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गढ़भोज को मिड-डे-मील में शामिल करने की उठी मांग, दावा-पलायन रोकने में होगा कारगर और किसान होंगे मालामाल - मिड डे मील

हिमालय पर्यावरण जड़ी बूटी एग्रो संस्थान जाड़ी ने त्रिवेंद्र सरकार से परंपरागत गढ़भोज को सरकारी स्कूलों के मिड-डे-मील और अन्य सरकारी संस्थानों में शुरू करवाने की मांग की है.

गढ़भोज
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Published : Mar 5, 2019, 10:21 PM IST

देहरादून: उत्तराखंड अपने खान-पान और संस्कृति की वजह से देशभर में एक अलग पहचान रखता है. ऐसे में अब पहाड़ी भोजन बच्चों को दिए जा रहे मिड-डे-मील में जोड़ने की मांग उठ रही है. लोगों का कहना है कि इससे बच्चों को पोषक आहार भी मिलेगा, साथ ही पहाड़ी किसानों की आजीविका भी चलती रहेगी.

मामले में हिमालय पर्यावरण जड़ी बूटी एग्रो संस्थान जाड़ी ने त्रिवेंद्र सरकार से परंपरागत गढ़भोज को सरकारी स्कूलों के मिड-डे-मील और अन्य सरकारी संस्थानों में शुरू करवाने की मांग की है. संस्थान के मुताबिक उत्तराखंड में करीब 20 हजार स्कूलों में हफ्ते में एक दिन पारंपरिक भोजन गढ़भोज दिया जा सकता है.

गढ़भोज को मिड डे मील में शामिल करने की मांग

संस्थान के मुताबिक मडवा जो 25 रुपये प्रति किलो और साग कंडाली जो 10 प्रति गड्डी है, अगर इसे मिड-डे-मील में शामिल किया जाएगा तो सालना 8 लाख रुपये के साग की खपत हो जाएगी. इससे पहाड़ी किसानों को आजीविका का साधन मिलेगा और पलायन रुकेगा.

हिमालय पर्यावरण जड़ी बूटी एग्रो संस्थान से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता द्वारिका प्रसाद सेमवाल के मुताबिक उनके संस्थान ने 2008 से परंपरागत भोजन को पहचान दिलाने का काम शुरू किया था. इसके तहत गढ़वाल और कुमाऊं में विभिन्न जगहों पर स्थानीय भोजन और उनके प्रकार पर चर्चा की गई. इस चर्चा में सबसे पहले सर्वसम्मति से परंपरागत भोजन को गढ़भोज नाम दिया गया.

इसके बाद उत्तरकाशी जिला मुख्यालय में सरकारी बैठकों, प्रशिक्षण कार्यक्रमों, शादी समारोह आदि में गढ़भोज को परोसने का कार्य किया गया. इस कार्य के लिए स्थानीय किसानों और महिला समूहों को जोड़ा गया. वहीं किसान की उपज को महिला समूहों तक पहुंचाया गया और उनके द्वारा गढ़भोज तैयार किया गया. इस प्रक्रिया से स्थानीय स्तर पर महिलाओं के लिए रोजगार का नया साधन विकसित हुआ. साथ ही किसानों को उनकी उपज के साथ ही खरपतवार माने जाने वाले कंडाली आदि की भी सही कीमत मिलने लगी.

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संस्थान के मुताबिक पहाड़ी अनाज, साग, सब्जियों जैसे पौष्टिकता से भरपूर अनाजों को गढ़भोज के नाम से मिड डे मील, सरकारी कैंटीन, अस्पतालों, होटल आदि में शामिल किया जाए. साथ ही हफ्ते में एक दिन परोसना अनिवार्य कर दिया जाए तो पहाड़ के लोगों की आमदनी बढ़ेगी और पलायन काफी हद तक रुकेगा. वहीं गढ़भोज के जरिए ही 50 करोड़ से ज्यादा की राशि ग्रामीण काश्तकारों तक पहुंचेगी.

देहरादून: उत्तराखंड अपने खान-पान और संस्कृति की वजह से देशभर में एक अलग पहचान रखता है. ऐसे में अब पहाड़ी भोजन बच्चों को दिए जा रहे मिड-डे-मील में जोड़ने की मांग उठ रही है. लोगों का कहना है कि इससे बच्चों को पोषक आहार भी मिलेगा, साथ ही पहाड़ी किसानों की आजीविका भी चलती रहेगी.

मामले में हिमालय पर्यावरण जड़ी बूटी एग्रो संस्थान जाड़ी ने त्रिवेंद्र सरकार से परंपरागत गढ़भोज को सरकारी स्कूलों के मिड-डे-मील और अन्य सरकारी संस्थानों में शुरू करवाने की मांग की है. संस्थान के मुताबिक उत्तराखंड में करीब 20 हजार स्कूलों में हफ्ते में एक दिन पारंपरिक भोजन गढ़भोज दिया जा सकता है.

