मसूरी: उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत में जौनसार, जौनपुर और रवांई का विशेष महत्व है. इस क्षेत्र को पांडवों की भूमि भी कहा जाता है. यह क्षेत्र अपनी अनोखी सांस्कृतिक विरासत के लिए भी जाना जाता है. जिसमें मछली पकड़ने का मौण मेला भी प्रमुख है. जो पूरे देश में कहीं भी नहीं होता है, लेकिन टिहरी जिले के जौनपुर विकासखंड की अगलाड़ नदी में मौण मेला आयोजित होता है. जिसे राजमीण भी कहा जाता है. कहा जाता है कि जब यहां राजशाही थी, तब टिहरी के राजा खुद मौण मेले में शिरकत करने आते थे.
![Maun Mela Uttarakhand](https://etvbharatimages.akamaized.net/etvbharat/prod-images/30-06-2023/uk-deh-01-mussoorie-maund-vis-uk10025_30062023105815_3006f_1688102895_171.jpg)
पारंपरिक वाद्ययंत्रों की धुन पर मछली पकड़ते हैं ग्रामीणः दरअसल, मॉनसून की शुरूआत में अगलाड़ नदी में जून के अंतिम सप्ताह में मछली मारने के लिए मौण मेला मनाया जाता है. जिसमें काफी संख्या में ग्रामीण अगलाड़ नदी में पारंपरिक वाद्ययंत्रों की धुन पर मछलियों को पकड़ते हैं और जमकर खुशियां मनाते हैं. इस बार भी ग्रामीण मछलियों को पकड़ने के लिए अगलाड़ नदी में उतरे. मौण मेले से पहले अगलाड़ नदी में टिमरू के छाल से तैयार पाउडर डाला जाता है, जिससे मछलियां कुछ समय के लिए बेहोश हो जाती हैं. इसके बाद उन्हें पकड़ा जाता है.
टिमरू से बेहोश हो जाती है मछलियां, ग्रामीणों का उमड़ता है हुजूमः हजारों की संख्या में ग्रामीण मछली पकड़ने के अपने पारंपरिक औजारों के साथ नदी में उतरते हैं. इस दौरान ग्रामीण मछलियों को अपने कुंडियाड़ा, फटियाड़ा, जाल और हाथों से पकड़ते हैं, जो मछलियां पकड़ में नहीं आ पाती हैं, वो मछलियां बाद में ताजे पानी में जीवित हो जाती हैं.
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तीन किलोमीटर के दायरे में पकड़ी जाती है मछलियांः स्थानीय ग्रामीणों ने बताया कि इस ऐतिहासिक त्योहार में टिमरू का पाउडर डालने की जिम्मेदारी सिलवाड़, लालूर, अठज्यूला और छैजूला पट्टियों का होता है, लेकिन इस बार पाउडर डालने का काम लालूर पट्टी के देवन, सड़कसारी, घंसी, मिरियागांव, टिकरी, छानी, ढ़करोल और सल्टवाड़ी गांव के लोग कर रहे हैं. अगलाड़ नदी के 3 किलोमीटर के दायरे में हजारों की संख्या में ग्रामीण पारंपरिक उपकरणों से मछलियां पकड़ते हैं.
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प्रसाद के रूप में परोसी जाती है मछलियांः मेले में कई किलो मछलियां पकड़ी जाती है, जिसे ग्रामीण प्रसाद स्वरूप अपने-अपने घर ले जाते हैं. घर में बनाकर मेहमानों को परोसते हैं. वहीं, मौण मेले में पारंपरिक तरीके से लोक नृत्य भी किया जाता है. मौण मेले में विदेशी पर्यटक भी शिरकत करते हैं. यह भारत का ऐसा अनूठा और खास मेला है, जिसका मकसद पर्यावरण और गदी का संरक्षण करना है. इसका एक और मकसद नदी की सफाई करना होता है. ताकि, मछलियों को भी प्रजनन के लिए साफ पानी मिल सके.
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टिमरू के पाउडर से नदी होती है साफः जल वैज्ञानिकों की मानें तो टिमरू का पाउडर जलीय पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाता है. टिमरू के पाउडर से कुछ समय के लिए मछलियां बेहोश हो जाती हैं, जो मछलियां पकड़ में नहीं आ पाती है, वो बाद में पानी साफ होती जीवित हो जाती हैं. इसके अलावा जब हजारों की तादाद में लोग नदी की धारा में चलते हैं तो तल में जमी हुई काई और गंदगी साफ होकर बह जाती है. मौण मेले के बाद अगलाड़ नदी साफ नजर आती है.
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साल 1866 में टिहरी नरेश ने शुरू किया था मेलाः इस ऐतिहासिक मेले का शुभारंभ साल 1866 में तत्कालीन टिहरी नरेश ने किया था. उसके बाद से ही जौनपुर में हर साल मौण मेले का आयोजन किया जाता है. क्षेत्र के बुजुर्गों का कहना है कि इसमें टिहरी नरेश खुद अपनी रानी के साथ आते थे. सुरक्षा की दृष्टि से राजा के प्रतिनिधि मौण मेले में मौजूद रहते थे, लेकिन सामंतशाही के पतन के बाद ग्रामीणों ने सुरक्षा का जिम्मा उठा लिया. इस मेले की अनेक विशेषताएं हैं, पहले तो यह अपने आप में अनोखा मेला है. वहीं, यह मेला सांस्कृतिक विरासत में विशेष महत्व रखता है.
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मछलियों को मारने के लिए प्राकृतिक जड़ी बूटी का होता है इस्तेमालः इस मेले की खासियत ये है कि हर साल मेले के आयोजन का जिम्मा अलग-अलग क्षेत्र के लोगों का होता है. जिसे स्थानीय भाषा में पाली कहते हैं. जिस क्षेत्र के लोगों की बारी होती है, वहां के लोग एक दो महीने पहले ही तैयारी कर लेते हैं. क्योंकि इसमें मछलियों को मारने के लिए प्राकृतिक जड़ी बूटी का प्रयोग किया जाता है. जिसे स्थानीय भाषा में टिमरू कहते हैं. इस पौधे की छाल को निकाला जाता है और इसे सूखा और कूट कर इसका पाउडर बनाया जाता है, जिसे नदी में डाला जाता है.
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