देहरादून: उत्तराखंड अपने खान-पान और संस्कृति की वजह से देशभर में एक अलग पहचान रखता है. ऐसे में अब पहाड़ी भोजन बच्चों को दिए जा रहे मिड-डे-मील में जोड़ने की मांग उठ रही है. लोगों का कहना है कि इससे बच्चों को पोषक आहार भी मिलेगा, साथ ही पहाड़ी किसानों की आजीविका भी चलती रहेगी.
मामले में हिमालय पर्यावरण जड़ी बूटी एग्रो संस्थान जाड़ी ने त्रिवेंद्र सरकार से परंपरागत गढ़भोज को सरकारी स्कूलों के मिड-डे-मील और अन्य सरकारी संस्थानों में शुरू करवाने की मांग की है. संस्थान के मुताबिक उत्तराखंड में करीब 20 हजार स्कूलों में हफ्ते में एक दिन पारंपरिक भोजन गढ़भोज दिया जा सकता है.
संस्थान के मुताबिक मडवा जो 25 रुपये प्रति किलो और साग कंडाली जो 10 प्रति गड्डी है, अगर इसे मिड-डे-मील में शामिल किया जाएगा तो सालना 8 लाख रुपये के साग की खपत हो जाएगी. इससे पहाड़ी किसानों को आजीविका का साधन मिलेगा और पलायन रुकेगा.
हिमालय पर्यावरण जड़ी बूटी एग्रो संस्थान से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता द्वारिका प्रसाद सेमवाल के मुताबिक उनके संस्थान ने 2008 से परंपरागत भोजन को पहचान दिलाने का काम शुरू किया था. इसके तहत गढ़वाल और कुमाऊं में विभिन्न जगहों पर स्थानीय भोजन और उनके प्रकार पर चर्चा की गई. इस चर्चा में सबसे पहले सर्वसम्मति से परंपरागत भोजन को गढ़भोज नाम दिया गया.
इसके बाद उत्तरकाशी जिला मुख्यालय में सरकारी बैठकों, प्रशिक्षण कार्यक्रमों, शादी समारोह आदि में गढ़भोज को परोसने का कार्य किया गया. इस कार्य के लिए स्थानीय किसानों और महिला समूहों को जोड़ा गया. वहीं किसान की उपज को महिला समूहों तक पहुंचाया गया और उनके द्वारा गढ़भोज तैयार किया गया. इस प्रक्रिया से स्थानीय स्तर पर महिलाओं के लिए रोजगार का नया साधन विकसित हुआ. साथ ही किसानों को उनकी उपज के साथ ही खरपतवार माने जाने वाले कंडाली आदि की भी सही कीमत मिलने लगी.
संस्थान के मुताबिक पहाड़ी अनाज, साग, सब्जियों जैसे पौष्टिकता से भरपूर अनाजों को गढ़भोज के नाम से मिड डे मील, सरकारी कैंटीन, अस्पतालों, होटल आदि में शामिल किया जाए. साथ ही हफ्ते में एक दिन परोसना अनिवार्य कर दिया जाए तो पहाड़ के लोगों की आमदनी बढ़ेगी और पलायन काफी हद तक रुकेगा. वहीं गढ़भोज के जरिए ही 50 करोड़ से ज्यादा की राशि ग्रामीण काश्तकारों तक पहुंचेगी.