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राजभवन की देहरी पर बच्चों ने गाए 'फूल देई, छम्मा देई, देणी द्वार, भर भकार, ये देली स बारम्बार नमस्कार...

उत्तराखंड में गुरुवार से फूलदेई लोकपर्व की शुरुआत हो गई है. जिसके चलते देवभूमि में इन दिनों 'फूल देई, छम्मा देई', जैसे गीतों की गूंज सुनाई दे रही है.

उत्तराखंड में शुरू हुआ फूलदेई लोकपर्व.
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Published : Mar 14, 2019, 11:03 PM IST

देहरादून: उत्तराखंड में गुरुवार से फूलदेई लोकपर्व की शुरुआत हो गई है. जिसके चलते देवभूमि में इन दिनों 'फूल देई, छम्मा देई', जैसे गीतों की गूंज सुनाई दे रही है. 14 मार्च को चैत्र मास की संक्रांति से शुरू हुआ ये लोकपर्व देवभूमि में अगले कुछ दिनों तक मनाया जाएगा.

उत्तराखंड में शुरू हुआ फूलदेई लोकपर्व.

बसन्त ऋतु के स्वागत का त्योहार ‘फूलदेई’ के दिन देवभूमि में छोटे बच्चे सुबह ही उठकर जंगलों की ओर चले जाते हैं. वहां से वह प्योली, फ्यूंली, बुरांस, बासिंग जैसे जंगली फूलों के अलावा आडू, खुमानी, पुलम के फूलों को चुनकर लाते हैं. जिसके बाद एक थाली या रिंगाल की टोकरी में चावल, हरे पत्ते, नारियल और इन फूलों को सजाकर हर घर की देहरी पर जाते हैं. इस दौरान वह देहरी का पूजन करते हुये 'फूल देई, छम्मा देई' जैसे गीत गाते हैं.

पढ़ें:आचार संहिता लगने के बाद शांति भंग के 716 मामले आए सामने, 6173 लोगों पर कार्रवाई

पूरे उत्तराखंड में ‘फूलदेई’ बड़े ही धूमधाम से मनाया जा रहा है. इसी कड़ी में गुरुवार को राजभवन में राज्यपाल बेबी रानी मौर्य ने छोटे बच्चों के साथ इस पर्व को मनाया. इस मौके पर राज्यपाल बेबी रानी मौर्य ने बच्चों को गुड़ और चावल देकर पर्व की रस्म अदायगी पूरी की और साथ ही पर्यावरण संरक्षण का संदेश भी दिया.

देहरादून: उत्तराखंड में गुरुवार से फूलदेई लोकपर्व की शुरुआत हो गई है. जिसके चलते देवभूमि में इन दिनों 'फूल देई, छम्मा देई', जैसे गीतों की गूंज सुनाई दे रही है. 14 मार्च को चैत्र मास की संक्रांति से शुरू हुआ ये लोकपर्व देवभूमि में अगले कुछ दिनों तक मनाया जाएगा.

उत्तराखंड में शुरू हुआ फूलदेई लोकपर्व.

बसन्त ऋतु के स्वागत का त्योहार ‘फूलदेई’ के दिन देवभूमि में छोटे बच्चे सुबह ही उठकर जंगलों की ओर चले जाते हैं. वहां से वह प्योली, फ्यूंली, बुरांस, बासिंग जैसे जंगली फूलों के अलावा आडू, खुमानी, पुलम के फूलों को चुनकर लाते हैं. जिसके बाद एक थाली या रिंगाल की टोकरी में चावल, हरे पत्ते, नारियल और इन फूलों को सजाकर हर घर की देहरी पर जाते हैं. इस दौरान वह देहरी का पूजन करते हुये 'फूल देई, छम्मा देई' जैसे गीत गाते हैं.

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पूरे उत्तराखंड में ‘फूलदेई’ बड़े ही धूमधाम से मनाया जा रहा है. इसी कड़ी में गुरुवार को राजभवन में राज्यपाल बेबी रानी मौर्य ने छोटे बच्चों के साथ इस पर्व को मनाया. इस मौके पर राज्यपाल बेबी रानी मौर्य ने बच्चों को गुड़ और चावल देकर पर्व की रस्म अदायगी पूरी की और साथ ही पर्यावरण संरक्षण का संदेश भी दिया.

Intro:एंकर- उत्तराखंड के प्राकृतिक सौंदर्य का बोध कराता लोकपर्व फूलदेई की आज शुरवात हो गई हैं। चैत्र मास के फुल संक्राति से शुरू होने वाले इस पर को उत्तराखंड में धूमधाम से मनाया गया इस मौके पर राज्यपाल मुख्यमंत्री सहित प्रकृति प्रेमियों ने इस पर्व को मनाया वहीं देश के साथ-साथ विदेश में भी कई जगह इस पर्व को मनाया जाता है


Body:हिमालय की गोद में बसा देवभूमि उत्तराखंड में लोकपर्वों का प्रकृति के साथ पौराणिक संबंध है। ऐसा ही एक पर्व है फूलदेई जो कि चैत्र मास कि फूलदेई संक्रांति के साथ मनाया जाता है। इस पर्व के माध्यम से बसंत ऋतु के महत्व को हर्षोल्लास के संदेश के रूप में मनाया जाता है। गुरुवार को राजभवन में राज्यपाल बेबी रानी मौर्य ने नन्हे-मुन्ने बच्चों के साथ इस पर्व को मनाया। इस मौके पर राज्यपाल बेबी रानी मौर्य ने बच्चों को गुड और चावल देकर पर्व की रस्म अदायगी पूरी करें साथ ही पर्यावरण संरक्षण का भी संदेश दिया।
आपको बता दें कि प्राचीन काल से बसंत ऋतु के आगाज के साथ ही चैत्र मास की फूलदेई संक्रांति के साथ इस पर्व को मनाया जाता है। हालांकि आज लोग इस पर्व को भूलने लगे हैं । फुलदेई संक्रांति के साथ बसंत ऋतु का आगाज माना जाता है जिसके साथ फूलों का खिलना शुरू हो जाता है जिसे लेकर प्राचीन काल से हिमालय क्षेत्र में फूलदेई पर्व के रूप में नन्हे मुन्ने बच्चे सुबह सुबह ताजे फूलों को अपनी टोकरी में भरकर पूरे गांव की चौखट ओं पर डालते थे और यह सिलसिला पूरा 1 महीने तक चलता था और उसके बाद माह के अंतिम दिन सभी बच्चे उन सभी घरों में जाकर जहां उन्होंने पूरे महीने फूल चढ़ाए हैं वहां जाकर गुड़ और चावल एक विशेष गीत को गाकर मांगते थे। लेकिन आज के शहरीकरण और आधुनिकरण की चकाचौंध के तले प्रकृति के संरक्षण से जोड़ता यह पर्व विलुप्ति की कगार पर है। लेकिन इसके बावजूद भी लोक संस्कृति और पर्यावरण प्रेमी कुछ मुठी भर लोग इस पर्व का अस्तित्व बचाए हुए हैं जो राज्य की सीमाओं से बाहर देश और विदेश में इस पर्व को सांकेतिक रूप में मनाते हैं।


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