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अनूठी सांस्कृतिक विरासत को संजोए देवभूमि, बुरी आत्माओं को भगाने के लिए खेली गई बग्वाल - अल्मोड़ा बग्वाल

गोवर्धन पूजा के दिन अल्मोड़ा के पाटिया गांव में पाषाण युद्ध खेला गया. इस ऐतिहासिक परंपरा को देखने को देखने के लिए आस-पास के गांव के सैकड़ों लोग यहां पहुंचे. गोवर्धन पूजा के दिन यहां पूरे रिवाज के साथ पाषाण युद्ध हुआ.

गोवर्धन पूजा के दिन खेला गया पाषाण युद्ध
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Published : Oct 28, 2019, 8:09 PM IST

Updated : Oct 29, 2019, 1:49 PM IST

अल्मोड़ा: देवभूमि उत्तराखंड जैसी सांस्कृतिक और पौराणिक विरासत देश के किसी प्रांत में देखने को नहीं मिलती. यहां अतीत की परंपराओं के कारण देवभूमि अन्य राज्यों से हटके अपना विशेष स्थान रखती है. इसे समझने और जानने के लिए देश-विदेश के लोग हमेशा लालायित रहते हैं. ऐसी की एक अनोखी परंपरा सांस्कृतिक नगरी कहे जाने वाले अल्मोड़ा जिले में निभाई जाती है. हर साल सैकड़ों लोग इस परंपरा के गवाह बनते हैं. दिवाली के मौके पर ताकुला ब्लॉक के पाटिया गांव में इस परंपरा को निभाया जाता है.

गोवर्धन पूजा के दिन ग्रामीणों ने पत्थरों से खेला युद्ध

अतीत से चली आ रही परंपरा
दीपावली के दूसरे दिन जहां पूरा देश गोवर्धन पूजा मना रहा होता है तो वहीं अल्मोड़ा जिले के ताकुला ब्लॉक के पाटिया गांव में एक अनोखी परंपरा निभाई जाती है. इस क्षेत्र में गोवर्धन पूजा के दिन पत्थरों से युद्ध (पाषाण युद्ध) कर बग्वाल खेली जाती है. ये परंपरा यहां सदियों से चली आ रही है. इस पाषाण युद्ध में ग्रामीण पचघटिया नदी के अलग-अलग छोरों पर खड़े होकर एक दूसरे पर पत्थर बरसाते हैं.

पढ़ें-गंगोत्री धाम के कपाट विधि-विधान से बंद, 6 महीने तक मुखबा में होंगे दर्शन

हर साल की तरह इस साल भी गोवर्धन पूजा के दिन पाटिया गांव की इस ऐतिहासिक परंपरा को देखने के लिए आस-पास के गांव के सैकड़ों लोग यहां पहुंचे. गोवर्धन पूजा के दिन यहां पूरे रिवाज के साथ पाषाण युद्ध हुआ. पाटिया क्षेत्र के पचघटिया में चार गांवों के लोगों ने पाषाण युद्ध खेलकर बग्वाल मनाई.

सैकड़ों लोग बने गवाह
पाटिया गांव में गोवर्धन पूजा के दिन बग्वाल में एक दल में कोट्यूड़ा और कसून के लोग रहे तो दूसरे दल में पटिया और भटगांव के लोग शामिल हुए. लगभग एक घंटे तक चले इस युद्ध में एक ग्रामीण के पचघटिया नदी के पानी तक पहुंचने और उसे छूने के बाद बग्वाल युद्ध समाप्त हुआ. परंपरा के अनुसार पत्थर युद्ध का आगाज पाटिया गांव के गायखेत अगेरा मैदान में गाय की पूजा के साथ हुआ.

