामीण मौजूद थे.

वन और वन्य जीवों को बचाने का रहा है उत्तराखंड का इतिहास: वन और वन्य जीवों को बचाने का उत्तराखंड का बहुत पुराना इतिहास रहा है. चिपको आंदोलन की नायिका गौरा देवी उत्तराखंड के इसी चमोली जिले से थीं जहां से धामती देवी हैं. चिपको आंदोलन के मार्गदर्शक चंडी प्रसाद को पर्यावरण सुरक्षा के लिए रेमन मैग्सेसे अवॉर्ड मिला. पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा का नाम कौन नहीं जानता. बहुगुणा ने अपना पूरा जीवन बड़े बांधों के विरोध और पर्यावरण सुरक्षा के लिए समर्पित कर दिया.

उत्तराखंड में हुए प्रमुख वन आंदोलन
रंवाई आंदोलन: आजादी से पहले टिहरी रियासत में राजा नरेंद्र शाह के समय एक वन कानून लागू हुआ था. इस कानून के तहत किसानों की भूमि को भी वन भूमि में शामिल किया जा सकता था. इस कानून के खिलाफ रंवाई के लोगों ने आजाद पंचायत की घोषणा की थी. यानी टिहरी रियासत के खिलाफ सीधे विद्रोह शुरू कर दिया था. जब ये आंदोलन जोर पकड़ने लगा तो 30 मई 1930 को टिहरी रियासत के दीवान चक्रधर जुयाल के आदेश पर टिहरी की सेना ने रंवाई के आंदोलनकारियों पर गोलियां चला दीं. बताया जाता है कि गोलियां लगने से सैकड़ों किसान शहीद हो गए थे. रंवाई इलाके में 30 मई के दिन शहीद दिवस आज भी मनाया जाता है.

जंगल बचाने के लिए चिपको आंदोलन: 1970 के दशक में चमोली जिले में वनों का अंधाधुंध कटान हो रहा था. तब चमोली की महिलाओं ने 'हिम पुत्रियों की ललकार, वन नीति बदले सरकार' नारा दिया था. रैणी गांव ने वन बचाने के लिए सबसे जोरशोर से आवाज उठाई थी. 23 साल की गौरा देवी ने चिपको आंदोलन के लिए महिलाओं के इकट्ठा किया. महिलाएं जंगल में जाकर पेड़ों से लिपट गईं और ठेकेदार के लोगों को पेड़ नहीं काटने दिए. ये आंदोलन दुनिया भर में प्रसिद्ध हुआ.

1977 का वन आंदोलन: 1977 में वनों की नीलामी के विरोध में तत्कालीन उत्तर प्रदेश के पहाड़ी इलाके उत्तराखंड में बड़ा आंदोलन हुआ. प्रदर्शनकारियों ने नैनीताल का शैले हॉल जला दिया. इस आंदोलन में छात्र शक्ति शामिल थी. अनेक छात्रों की गिरफ्तारी हुई. 1978 में उत्तराखंड बंद हुआ. द्वाराहाट के पास चोंचरी और बागेश्वर के पालड़ी में स्थानीय जनता ने वन में पेड़ों का कटान रुकवा दिया.

रक्षा सूत्र आंदोलन: 1994 में टिहरी के भिलंगना इलाके में वन बचाने के लिए रक्षा सूत्र आंदोलन शुरू हुआ. दरअसल तत्कालीन उत्तर प्रदेश के वन विभाग ने ऊंचाई पर स्थित वनों के कटान पर लगा प्रतिबंध हटा दिया था. ऐसे में करीब ढाई हजार बांज, देवदार और बुरांस जैसे कीमती पेड़ों का काटने की अनुमति मिल गई थी. इसके विरोध में स्थानीय महिलाओं ने बहुत बड़ा आंदोलन छेड़ दिया. जिन पेड़ों को काटे जाने के लिए निशान लगाया गया था, उन पेड़ों पर रक्षा सूत्र बांधे गए. जनता के आंदोलन के आगे वन विभाग को घुटने टेकने पड़े थे और ये ढाई हजार पेड़ बच गए.
ये भी पढ़ें: पद्मश्री कल्याण सिंह रावत ने चमोली आपदा को बताया दुर्भाग्यपूर्ण, कहा- ग्लोबल वार्मिंग जिम्मेदार

पर्यावरण संरक्षण का मैती आंदोलन: उत्तराखंड में मैती का अर्थ मायका होता है. इस आंदोलन के जनक कल्याण सिंह रावत थे. 1996 में इस आंदोलन ने बहुत प्रसिद्धि पाई थी. दरअसल कल्याण सिंह रावत ने चमोली जिले के ग्वालदम की छात्राओं को शैक्षिक भ्रमण के दौरान बुग्याल की देखभाल करते देखा था. तब कल्याण ने महसूस किया कि महिलाएं और युवतियां पर्यावरण संरक्षण के लिए ज्यादा समर्थ हैं. इसी से मैती आंदोलन का सूत्रपात हो गया. उत्तराखंड में आज भी विवाह समारोह के समय वर वधू पौधा रोपते हैं. इसके बाद मायके वाले इस पौधे की देखभाल करते हैं. दिलचस्प बात ये है कि शादी के निमंत्रण पत्र भी मैती कार्यक्रम छपवाया जाता है.

Last Updated : Feb 7, 2023, 1:05 PM IST
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