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विलुप्ति की कगार पर कुमाऊं की ऐपण कला, आधुनिकता पड़ रही भारी

कुमाऊं की ऐपण कला काफी प्रसिद्ध है. जो विरासत ही नहीं बल्कि, संस्कृति एवं कला को भी दर्शाती है. जिसका सामाजिक रीति रिवाज में अपना अलग ही महत्व है, लेकिन ये परंपरा और संस्कृति विलुप्त होने की कगार पर है.

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Published : Oct 27, 2019, 7:16 PM IST

Updated : Oct 27, 2019, 7:50 PM IST

बागेश्वरः दीपावली पर्व पर पारंपरिक रंगोली यानि ऐपण का विशेष महत्व माना जाता है. ऐपण कला उत्तराखंड की संस्कृति को दर्शाता है. जो प्राचीन काल से ही चली आ रही परंपरा है. खास मौकों पर महिलाएं पारंपरिक वेशभूषा में ऐपण बनाती है. इसी कड़ी में कुमाऊं में ऐपण विरासत ही नहीं बल्कि, संस्कृति और कला को भी प्रदर्शित करती है, लेकिन आधुनिकता और घरों के बदलते स्वरूप ने ऐपणों की जगह बाजार में आ रहे स्टीकरों व प्लास्टिक पेंटिंग ने ले ली है. ऐसे में पांरपरिक कला विलुप्ति की कगार पर है.

विलुप्ति की कगार पर कुमाऊं की ऐपण कला.

दीपावली पर्व पर ऐपण रंगोली बनाने का विशेष महत्व है. इस दौरान घरों में रंगोली बनाने के साथ माता लक्ष्मी की चरण पादुका और गणेश चौकी भी बनाई जाती है. गृहणियां विभिन्न प्रकार की रंगोलियां बनाकर घर, आंगन और मंदिरों को सजाती हैं. इतना ही नहीं ओखली से मंदिर तक लक्ष्मी के चरण बनाए जाते हैं. ऐपण बनाने के लिए लाल मिट्टी और पिसे हुए चावलों के विस्वार का प्रयोग किया जाता है.

ये भी पढ़ेंः दीपावलीः पटाखे जलाते समय रहें सावधान, इन बातों का रखें ध्यान

उत्तराखंड के ग्रामीण अंचलों में आज भी कहीं-कहीं ऐपण बनाने की यह परंपरा नजर आती है. ऐपण कला की खास बात ये है कि इसे बनाने में किसी ब्रश का प्रयोग नहीं किया जाता है. बल्कि, यह हाथ की अंगुलियों से बनाई जाती है, लेकिन धीरे-धीरे घरों के बदलते स्वरूप और बदलते जीवन शैली में ये कला अब विलुप्त हो रही है. वहीं, दूसरी ओर बाजारों में प्लास्टिक से बने हुए स्टीकर आ रहे हैं. जो पर्यावरण प्रदूषण का कारण भी बन रहे हैं.

कुमाऊं की ऐपण कला काफी प्रसिद्ध है. जो विरासत ही नहीं बल्कि, संस्कृति एवं कला को भी दर्शाती है. जिसका समाज रीति रिवाज में अपना अलग ही महत्व है. गृहणी रश्मि साह और पूनम का कहना है कि पारंपरिक ऐपण में लाल रंग की मिट्टी (गेरू) से मंदिर, आंगन और ओखली की पुताई की जाती है. जिसके बाद चावल को पीसकर सफेद पेंट (विस्वार) तैयार किया जाता है. इसके बाद ओखली से माता लक्ष्मी की चरण पादुकाओं का निर्माण घर के अंदर मंदिर तक किया जाता है.

ये भी पढ़ेंः दीपावली पर इस विधि से करें गणेश और लक्ष्मी की पूजा, मिलेगी अपार सुख समृद्धि

मान्यता है कि लक्ष्मी अन्न और धन की देवी है. ऐसे में ओखली से चरण पादुकाओं का निर्माण घर के अंदर की ओर किया जाता है. जिससे घर में अन्न के भंडार भरे रहें, लेकिन आधुनिकता के कारण बाजार में आ रहे स्टीकरों ने ऐपण संस्कृति पर खतरा पैदा कर दिया है. दीपावली ही नहीं बल्कि, सभी शुभ कार्यों पर ऐपण बनाने की परंपरा उत्तराखंड में सदियों से चली आ रही है. ऐसे में इसे विरासत के रूप में संजोने की दरकार है.