पढ़ें- शीतकाल के लिए बंद हुए बाबा केदारनाथ और यमुनोत्री धाम के कपाट

ये है मान्यता

मान्यता के अनुसार पिलख्वाल खाम के लोग चीड़ की टहनी खेत में गाड़कर बग्वाल की अनुमति मांगते हैं. इसके बाद स्थानीय पचघटिया (नदी का नाम) के दोनों ओर से दल एक दूसरे पर पत्थर फेंकते हैं. दोनों दलों में पहले नदीं में पहुंचने के लिए संघर्ष होता है. जैसे ही कोई एक व्यक्ति पानी में जाकर उसे पी लेता है ये युद्ध समाप्त हो जाता है. जिसके बाद लोग एक दूसरे को बधाई देकर अगले साल फिर मिलने का वादा करते हैं.

बिच्छू घास से किया जाता है उपचार
ये बग्वाल कब शुरू हुई हालांकि इसकी कोई पुख्ता जानकारी नहीं हैं, लेकिन बताया जाता है कि वर्षों पुरानी ये परंपरा बुरी आत्मा को दूर करने के लिए निभाई जाती है. सभी लोग एकजुट होकर पत्थरों से बुरी आत्मा को भगाते हैं. हालांकि, नई पीढ़ी इस परंपरा के बारे में ज्यादा नहीं जानती है. इस युद्ध की सबसे बड़ी खासियत यह है कि युद्ध के दौरान पत्थरों से चोटिल हो जाने वाला योद्धा किसी दवा का इस्तेमाल नहीं करता बल्कि बिच्छू घास की उबटन को घाव पर लगाया जाता है.

चंपावत में भी खेला जाता है बग्वाल
ऐसी ही परंपरा हर साल रक्षाबंधन के दिन चंपावत के बाराही मंदिर में भी देखने को मिलती है. देवीधुरा के मंदिर के प्रांगण में सैकड़ों लोग इकट्ठे होते हैं और एक-दूसरे पर पत्थर फेंककर बग्वाल मनाते हैं. इस अनोखे त्योहार में मां बाराही देवी को खुश करने के लिए पत्थर फेंकने का खेल खेलकर लहू बहाए जाने की परंपरा है. यह पर्व प्रत्येक वर्ष रक्षाबंधन के दिन श्रावण की पूर्णिमा पर बारही देवी को प्रसन्न करने के लिए मनाया जाता है. हालांकि, बग्वाल के दौरान पत्थरों के प्रयोग पर उच्च न्यायालय का प्रतिबंध है, इसके बाद अब फल-फूल से बग्वाल खेली जाती है.

अल्मोड़ा: देवभूमि उत्तराखंड जैसी सांस्कृतिक और पौराणिक विरासत देश के किसी प्रांत में देखने को नहीं मिलती. यहां अतीत की परंपराओं के कारण देवभूमि अन्य राज्यों से हटके अपना विशेष स्थान रखती है. इसे समझने और जानने के लिए देश-विदेश के लोग हमेशा लालायित रहते हैं. ऐसी की एक अनोखी परंपरा सांस्कृतिक नगरी कहे जाने वाले अल्मोड़ा जिले में निभाई जाती है. हर साल सैकड़ों लोग इस परंपरा के गवाह बनते हैं. दिवाली के मौके पर ताकुला ब्लॉक के पाटिया गांव में इस परंपरा को निभाया जाता है.

गोवर्धन पूजा के दिन ग्रामीणों ने पत्थरों से खेला युद्ध

अतीत से चली आ रही परंपरा
दीपावली के दूसरे दिन जहां पूरा देश गोवर्धन पूजा मना रहा होता है तो वहीं अल्मोड़ा जिले के ताकुला ब्लॉक के पाटिया गांव में एक अनोखी परंपरा निभाई जाती है. इस क्षेत्र में गोवर्धन पूजा के दिन पत्थरों से युद्ध (पाषाण युद्ध) कर बग्वाल खेली जाती है. ये परंपरा यहां सदियों से चली आ रही है. इस पाषाण युद्ध में ग्रामीण पचघटिया नदी के अलग-अलग छोरों पर खड़े होकर एक दूसरे पर पत्थर बरसाते हैं.