गढ़भोज को मिड डे मील में शामिल करने की मांग

संस्थान के मुताबिक मडवा जो 25 रुपये प्रति किलो और साग कंडाली जो 10 प्रति गड्डी है, अगर इसे मिड-डे-मील में शामिल किया जाएगा तो सालना 8 लाख रुपये के साग की खपत हो जाएगी. इससे पहाड़ी किसानों को आजीविका का साधन मिलेगा और पलायन रुकेगा.

हिमालय पर्यावरण जड़ी बूटी एग्रो संस्थान से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता द्वारिका प्रसाद सेमवाल के मुताबिक उनके संस्थान ने 2008 से परंपरागत भोजन को पहचान दिलाने का काम शुरू किया था. इसके तहत गढ़वाल और कुमाऊं में विभिन्न जगहों पर स्थानीय भोजन और उनके प्रकार पर चर्चा की गई. इस चर्चा में सबसे पहले सर्वसम्मति से परंपरागत भोजन को गढ़भोज नाम दिया गया.

इसके बाद उत्तरकाशी जिला मुख्यालय में सरकारी बैठकों, प्रशिक्षण कार्यक्रमों, शादी समारोह आदि में गढ़भोज को परोसने का कार्य किया गया. इस कार्य के लिए स्थानीय किसानों और महिला समूहों को जोड़ा गया. वहीं किसान की उपज को महिला समूहों तक पहुंचाया गया और उनके द्वारा गढ़भोज तैयार किया गया. इस प्रक्रिया से स्थानीय स्तर पर महिलाओं के लिए रोजगार का नया साधन विकसित हुआ. साथ ही किसानों को उनकी उपज के साथ ही खरपतवार माने जाने वाले कंडाली आदि की भी सही कीमत मिलने लगी.

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संस्थान के मुताबिक पहाड़ी अनाज, साग, सब्जियों जैसे पौष्टिकता से भरपूर अनाजों को गढ़भोज के नाम से मिड डे मील, सरकारी कैंटीन, अस्पतालों, होटल आदि में शामिल किया जाए. साथ ही हफ्ते में एक दिन परोसना अनिवार्य कर दिया जाए तो पहाड़ के लोगों की आमदनी बढ़ेगी और पलायन काफी हद तक रुकेगा. वहीं गढ़भोज के जरिए ही 50 करोड़ से ज्यादा की राशि ग्रामीण काश्तकारों तक पहुंचेगी.

Intro:देहरादून - देश में हर राज्य की अपनी संस्कृति व खानपान की एक अलग विशेषता पहचान होती है इसी तरह उत्तराखंड राज्य की भी अपनी एक अलग विशेष संस्कृति खानपान एक पहाड़ी गढ़भोज से जुड़ी हुई है, लेकिन अभी तक उत्तराखंड के खानपान को कोई विशेष पहचान नहीं मिल सकी है जैसा देश के अन्य राज्यों के भोजन की पहचान है। चार धाम यात्रा सहित वर्षभर उत्तराखंड में देश-विदेश से पहुंचने वाले लोग उत्तराखंड की संस्कृति व पहाड़ी भोजन की जिज्ञासा जरूर रखते हैं,लेकिन सरकार द्वारा व्यवस्थित तरीके से उन्हें ऐसी कोई व्यवस्था यहां देखने को नहीं मिलती। ऐसे में कई लोक पहाड़ी गढ़ भोज से वंचित रह जाते हैं जबकि अपनी विशेष भौगोलिक परिस्थितियों के चलते उत्तराखंड में बहुत जो पदार्थ पोस्टिक औषधि गुण से भरपूर है जिसके कारण यहां का गढ़ भोज अपने आप में वर्षो से एक खास पहचान रखता है।
इस दिशा में कुछ लोग अपने स्तर से व्यक्तिगत प्रयास जरूर कर रहे हैं लेकिन आवश्यकता है सरकारी प्रयासों की ताकि वृहद स्तर पर पहाड़ी बहुत जी पदार्थों एक पहचान दिलाई जा सके साथ ही इससे पहाड़ी क्षेत्रों के किसानों के लिए बेहतर आजीविका व बेहतर स्वास्थ्य का मार्ग प्रशस्त हो सके।
पहाड़ की गढ़ भोज व्यंजनों और उत्पादों को लेकर "हिमालय पर्यावरण जड़ी बूटी एग्रो संस्थान जाड़ी" संस्थान इसी प्रयास में लगातार वर्षों से जुड़ा हुआ है इसी संस्थान से जुड़े सामाजिक लोग उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत से मिलकर उत्तराखंड के परंपरागत भोजन गढ़भोज को सरकारी स्कूलों के मिड डे मील सहित अन्य सरकारी संस्थानों में शुरू करवाने की मांग कर रहे हैं उनके अनुसार अगर उत्तराखंड के 20 हज़ार सरकारी विद्यालयों में 'मिड डे मील" सप्ताह में एक दिन 2 किलो मडवा जो ₹25 प्रति के लिए प्रयुक्त होता है साथी पोस्टिक से भरपूर हरा साग कंडाली जो ₹10 प्रति गड्डी के हिसाब से स्कूलों में लगाया जाए तो उसके हिसाब से 20 हज़ार स्कूलों में 8 लाख रुपये तक का हरे साग की खपत होने से पहाड़ी किसानों की आजीविका का साधन बन सकती हैं।