बागेश्वरः दीपावली पर्व पर पारंपरिक रंगोली यानि ऐपण का विशेष महत्व माना जाता है. ऐपण कला उत्तराखंड की संस्कृति को दर्शाता है. जो प्राचीन काल से ही चली आ रही परंपरा है. खास मौकों पर महिलाएं पारंपरिक वेशभूषा में ऐपण बनाती है. इसी कड़ी में कुमाऊं में ऐपण विरासत ही नहीं बल्कि, संस्कृति और कला को भी प्रदर्शित करती है, लेकिन आधुनिकता और घरों के बदलते स्वरूप ने ऐपणों की जगह बाजार में आ रहे स्टीकरों व प्लास्टिक पेंटिंग ने ले ली है. ऐसे में पांरपरिक कला विलुप्ति की कगार पर है.

विलुप्ति की कगार पर कुमाऊं की ऐपण कला.

दीपावली पर्व पर ऐपण रंगोली बनाने का विशेष महत्व है. इस दौरान घरों में रंगोली बनाने के साथ माता लक्ष्मी की चरण पादुका और गणेश चौकी भी बनाई जाती है. गृहणियां विभिन्न प्रकार की रंगोलियां बनाकर घर, आंगन और मंदिरों को सजाती हैं. इतना ही नहीं ओखली से मंदिर तक लक्ष्मी के चरण बनाए जाते हैं. ऐपण बनाने के लिए लाल मिट्टी और पिसे हुए चावलों के विस्वार का प्रयोग किया जाता है.

ये भी पढ़ेंः दीपावलीः पटाखे जलाते समय रहें सावधान, इन बातों का रखें ध्यान

उत्तराखंड के ग्रामीण अंचलों में आज भी कहीं-कहीं ऐपण बनाने की यह परंपरा नजर आती है. ऐपण कला की खास बात ये है कि इसे बनाने में किसी ब्रश का प्रयोग नहीं किया जाता है. बल्कि, यह हाथ की अंगुलियों से बनाई जाती है, लेकिन धीरे-धीरे घरों के बदलते स्वरूप और बदलते जीवन शैली में ये कला अब विलुप्त हो रही है. वहीं, दूसरी ओर बाजारों में प्लास्टिक से बने हुए स्टीकर आ रहे हैं. जो पर्यावरण प्रदूषण का कारण भी बन रहे हैं.

कुमाऊं की ऐपण कला काफी प्रसिद्ध है. जो विरासत ही नहीं बल्कि, संस्कृति एवं कला को भी दर्शाती है. जिसका समाज रीति रिवाज में अपना अलग ही महत्व है. गृहणी रश्मि साह और पूनम का कहना है कि पारंपरिक ऐपण में लाल रंग की मिट्टी (गेरू) से मंदिर, आंगन और ओखली की पुताई की जाती है. जिसके बाद चावल को पीसकर सफेद पेंट (विस्वार) तैयार किया जाता है. इसके बाद ओखली से माता लक्ष्मी की चरण पादुकाओं का निर्माण घर के अंदर मंदिर तक किया जाता है.

ये भी पढ़ेंः दीपावली पर इस विधि से करें गणेश और लक्ष्मी की पूजा, मिलेगी अपार सुख समृद्धि

मान्यता है कि लक्ष्मी अन्न और धन की देवी है. ऐसे में ओखली से चरण पादुकाओं का निर्माण घर के अंदर की ओर किया जाता है. जिससे घर में अन्न के भंडार भरे रहें, लेकिन आधुनिकता के कारण बाजार में आ रहे स्टीकरों ने ऐपण संस्कृति पर खतरा पैदा कर दिया है. दीपावली ही नहीं बल्कि, सभी शुभ कार्यों पर ऐपण बनाने की परंपरा उत्तराखंड में सदियों से चली आ रही है. ऐसे में इसे विरासत के रूप में संजोने की दरकार है.

Intro:बागेश्वर।

एंकर- पूरे देश में दीपावली की धूम मची हुई है। दीपावली में घरों में रंगोली बनाने के साथ माता लक्ष्मी की चरण पादुका बनाने का विशेष महत्व है। गृहणियां विभिन्न प्रकार की रंगोलियां बनाकर घर, आंगन एवं मंदिर को सजाती हैं। उत्तराखंड के ग्रामीण अंचलों में पारंपरिक रंगोली अर्थात ऐपण का विशेष महत्व है। ऐपण कला का उत्तराखंड की संस्कृति के साथ प्राचीन काल से ही गहरा जुड़ाव रहा है। महिलाएं पारंपरिक वस्त्र पहनकर दीपावली में ऐपणों से मंदिरों को सजाती हैं। दीपावली में घर के आंगन में गणेश चौकी तथा लक्ष्मी चौकी बनाई जाती है। ओखली से मंदिर तक लक्ष्मी के चरण बनाए जाते हैं। माता लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए विशेष लाल मिट्टी और पिसे चावल जिसे की विश्वास कहा जाता है का प्रयोग कर महिलाएं ऐपण (रंगोली) तैयार करती हैं ।जो कि सदियों से चला आ रहा है। लेकिन आधुनिकता और घरों के बदलते स्वरूप ने इस दौर में ऐपणों की जगह बाजार में आ रहे स्टीकरों तथा प्लास्टिक पेंट ने ले ली है। जिससे कुमाऊनी ऐपण संस्कृति खतरे में है। साथ ही प्लास्टिक से बने यह स्टिकर पर्यावरण को भी प्रदूषित कर रहे हैं।