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हर साल की तरह इस साल भी गोवर्धन पूजा के दिन पाटिया गांव की इस ऐतिहासिक परंपरा को देखने के लिए आस-पास के गांव के सैकड़ों लोग यहां पहुंचे. गोवर्धन पूजा के दिन यहां पूरे रिवाज के साथ पाषाण युद्ध हुआ. पाटिया क्षेत्र के पचघटिया में चार गांवों के लोगों ने पाषाण युद्ध खेलकर बग्वाल मनाई.

सैकड़ों लोग बने गवाह
पाटिया गांव में गोवर्धन पूजा के दिन बग्वाल में एक दल में कोट्यूड़ा और कसून के लोग रहे तो दूसरे दल में पटिया और भटगांव के लोग शामिल हुए. लगभग एक घंटे तक चले इस युद्ध में एक ग्रामीण के पचघटिया नदी के पानी तक पहुंचने और उसे छूने के बाद बग्वाल युद्ध समाप्त हुआ. परंपरा के अनुसार पत्थर युद्ध का आगाज पाटिया गांव के गायखेत अगेरा मैदान में गाय की पूजा के साथ हुआ.

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ये है मान्यता

मान्यता के अनुसार पिलख्वाल खाम के लोग चीड़ की टहनी खेत में गाड़कर बग्वाल की अनुमति मांगते हैं. इसके बाद स्थानीय पचघटिया (नदी का नाम) के दोनों ओर से दल एक दूसरे पर पत्थर फेंकते हैं. दोनों दलों में पहले नदीं में पहुंचने के लिए संघर्ष होता है. जैसे ही कोई एक व्यक्ति पानी में जाकर उसे पी लेता है ये युद्ध समाप्त हो जाता है. जिसके बाद लोग एक दूसरे को बधाई देकर अगले साल फिर मिलने का वादा करते हैं.

बिच्छू घास से किया जाता है उपचार
ये बग्वाल कब शुरू हुई हालांकि इसकी कोई पुख्ता जानकारी नहीं हैं, लेकिन बताया जाता है कि वर्षों पुरानी ये परंपरा बुरी आत्मा को दूर करने के लिए निभाई जाती है. सभी लोग एकजुट होकर पत्थरों से बुरी आत्मा को भगाते हैं. हालांकि, नई पीढ़ी इस परंपरा के बारे में ज्यादा नहीं जानती है. इस युद्ध की सबसे बड़ी खासियत यह है कि युद्ध के दौरान पत्थरों से चोटिल हो जाने वाला योद्धा किसी दवा का इस्तेमाल नहीं करता बल्कि बिच्छू घास की उबटन को घाव पर लगाया जाता है.

चंपावत में भी खेला जाता है बग्वाल
ऐसी ही परंपरा हर साल रक्षाबंधन के दिन चंपावत के बाराही मंदिर में भी देखने को मिलती है. देवीधुरा के मंदिर के प्रांगण में सैकड़ों लोग इकट्ठे होते हैं और एक-दूसरे पर पत्थर फेंककर बग्वाल मनाते हैं. इस अनोखे त्योहार में मां बाराही देवी को खुश करने के लिए पत्थर फेंकने का खेल खेलकर लहू बहाए जाने की परंपरा है. यह पर्व प्रत्येक वर्ष रक्षाबंधन के दिन श्रावण की पूर्णिमा पर बारही देवी को प्रसन्न करने के लिए मनाया जाता है. हालांकि, बग्वाल के दौरान पत्थरों के प्रयोग पर उच्च न्यायालय का प्रतिबंध है, इसके बाद अब फल-फूल से बग्वाल खेली जाती है.