Body:उत्तराखंड पर्वतीय क्षेत्रों में संस्कृति व परंपरागत खेती से स्वास्थ्यवर्धक उपज ने वाले खाद्य पदार्थों को बढ़ावा देने के लिए हिमालय पर्यावरण जड़ी बूटी एग्रो संस्थान जाड़ी से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता द्वारिका प्रसाद सेमवाल के अनुसार हिमालय परिवार पर्यावरण जड़ी बूटी एग्रो संस्थान जोड़ी ने वर्ष 2008 में परंपरागत भोजन को पहचान दिलाने का कार्य शुरू किया इसके तहत गढ़वाल और कुमाऊं में विभिन्न जगहों पर स्थानीय भोजन व उनके प्रकार की चर्चा की,इसमें सबसे पहले भोजन के नाम लेकर सर्वसम्मति से परंपरागत भोजन को गढ़भोज नाम दिया गया । ऐसे में सबसे पहले उत्तरकाशी जनपद मुख्यालय में सरकारी बैठकों, प्रशिक्षण कार्यक्रम, मेले प्रदर्शनों शादी समारोह में गढ़भोज को परोसने का कार्य किया। इस कार्य के लिए स्थानीय किसानों और महिलाओं समूह को जोड़ा गया किसान की उपज को महिला समूह तक पहुंचाया गया और उसके द्वारा गढ़भोज तैयार किया गया। इस प्रक्रिया से स्थानीय स्तर पर महिलाओं के लिए रोजगार का नया साधन विकसित हुआ और किसानों को उनकी उपज के साथ ही खरपतवार माने जाने वाले कंडाली, कण्ड्या आदि की भी कीमत मिल रही है इसके अलावा लगातार चल रहे इस प्रयास के कारण आज उत्तराखंड में विभिन्न आयोजनों में शामिल हो गया है।


Conclusion:इतना ही नहीं उत्तराखंड के गढ़भोज पहाड़ी संस्कृति से जुड़े भोजन पदार्थों के विषय में यह मांग लगातार की जा रही है कि पहाड़ों से पलायन और वहां रोजगार की दिशा में कार्य करने के चलते अगर सरकार पहाड़ी अनाज, साग, सब्जियां जैसे पौष्टिकता से भरपूर अनाजों के उत्पादन को गढ़भोज के नाम से मिड डे मील ,सरकारी कैंटीन, हॉस्पिटल,हॉस्टल अतिथि ग्रह, होटल रेस्टोरेंट में सप्ताह में 1 दिन अनिवार्य परोसने की अगर व्यवस्था की जाए तो इससे व्यापक पहाड़ों में रोजगार होने के साथ पलायन जैसे मुद्दे पर लगाम लगाई जा सकती है। सरकारी बैठकों में प्रशिक्षण, सेमिनार ,मेला प्रदर्शनी आदि में भी अनिवार्य रूप से एक बार पहाड़ी व्यंजनों के अस्तित्व को बचाने के लिए अगर गढ़भोज को शामिल की जाए तो इससे पहाड़ की संस्कृति को बचाया जा सकता है।
हिमालय पर्यावरण जड़ी बूटियां एग्रो संस्थान "जाडी" द्वारा उत्तराखंड के मुख्यमंत्री से यह मांग की गई है कि को गढ़भोज को उत्तराखंड की संस्कृति से जोड़ते हुए पहाड़ से विलुप्त होने वाली पोस्टिक खाद्य पदार्थों के अस्तित्व को बचाने के लिए सरकारी संस्थानों में अन्य व्यंजनों के साथ गढ़भोज को शामिल कर 50 करोड़ से अधिक राशि हमारे ग्रामीण काश्तकार तक पहुँचा सकती है, ऐसे में पहाड़ के परंपरागत खेती फायदेमंद होगा और स्वास्थ वर्धक उपज की ओर का पहाड़ से पलायन करने वाला मजबूर किसान अपने घर लौट सकेंगे।

बाईट-द्वारिका प्रसाद सेमवाल, सामाजिक कार्यकर्ता, गढ़भोज प्रेरक
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