वीओ- दीपावली पर्व पर ऐपण रंगोली बनाने का विशेष महत्व है। ऐपण कला उत्तराखंड की संस्कृति से विशेष रूप से जुड़ा हुआ है। ऐपण बनाने के लिए लाल मिट्टी एवं पिसे हुए चावलों के विस्वार का प्रयोग किया जाता है। उत्तराखंड के ग्रामीण अंचलों में आज भी कहीं-कहीं ऐपण बनाने की यह परंपरा नजर आती है। ऐपण कला की खास बात यह है कि इसे बनाने में किसी ब्रश का प्रयोग नहीं किया जाता है यह हाथ की अंगुलियों का प्रयोग कर बनाई जाती है लेकिन धीरे-धीरे घरों के बदलते स्वरूप एवं व्यस्ततम जीवन शैली ने इन ऐपणों की जगह बाजार में आ रहे प्लास्टिक के स्टीकर एवं पेंट से बनाए हुए ऐपणों ने ले ली है। ऐसे में उत्तराखंड की यह परंपरा धीरे-धीरे विलुप्त की कगार पर है। वहीं दूसरी तरफ बाजारों में आ रहे स्टीकर प्लास्टिक से बने हुए हैं, जो कि पर्यावरण को प्रदूषित भी करते हैं।
गृहणी रश्मि साह व पूनम का कहना है कि पारंपरिक ऐपण में सर्वप्रथम लाल रंग की मिट्टी जिसे गेरू कहा जाता है से मंदिर तथा आँगन एवं ओखली की पुताई की जाती है। जिसके बाद चावल को पीसकर सफेद पेंट जिसे विस्वार कहते हैं तैयार किया जाता है । इसके बाद ओखली से माता लक्ष्मी की चरण पादुकाओं का निर्माण घर के अंदर मंदिर तक किया जाता है। कहते हैं कि लक्ष्मी अन्न एवं धन की देवी है। इसीलिए ओखली से चरण पादुकाओं का निर्माण घर के अंदर की ओर किया जाता है। ताकि घर में अन्न के भंडार भरे रहें। लेकिन आधुनिकता के कारण बाजार में आ रहे स्टीकरों के प्रयोग ने हमारी ऐपण संस्कृति पर खतरा पैदा कर दिया है । प्लास्टिक के यह स्टिकर हमारी संस्कृति को तो खतरे में डाल ही रहे हैं साथ ही इससे पर्यावरण प्रदूषण भी बढ़ता जा रहा है।
वहीं स्थानीय निवासी भास्करानंद का कहना है कि पारंपरिक रूप से लाल मिट्टी से पुताई के बाद महिलाएं इसे चावल से बिना किसी ब्रश के सहारे केवल उंगलियों से ऐपण तैयार करती हैं। घर की महिलाएं पारंपरिक परिधान में सज धज कर सुख एवं समृद्धि तथा ऐश्वर्य की कामना के लिए पारंपरिक रूप ऐपण निकालती हैं। गेरू एवं पिसे चावल से सजी ऐपण कला उत्तराखंड की पारंपरिक एवं ऐतिहासिक कला है। हमारे धर्म शास्त्रों में भी इसका विशेष उल्लेख है। दीपावली पर बनने वाली ऐपण में गणेश चौकी, लक्ष्मी चौकी तथा गोधन चौकी का विशेष महत्व है । केवल दीपावली ही नहीं अपितु सभी शुभ कार्यों पर ऐपण बनाने की परम्परा उत्तराखंड में सदियों से चली आ रहा है।