Intro:अल्मोड़ा जिले के ताकुला ब्लॉक के पाटिया गांव में दीपावली के गोवर्धन पूजा के दिन एक अनोखी परंपरा निभाई जाती है। इस क्षेत्र में गोवर्धन पूजा के दिन पत्थरो का युद्ध(पाषाण युद्ध) यानि बग्वाल खेली जाती है। यह परंपरा सदियों से यहाँ चली आ रही है। इस पाषाण युद्ध मे ग्रामीण पचघटिया नदी के दो अलग अलग छोरो में खड़े होकर एक दूसरे पर पत्थर बरसाते हैं। यह युद्ध किसी एक ग्रामीण द्वारा नदी में पानी तक पहुंचने के बाद खत्म हो जाता है।
Body:आज भी गोवर्धन पूजा के दिन पाटिया में पाषाण युद्ध खेला गया। इस मौके पर पाषाण युद्ध देखने आस-पास के गावों के सैकड़ों लोग पहुंचे। पूरे रस्मो रिवाज के साथ पाषाण युद्ध हुआ। पाटिया क्षेत्र के पचघटिया में चार गांवों के लोगों ने पत्थर युद्ध (पाषाण युद्ध) खेला। एक दल में कोट्यूड़ा और कसून के लोग रहे तो दूसरे दल में पटिया और भटगांव के लोग शामिल रहे। लगभग एक घंटे तक चले इस पत्थर युद्ध में एक ग्रामीण के पचघटिया नदी के पानी तक पहुंचने और उसे छूने के बाद बग्वाल युद्ध समाप्त हो गया। परंपरा के अनुसार पत्थर युद्ध का आगाज पाटिया गांव के गायखेत अगेरा मैदान में गाय की पूजा के साथ शुरू हुआ।
पाटिया क्षेत्र के पचघटिया में खेले गये इस बग्वाल में पाटिया, भटगांव , जाखसौड़ा और कसून के ग्रामवासी हिस्सा लेते हे। और इसे देखने के लिये क्षेत्रा के सैकड़ो गांवों के लोग आते है। पाटिया और कोट्यूड़ा के बीच मूलतः खेले जाने वाले इस युद्ध में कोटयूड़ा के साथ कसून और जाखसौड़ा तथा पाटिया के साथ भटगांव के योद्धा भाग लेते है।पत्थर युद्ध का आगाज पाटिया गांव के अगेरा मैदान में गाय खेत में गाय की पूजा के साथ होता है। मान्यता के अनुसार पिलख्वाल खाम के लोगो ने चीड़ की टहनी खेत मे गाड़कर बग्वाल की अनुमति मांगते है । इसके बाद स्थानीय पचघटिया (नदी का नाम ) के दोनो ओर से दोनो दल एक दूसरे के ऊपर पत्थर फेंकते है। और दोनो पक्षों में पहले नदी में जाकर पानी पीने के लिये संघर्ष होता है। किसी एक पक्ष के व्यक्ति के नदी में जाकर पानी पी लेने के बाद यह बग्वाल समाप्त हो जाती है। इसके बाद बग्वाल खेल रहे लोग एक दूसरे को बधाई देकर अगले वर्ष फिर बग्वाली के दिन मिलने का वादा कर विदा लेते है।
यह बग्वाल क्यों शुरू हुई कब से हुई इसके बारे में हालांकि सटीक जानकारी तो नही है, लेकिन इस बग्वाल के बारे में मान्यता है कि सैकड़ो वर्षो पूर्व किसी बुरी आत्मा को भगाने के लिए इन गावों के लोगों ने एकजुट होकर उसे पत्थरों से भगाया था। और बाद में उसके भाग जाने और पानी पीने की मोहलत देने के अनुरोध पर ही गांववासियो ने उसे छोड़ा था। हालाकिं नई पीढी इस कहानी के बारे में भी ज्यादा नहीं जानती है। पत्थर युद्ध नदी के दोनां छोरों से खेला जाता है और जिस टीम का व्यक्ति सबसे पहली पानी पीने पहुंच जाता है वही टीम विजयी घोषित हो जाती है। इसके साथ ही युद्ध का समापन हो जाता है। इस युद्ध की सबसे बढ़ी खासियत यह है कि युद्ध के दौरान पत्थरों से चोटिल हो जाने वाला योद्धा किसी दवा का इस्तेमाल नहीं करता बल्कि बिच्छू घास के उबटन को घाव पर लगाया जाता है।Conclusion:
Last Updated : Oct 29, 2019, 1:49 PM IST
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