बाईट 01- रश्मी साह, ग्रहणी।
बाईट 02- पूनम, ग्रहणी।
बाईट 03- भाष्करानंद, स्थानीय।

एफवीओ- ऐपण कुमाऊं की विरासत ही नहीं बल्कि संस्कृति एवं कला को भी प्रदर्शित करती है। जिसका हमारे समाज की रीति रिवाज में अपना अलग ही महत्व है। आधुनिक पेंटिंग एवं रेडीमेड स्टिकर के चलन से आज यह परंपरा विलुप्त होती जा रही है। इस परंपरा को जीवित रखने की खास जरूरत है ताकि हमारे आने वाली पीढ़ी अपनी सांस्कृतिक विरासत से अनजान ना रहे।Body:वीओ- दीपावली पर्व पर ऐपण रंगोली बनाने का विशेष महत्व है। ऐपण कला उत्तराखंड की संस्कृति से विशेष रूप से जुड़ा हुआ है। ऐपण बनाने के लिए लाल मिट्टी एवं पिसे हुए चावलों के विस्वार का प्रयोग किया जाता है। उत्तराखंड के ग्रामीण अंचलों में आज भी कहीं-कहीं ऐपण बनाने की यह परंपरा नजर आती है। ऐपण कला की खास बात यह है कि इसे बनाने में किसी ब्रश का प्रयोग नहीं किया जाता है यह हाथ की अंगुलियों का प्रयोग कर बनाई जाती है लेकिन धीरे-धीरे घरों के बदलते स्वरूप एवं व्यस्ततम जीवन शैली ने इन ऐपणों की जगह बाजार में आ रहे प्लास्टिक के स्टीकर एवं पेंट से बनाए हुए ऐपणों ने ले ली है। ऐसे में उत्तराखंड की यह परंपरा धीरे-धीरे विलुप्त की कगार पर है। वहीं दूसरी तरफ बाजारों में आ रहे स्टीकर प्लास्टिक से बने हुए हैं, जो कि पर्यावरण को प्रदूषित भी करते हैं।
गृहणी रश्मि साह व पूनम का कहना है कि पारंपरिक ऐपण में सर्वप्रथम लाल रंग की मिट्टी जिसे गेरू कहा जाता है से मंदिर तथा आँगन एवं ओखली की पुताई की जाती है। जिसके बाद चावल को पीसकर सफेद पेंट जिसे विस्वार कहते हैं तैयार किया जाता है । इसके बाद ओखली से माता लक्ष्मी की चरण पादुकाओं का निर्माण घर के अंदर मंदिर तक किया जाता है। कहते हैं कि लक्ष्मी अन्न एवं धन की देवी है। इसीलिए ओखली से चरण पादुकाओं का निर्माण घर के अंदर की ओर किया जाता है। ताकि घर में अन्न के भंडार भरे रहें। लेकिन आधुनिकता के कारण बाजार में आ रहे स्टीकरों के प्रयोग ने हमारी ऐपण संस्कृति पर खतरा पैदा कर दिया है । प्लास्टिक के यह स्टिकर हमारी संस्कृति को तो खतरे में डाल ही रहे हैं साथ ही इससे पर्यावरण प्रदूषण भी बढ़ता जा रहा है।
वहीं स्थानीय निवासी भास्करानंद का कहना है कि पारंपरिक रूप से लाल मिट्टी से पुताई के बाद महिलाएं इसे चावल से बिना किसी ब्रश के सहारे केवल उंगलियों से ऐपण तैयार करती हैं। घर की महिलाएं पारंपरिक परिधान में सज धज कर सुख एवं समृद्धि तथा ऐश्वर्य की कामना के लिए पारंपरिक रूप ऐपण निकालती हैं। गेरू एवं पिसे चावल से सजी ऐपण कला उत्तराखंड की पारंपरिक एवं ऐतिहासिक कला है। हमारे धर्म शास्त्रों में भी इसका विशेष उल्लेख है। दीपावली पर बनने वाली ऐपण में गणेश चौकी, लक्ष्मी चौकी तथा गोधन चौकी का विशेष महत्व है । केवल दीपावली ही नहीं अपितु सभी शुभ कार्यों पर ऐपण बनाने की परम्परा उत्तराखंड में सदियों से चली आ रहा है।

बाईट 01- रश्मी साह, ग्रहणी।
बाईट 02- पूनम, ग्रहणी।
बाईट 03- भाष्करानंद, स्थानीय।

एफवीओ- ऐपण कुमाऊं की विरासत ही नहीं बल्कि संस्कृति एवं कला को भी प्रदर्शित करती है। जिसका हमारे समाज की रीति रिवाज में अपना अलग ही महत्व है। आधुनिक पेंटिंग एवं रेडीमेड स्टिकर के चलन से आज यह परंपरा विलुप्त होती जा रही है। इस परंपरा को जीवित रखने की खास जरूरत है ताकि हमारे आने वाली पीढ़ी अपनी सांस्कृतिक विरासत से अनजान ना रहे।Conclusion:एफवीओ- ऐपण कुमाऊं की विरासत ही नहीं बल्कि संस्कृति एवं कला को भी प्रदर्शित करती है। जिसका हमारे समाज की रीति रिवाज में अपना अलग ही महत्व है। आधुनिक पेंटिंग एवं रेडीमेड स्टिकर के चलन से आज यह परंपरा विलुप्त होती जा रही है। इस परंपरा को जीवित रखने की खास जरूरत है ताकि हमारे आने वाली पीढ़ी अपनी सांस्कृतिक विरासत से अनजान ना रहे।
Last Updated : Oct 27, 2019, 7:50 PM IST
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